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शिक्षा के साधन के रूप में घर अथवा परिवार का महत्व | Importance of Home or Family as a Means of Education

शिक्षा के साधन के रूप में घर अथवा परिवार का महत्व | Importance of Home or Family as a Means of Education
शिक्षा के साधन के रूप में घर अथवा परिवार का महत्व | Importance of Home or Family as a Means of Education

शिक्षा के साधन के रूप में घर अथवा परिवार का क्या महत्व है ? स्पष्ट कीजिए। 

शिक्षा के साधन के रूप में घर अथवा परिवार का महत्व (Importance of Home or Family as a Means of Education)

संसार के सभी शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा संस्था के रूप में घर के महत्व पर बल दिया है। कुछ शिक्षाशास्त्रियों के विचार निम्न प्रकार से हैं-

  1. ‘कयेनियस’ ने घर को बालकों की सब प्रकार की शिक्षा का केन्द्र माना है।
  2. ‘लॉक’ महोदय ने व्यक्तिगत शिक्षक से घर पर ही शिक्षा प्राप्त करना उत्तम बताया है और विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा का विरोध किया है। ‘
  3. ‘रूसो’ ने माँ को एक सच्ची नर्स की पदवी दी है और पिता को वास्तविक अध्यापक की।
  4. ‘पेस्टालॉजी’ ने घर को एक अति आवश्यक शिक्षा संस्था माना है और माता को सच्ची शिक्षा का स्रोत। उनके कथनानुसार घर बालक की प्रथम पाठशाला है। अतः उन्होंने विद्यालय में घर का वातावरण बनाये रखने की आवश्यकता पर बल दिया है।
  5. ‘फ्रोबेल’ के अनुसार घर पर दी गयी शिक्षा स्वाभाविक एवं प्रभावशाली होती है।
  6. ‘मान्टेसरी ने घर के महत्व को स्वीकार करते हुए अपनी शैक्षिक संस्थाओं को बालक का घर कहा है।
  7. ‘रेमान्ट’ के अनुसार घर ही वह भूमि है जिसमें खेलते हुए बालकों में विभिन्न गुणों का विकास होता है।
  8. ‘मेजनी’ महोदय का कथन है कि बालक को नागरिकता का सबसे पहला पाठ माँ के घुटनों पर बैठने का पिता के प्यार से मिलता है।
  9. ‘महात्मा गाँधी के अनुसार बालक गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है।

बालक जन्म से ही असहाय होता है। जन्म लेने के बाद वह कई वर्षों तक अपने माता-पिता पर निर्भर करता है। चलना फिरना बोलना आदि वह परिवार में रहकर ही सीखता है। इससे स्पष्ट है कि बालक की शिक्षा-दीक्षा घर से प्रारम्भ होती है। बालक ही नहीं बल्कि सभी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी अपने परिवार में जन्म लेते, पलते हैं और बड़े होते हैं तथा शिक्षा प्राप्त करते हैं। जीवन के प्रारम्भ के दिनों में ही बालक का समुचित स्थान होता है और यहाँ उसकी शिक्षा का स्रोत है। घर में बालक को ‘स्वतंत्रता’ एवं प्यार मिलता है। यहीं पर वह आदतें ग्रहण करता है जो आदतें गुण एवं मनोवृत्ति वह धारण करता है उनका जीवन भर प्रभाव रहता है। घर के प्रभाव के कारण बालक एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। ‘रेमॉण्ट’ के कथनानुसार “यदि दो बालक एक ही विद्यालय में पढ़ते हैं, एक ही शिक्षक से शिक्षा प्राप्त करते हैं. उसी संगठन एवं प्रशासन में रहते हैं, एक सा अध्ययन करते हैं, फिर भी वे पूर्ण रूप से अपने-अपने सामान्य ज्ञान, रुचि भाषण, व्यवहार तथा नैतिकता में अपने पारिवारिक वातावरण के कारण भिन्न होते है।’ अतः इससे स्पष्ट है कि परिवार बालक के कारण भिन्न स्थाई प्रभाव डालता है और बालक वैसा ही बनता है जैसा घर होता है। वह प्रभाव लाभप्रद अथवा घातक हो सकता है। बचपन के अच्छे प्रभावों द्वारा सुन्दर व्यक्तित्व बनता है और बुरे प्रभावों द्वारा व्यक्तित्व विकृत होता है।

बालक की शिक्षा के विकास में घर के कार्य  (Role of Family in the Education of the Child)

परिवार बालक को शिक्षा पर किस प्रकार सहयोग प्रदान करता है, इसके सम्बन्ध में अब हम परिवार के कार्यों को प्रस्तुत करेंगे –

1. बौद्धिक विकास (Mental Development) – बालकों का बौद्धिक विकास घर पर होता है जिन बालकों के घर पर अच्छी-अच्छी पुस्तकें पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं, उनकी बुद्धि का विकास अच्छा होता है। घर पर बालक की निरीक्षण शक्ति परीक्षण शक्ति, कल्पना शक्ति विचार शक्ति आदि का परीक्षण होता है। इन शक्तियों का उत्तम विकास ही एक समूचे रूप में बालक के बौद्धिक विकास में सहायक सिद्ध होता है।

