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मानवीय मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका

मानवीय मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका
मानवीय मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका

मानवीय मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका की विवेचना कीजिए।

मानवीय मूल्यों या मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका की विवेचना करने से पहले हमें यह जान लेना अनिवार्य है कि मूल्य क्या है ? और उनकी क्या आवश्यकता है ?

मूल्य का अर्थ- इसमें कोई शक नहीं कि इक्कीसवीं सदी में मूल्य आधारित शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान समय मूल्यों की स्थापना का समय नहीं रहा बल्कि यह समय मूल्य विघटन का समय है। ऐसे समय उम्मीद की एक किरण नजर आती है, वह है मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान करना।

आज समाज के चारों ओर अविश्वास का, बेईमानी का, ईर्ष्या का, लूट, भ्रष्टाचार, असम्मान, माता-पिता की अवहेलना जैसे मानवीय मूल्यों के पतन का माहौल बना हुआ है जिसके परिणामस्वरूप समाज में सकारात्मकता के स्थान पर नकारात्मकता की सोच निर्मित हो रही है। ऐसे विकृत व बिगड़े हुए माहौल को सुधारने व संवारने के लिये शिक्षा का साथ ही कारगर साधन है।

मूल्य वे अमूर्त अवधारणाएँ या मानक हैं, जिनके आधार पर समाज में भावनाओं, विचारों, कार्यों, गुण, वस्तुओं, व्यक्तियों, समूहों, लक्ष्यों, साधनों आदि का मूल्यांकन वांछनीय या अवांछनीय, अधिक प्रशंसनीय या कम प्रशंसनीय, अधिक सही या कम सही आदि के रूप में किया जाता है, मूल्य कहलाते हैं। मूल्य प्रत्येक समाज के लिये अति संवेदनशील व महत्वपूर्ण होते हैं। समाज में सामाजिक सन्तुलन व व्यवहार में एकरूपता बनाए रखने में सहायक होते हैं। मूल्य (Value) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Valere शब्द से हुई है जो किसी वस्तु की कीमत या उपयोगिता को व्यक्त करता है। भारतीय धर्मग्रन्थों में भी मूल्य के स्थान पर शील शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें त मूल्य वस्तुतः एक प्रकार का मानक है जो समाज के व्यक्तियों तथा समाज के स्तर परम्पराओ सिद्धान्तों की पहचान तथा समाज के व्यक्तियों से उनके प्रति सम्मान की भावना को परिलक्षित है।

अर्बन के अनुसार, “मूल्य वह है जो मानव इच्छाओं की तुष्टि कर सके।”

काने के अनुसार, “मूल्य वे आदर्श विश्वास या प्रतिमान हैं जिनको एक समाज या समाज के अधिकांश सदस्यों ने ग्रहण कर लिया है।”

पारसन्स के अनुसार, “मूल्य किसी सामाजिक व्यवस्था में कई अनुस्थापनों में से किसी एक अनुस्थापना को चुनने का एक मानक है।”

विद्वानों द्वारा समय-समय पर दी गयी मूल्य की परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि मूल्य मानवीय व्यवहार का निर्धारक व निर्देशक सिद्धान्त तथा मानक हैं जो सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न विकल्पों में से चयनित व्यवस्था के अनुरूप कार्य करने को दिशा निर्देश प्रदान करते हैं।

मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता- मूल्यपरक शिक्षा की अवधारणा अपेक्षाकृत व्यापक एवं नवीन अवधारणा अवश्य हो सकती है किन्तु इसका अस्तित्व सदियों से रहा है। पारम्परिक रूप में धार्मिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा जैसी अवधारणा जो प्रचलित है मूल्यपरक शिक्षा उससे भिन्न है। जहाँ तक मूल्यपरक शिक्षा का प्रश्न है उससे तात्पर्य उस शिक्षा से है जिससे हमारे नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य एक माला के समान पिरोए हुए हैं। इसके अन्तर्गत विभिन्न तत्वों, आयामों, विषयों को मूल्यपरक बनाकर उनके माध्यम से विभिन्न मूल्यों को छात्रों के व्यक्तित्व में समाहित करने पर बल दिया जाता है जिससे उनका सन्तुलित व सर्वांगीण विकास हो सके। मूल्यपरक शिक्षा को दो * अर्थों में व्यक्त किया जाता है।

(1) मूल्यों की शिक्षा- इसके अन्तर्गत नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा इतिहास, भूगोल, जीवविज्ञान, रसायनशास्त्र, भौतिकी आदि की शिक्षा की भाँति एक स्वतन्त्र विषय के रूप में दी जाती है।

(2) मूल्य समाहित शिक्षा- इसके अन्तर्गत सभी विषयों में मनोवैज्ञानिक ढंग से मूल्य समाहित करके उक्त मूल्यों के विकास पर बल देते हैं।

मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका- मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता के – विवेचन से स्पष्ट होता है कि मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका क्या हो सकती है। भारत जैसे बहुसंस्कृति वाले देश के लिये मूल्यों की शिक्षा और भी अधिक महत्व रखती है। भारत अपनी कला, संस्कृति, दर्शन आदि की गौरवशाली परम्पराओं पर सदा से ही गौरवान्वित होता रहा है किन्तु समसामयिक युग में अनास्था एवं पारस्परिक अविश्वास के वातावरण में हमारी प्राचीन परम्परा एवं मूल्य धूमिल हो रहे हैं। तथाकथित आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा, अस्तित्ववादी जीवन, अनात्मपरक नास्तिकता, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, तर्कप्रधान चिन्तन आदि के समेचित प्रभावों से हमारे पुरातन मूल्य प्रदूषित हो रहे हैं।

उक्त कलुषित संकटग्रस्त वातावरण ने मूल्यपरक शिक्षा की अपरिहार्यता की ओर सभी का ध्यान आकृष्ट कर लिया है। हमने संक्रमण काल में कर्त्तव्य या कार्य संस्कृति के स्थान पर उपभोक्तावादी संस्कृति का अन्धानुकरण कर लिया है। इसी उपभोक्तावादी संस्कृति ने मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता को और भी प्रबल बना दिया है।

उपर्युक्त एवं अन्य कारकों के समेकित प्रभाव के फलस्वरूप मनुष्य के आचरण में जो गिरावट आई है उसने सभी प्रबुद्ध विचारकों को अवश्य ही चिन्तित किया है। देश में प्रायः सभी राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं शैक्षिक मंचों से जीवन मूल्यों को पुनः प्रतिस्थापित किए जाने की मांग की जा रही है। इनके पुनः प्रतिष्ठापन के लिये मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता महसूस की जा रही है। यही कारण है कि नई शिक्षा नीति में भी मूल्यों के गिरते स्तर पर चिन्ता करते हुए शिक्षा में मूल्यों पर बल दिया गया है।

विद्यालय स्तर पर मूल्यों की शिक्षा के उद्देश्य- विद्यालय स्तर पर मूल्यपरक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए।

  1.  छात्रों को एक उत्तरदायी नागरिक बनने के लिये प्रशिक्षित करना।
  2. राष्ट्रीय लक्ष्यों – समाजवाद, राष्ट्रीय एकता, लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता एवं सर्व धर्म समभाव, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय का सही अर्थों में बोध कराना।
  3. देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में उन्हें जागरूक बनाना।
  4. छात्रों में सहयोग, प्रेम, करुणा, शान्ति, अहिंसा, साहस, समानता, न्याय, बन्धुत्व, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि मौलिक गुणों का विकास करना।
  5. छात्रों को स्वयं को जानने के लिये प्रोत्साहित करना जिससे वे स्वयं में आस्था रखने में समर्थ हो सकें।
  6. स्वयं व अपने साथियों के प्रति स्वदेश के प्रति मानवता के प्रति, सभी धर्मों एवं संस्कृतियों के प्रति, जीवन एवं पर्यावरण के प्रति उनमें समुचित दृष्टिकोण विकसित करना।

मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा के मार्गदर्शक सिद्धान्त की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। मूल्य विकास हेतु शिक्षा के मार्गदर्शक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  1. मूल्यों के विकास के लिये शिक्षा को समाज की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ में क्रियान्वित किया जाना चाहिए।
  2. मूल्य विकास हेतु शिक्षा के सिद्धान्त धार्मिक शिक्षा के सिद्धान्तों से भिन्न हैं। अतः इसमें धर्म विशेष पर बल नहीं दिया जाना चाहिए।
  3. मूल्यपरक शिक्षा के कार्यक्रम की सफलता घर, विद्यालय के आदर्श वातावरण तथा शिक्षक के आधार पर होनी चाहिए।
  4. मूल्यों के विकास हेतु शिक्षा को स्वतन्त्र विषय के रूप में स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। विभिन्न विषयों में इसके लिये मूल्यों को समाहित किया जाय।
  5. संविधान में निर्देशित मूल्य एवं सामाजिक उत्तरदायित्व मूल्यों के विकास हेतु शिक्षा का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए।

मूल्यों के विकास में पारिवारिक शिक्षा, सामाजिक शिक्षा तथा विद्यालयी शिक्षा तीनों का समान्तर योगदान होता है तभी किसी समाज में निर्धारित मूल्यों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।

मूल्यों के विकास में पारिवारिक शिक्षा की भूमिका –

समाज का आधार मानवीय सम्बन्धों पर निर्भर करता है। मानवीय सम्बन्धों के मूल स्रोत के रूप में परिवार रूपी संगठन का प्राथमिक स्थान है। परिवार के जो सदस्य माता-पिता, भाई-बहन, दादी दादा यह समाज में अन्यत्र कहीं किन्हीं भी सम्बन्धों में नहीं मिलते किन्तु व्यक्ति परिवार से बाहर निकल कर भी स्त्रियों से मातृत्व, बड़ों से पितृत्व सम-वय के व्यक्तियों से भ्रातृत्व सम्बन्धों को निर्मित करता है। यदि उसके पारिवारिक अनुभव सुखद, सहज, सरल एवं सामंजस्यपूर्ण होते हैं तो कालान्तर में परिवार के इतर भी वह उसी प्रकार के सम्बन्ध एवं भावनात्मक सम्बद्धता उत्पन्न कर लेता है। अतः इन पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा में पारिवारिक शिक्षा एवं संस्कारों का अनुपम योगदान होता है। रेमण्ट के अनुसार, “बच्चे भले ही एक ही विद्यालय में पढ़ते हों, एक ही समान शिक्षकों से प्रभावित हों, एक सा ही अध्ययन करते हों फिर भी वे अपने सामान्य ज्ञान, रुचियों, भाषण, व्यवहार और नैतिकता में अपने घरों के कारण जहाँ से वे आते हैं पूर्णतः भिन्न हो सकते हैं।” वस्तुतः मूल्यों की शिक्षा बच्चे को घर से ही मिलनी शुरू होती है। मूल्यों के विकास में सामाजिक शिक्षा की भूमिका मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज – से अलग उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य ने अपने इस दीर्घकालिक इतिहास में समाज रूपी संगठन का निर्माण किया है। इस संगठन में हमें कार्य करने के लिये जहाँ एक ओर एक सीमाओं के दायरे में रखा गया है वहीं दूसरी ओर कुछ कार्यों को करने के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता व स्वच्छन्दता प्राप्त है। साथ ही कुछ कार्यों को करना पूर्णतः निषेध भी है। समाज रूपी संगठन में व्यवस्था का निर्धारण किया गया है जिसमें हमें एक निश्चित प्रकार से रहन-सहन व व्यवहार करना पड़ता है।