2. चरित्र निर्माण (Development of Character)- बालक के चरित्र का निर्माण घर पर ही होता है। घर पर ही वह नैतिक, धार्मिक, सामाजिक नियमों तथा आदर्शों को ग्रहण करता है, जो चरित्र को बनाने में सहायक होते हैं। घर बालकों को ईमानदारी सत्यता देशप्रेम क्षमा, सदभावना आदि गुणों को विकसित करता है। घर ही बालक को स्वार्थी, दयाहीन एवं हृदयहीन बनाता है। अत: इससे स्पष्ट है कि जब बालक विद्यालयों में जाता है इससे पूर्व ही बालक का चरित्र बन चुका है। घर पर ही चरित्र बनाने में मुख्य प्रभाव होता है।

3. व्यक्तित्व का विकास करना (Development of Individuality) – बालक के व्यक्तित्व के विकास की नींव घर पर ही पड़ती है। बचपन में जो संस्कार पड़ जाते हैं वे स्थाई होते हैं। बचपन में पड़े बुरे प्रभावों द्वारा उसका व्यक्तित्व विकृत हो जाता है। दूसरे शब्दों में घर में बालक के विकास की जो शैली बन जाती हैं वहीं शैली उसके व्यक्तित्व के भावी विकास का रूप निर्धारण करती है।

4. शारीरिक विकास (Physical Development) – बालक का शारीरिक विकास घर पर ही होता है। बालक घर पर ही खेलकूद कर व्यायाम करके अपना स्वास्थ्य बना सकता है। बाल्यावस्था तक जो विकास शरीर का हो जाता है, उसी का विकास जीवन में अधिक होता है। बालक के उचित पोषण एवं विकास के लिए परिवार उचित वातावरण, पौष्टिक भोजन, मनोरंजन, व्यायाम आदि की व्यवस्था करता है। परिवार का कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह बालक के शारीरिक विकास के लिए उपयुक्त व्यवस्था करे क्योंकि शारीरिक विकास के ऊपर ही अन्य विकास निर्भर हैं।

5. धार्मिक शिक्षा (Religious Education) – बालक की धार्मिक शिक्षा का आरम्भ घर पर ही होता है। घर में वह परिवार के अन्य सदस्यों के साथ पूजा-पाठ आदि करता है। धार्मिक कार्यों तथा चर्चाओं में भाग लेने से मन में दया, सहानुभूति, प्रेम, त्याग, सामाजिक तथा नैतिक भाव उत्पन्न होते हैं। धार्मिक शिक्षा के अभाव में बालक का चारित्रिक विकास कठिन है।

6. जीवन की वास्तविकता से अवगत कराना (Acquaintance with Reality of Life)- बालक परिवार में रहकर परिवार से आने वाले सुख-दुःख, प्रसन्नता, उदासीनता से अवगत हो जाता है जिनका उसे अपने जीवन में सामना करना होता है। साथ ही वह समस्या का समाधान करने की योग्यता भी प्राप्त कर लेता है। इस कार्य को करने के लिए परिवार को कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है बल्कि बालक स्वाभाविक रूप से ही सीख जाता है।

7. सामाजिक भावनाओं का विकास (Development of Social Feelings) – परिवार ही बालक के सामाजिक जीवन का प्रथम शिक्षा केन्द्र है। परिवार में रहकर ही बालक सामाजिक आदर्श एवं परम्पराओं के नमूने तथा आदर्श आचरण एवं परिवार के तौर-तरीके की जानकारी प्राप्त करना है और उनके द्वारा सबसे पहले न्याय एवं अन्याय की अनुभूति होती है। बाह्य समाज की भाँति परिवार सदस्यों के रूप का निर्माण करता है और उनके द्वारा स्वयं उनका स्वरूप निर्मित होता है। घर की वह सामाजिक इकाई है जो बालक के समाजीकरण में महत्वपूर्ण कार्य करती है।

8. जन्मजात प्रवृत्तियों एवं प्रेरणाओं का प्रकाशन (Development of Inherent Tendencies)- बालक के जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों एवं प्रेरणाओं को लेकर जन्म लेता है। बालक की शिक्षा में इसका विशेष महत्व होता है। बालक के सर्वांगीण विकास में इनका प्रकाशन अति आवश्यक है। घर अथवा परिवार ही सर्वप्रथम इनके प्रकाशन के लिए उचित अवसर प्रदान करते हैं और उपयुक्त वातावरण की व्याख्या करते हैं।

9. व्यावहारिक एवं व्यावसायिक शिक्षा (Practical and Vocational Education)- बालकों को घर में ही व्यावहारिक शिक्षा मिलती है, दूसरों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए किस तौर-तरीके से उठना-बैठना, चलना-फिरना, बात-चीत करना चाहिए. इन सबका व्यवहारिक ज्ञान बालकों के लिए घर से ही मिलता है। घर में ही उसे अपने पैतृक व्यवसाय तथा अन्य घरेलू उद्योग-धन्धों की शिक्षा मिलती है। घर में रहकर तथा अन्य सदस्यों के साथ रहकर वह घरेलू व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करता है और आगे चलकर सीखे हुए व्यवसाय को अपनी जीविकोपार्जन हेतु अपनाता है।

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