मानवीय समाज अपने मूल्यों, आदशों, परम्पराओं, मानकों, क्रियाओं को आने वाली सन्तति को हस्तान्तरित करता हुआ स्वयं को जीवित रखता है। जिन समाजों में उनके सर्वग्राही समाज स्वीकृत मूल्यों, आदर्शों, परम्पराओं, मानकों एवं क्रियाओं के प्रति लोगों का सम्मान व निष्ठा की भावना होती हैं उस समाज के मूल्यों की समृद्धता उतनी ही अधिक होती है। फ्रैंकलिन के अनुसार, “समाज शिक्षा संस्थाओं को अपने सदस्यों में ज्ञान कौशलों, आदर्श मूल्यों तथा व्यवहारों का प्रसार करने एवं सुरक्षित रखने के लिये स्थापित करता है जोकि उसके स्वयं के स्थायित्व एवं निरन्तर विकास के लिये परम आवश्यक है।”

मूल्यों के विकास में विद्यालयी शिक्षा की भूमिका-

छात्रों में मूल्यों के विकास में विद्यालयी शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बालक-परिवार रूपी संस्था से पारिवारिक वातावरण के अनुसार मूल्यों को समाहित कर विद्यालय में प्रवेश करता है। पारिवारिक पृष्ठभूमि में विभिन्नता स्वाभाविक होती है। विद्यालय के आने के उपरान्त सकारात्मक मूल्यों को विद्यालय जैसी संस्था में और भी परिष्कृत किया जाता है। मूल्यों के विकास में विद्यालय की भूमिका के सम्बन्ध में राबिन मैरो का कहना है कि विद्यालय में मूल्यों के विकास के दो प्रमुख आधार हैं

  1. विद्यालय का समरसतापूर्ण एवं सौहार्द्रपूर्ण स्वस्थ पर्यावरण |
  2. शिक्षकों द्वारा आदर्श प्रस्तुतीकरण।

विद्यालयी वातावरण, अध्यापकों का व्यक्तित्व एवं व्यवहार, विद्यालय में उपलब्ध संरचनात्मक सुविधाएँ एवं इन सभी की पारिवारिक व सामाजिक पृष्ठभूमि छात्रों को मूल्योन्मुख बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विद्यालय की प्रातःकालीन सभा, पाठ्यक्रम एवं पाठ्य सहगामी क्रियाएँ, सभी धर्मों के धार्मिक उत्सवों का आयोजन कार्यानुभव, खेलकूद, विषय आधारित क्लब, समाज सेवा जैसे क्रियाकलाप, छात्रों में सहयोग एवं पारस्परिक सद्भाव, निष्ठा आदि जीवन मूल्यों के विकास में सहायक होते हैं। अतः मूल्यों के विकास में विद्यालय में मिलने वाली शिक्षा, विद्यालय का वातावरण, “लोकतान्त्रिक, उत्साहवर्धक, स्वस्थ, सौन्दर्यपूर्ण, अनुशासनप्रिय, सहिष्णु, कर्तव्यपरायण एवं सृजनात्मक होना चाहिए। इस सम्बन्ध में गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन था कि- “हमारे शिक्षक जब यह समझने लगेंगे कि हम गुरु के आसन पर बैठे हैं और हमें अपने जीवन द्वारा छात्रों में प्राण फूंकने हैं, अपने ज्ञान द्वारा उनके हृदय में ज्ञान एवं विद्या की ज्योति जगानी है, अपने प्रेम व स्नेह द्वारा बालकों का उद्धार करना है, उनके अमूल्य जीवन में सुधार करना है तब वे ऐसी वस्तु प्रदान करने के लिये तत्पर में सकेंगे जो बेचे जाने वाली नहीं है जो मूल्य (कीमत) देकर प्राप्त नहीं की जा सकती। उसी समय छात्रों के समीप सरकार द्वारा नहीं वरन धर्म के विधान और प्राकृतिक नियम के अनुसार सम्मानित एवं पूज्य बन सकेंगे।

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