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शैक्षिक आय का अर्थ और सार्वजनिक एवं निजी आय के स्त्रोत

शैक्षिक आय का अर्थ और सार्वजनिक एवं निजी आय के स्त्रोत
शैक्षिक आय का अर्थ और सार्वजनिक एवं निजी आय के स्त्रोत

शैक्षिक आय से आप क्या समझते हैं? सार्वजनिक एवं निजी आय के स्त्रोतों का वर्णन कीजिए।

शैक्षिक आय का अर्थ- एक वित्तीय वर्ष में शैक्षिक कार्यों को सम्पन्न कराने हेतु जो धन-संग्रह प्राप्त किया जाता है, उसे वर्ष की शैक्षिक आय कहा जाता है। जिन साधनों, अभिकरणों एवं मदों से शैक्षिक आय होती है, उसे शैक्षिक आय के स्रोत कहा जाता है। शैक्षिक आय के स्रोतों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(अ) सार्वजनिक शैक्षिक आय–

सार्वजनिक साधनों से प्राप्त धन को सार्वजनिक शैक्षिक आय के रूप में माना जाता है। इसके अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार, विश्वविद्यालय आयोग, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्, राज्य सरकार स्थानीय शासन, जैसे- नगर निगम, नगर पालिका, जिला परिषद् तथा ग्राम पंचायतें एवं विदेशी सहायता से प्राप्त धन को सम्मिलित किया जाता है। सार्वजनिक शैक्षिक आय के स्रोत निम्नलिखित हैं

1. केन्द्रीय सरकार द्वारा प्राप्त शैक्षिक आय– सम्पूर्ण भारत में शिक्षा पर होने वाले व्यय का भार केन्द्रीय सरकार वहन करती है। केन्द्रीय सरकार शिक्षा के राष्ट्रीय महत्त्व को देखते हुए राज्य सरकारों को भी शिक्षा विकास हेतु अनुदान देती है। इस दृष्टि से केन्द्रीय सरकार शैक्षिक आय का प्रमुख स्रोत है। केन्द्रीय सरकार शिक्षा के कुछ मदों के लिए सीधे राज्य सरकारों को अनुदान देती है और कुछ मदों पर विभिन्न आयोगों द्वारा धन दिया जाता है। राज्य में संचालित विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय आयोग द्वारा अनुदान दिया जाता है। राज्य में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के विकास के लिए तथा शिक्षक प्रशिक्षण हेतु केन्द्र में स्थापित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के माध्यम से केन्द्रीय सरकार अनुदान देने की व्यवस्था करती है।

2. राज्य सरकार द्वारा प्राप्त शैक्षिक आय- राज्य सरकारें शासन की शालाएँ चलाने के साथ ही शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर शिक्षा व्यवस्था के लिए विश्वविद्यालयों, शिक्षा परिषदों, स्वायत्त शासन संस्थाओं एवं निजी संस्थाओं को अनुदान देकर वित्तीय सहायता प्रदान करती है। उपर्युक्त संस्थाओं को वित्तीय सहायता देने हेतु राज्य सरकार शिक्षा प्रशासन की व्यवस्था करती है। राज्य अपनी कुल आय का एक अंश शिक्षा के लिए आवंटित करता है और उसमें केन्द्र से प्राप्त शिक्षा के लिए अनुदान शामिल करके वह सम्पूर्ण राज्य की शिक्षा पर व्यय करता है। दूसरे देशों की तुलना में अपने देश के विभिन्न राज्य शिक्षा पर निर्धारित धन से अधिक व्यय नहीं करते हैं।

3. स्थानीय शासन द्वारा प्राप्त शैक्षिक आय- स्थानीय शासन द्वारा शैक्षिक निधि के अन्तर्गत नगर निगम, नगर पालिका, जिला परिषद्, जनपद, ग्राम पंचायत आदि के द्वारा दिया गया निर्धारित धन आता है। इनकी आय के साधन स्थानीय कर एवं राज्य सरकारों से प्राप्त अनुदान होते हैं। इन्हें राज्य सरकारों के करों से प्राप्त आमदनी का कुछ अंध भी मिलता है। स्थानीय शासन द्वारा कुल आमदनी का जो अंश शिक्षा पर व्यय होता है, उसे शैक्षिक आय के रूप में समझकर व्यय किया जाता है। स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं द्वारा मुख्यतः प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाएँ ही चल रही हैं, किन्तु कहीं-कहीं माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की संस्थाएँ भी इनके द्वारा चल रही हैं।

4. विदेशी सहायता – सार्वजनिक स्रोतों में उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त विदेशी सहायता भी महत्त्वपूर्ण है। विदेशी सहायता के रूप में हमें तीन प्रकार की आर्थिक सहायता प्राप्त होती है—

(i) विदेशों से विषय विशेषज्ञों का हमारे देश में आना तथा उनके तकनीकी परामर्श द्वारा लाभ उठाना, पाठ्य-पुस्तकों के लिए कागज देना, शिक्षकों का आदान-प्रदान करना, उपकरण की ब्यवस्था करना आदि भी इसी में सम्मिलित हैं।

(ii) विशेष कार्यक्रमों के लिए धन की व्यवस्था करना तथा उपहार देना।

(iii) विदेशों में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्तियाँ एवं यात्रा-व्यय के लिए भारी मात्रा में अनुदान देना।

(ब) निजी शैक्षिक आय-

आय के निजी स्रोत के अन्तर्गत प्रभूत धन (एण्डोमेण्ट्स), विद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्रों से प्राप्त शाला शुल्क (स्कूल फीस), जनता, संस्था अथवा अन्य स्रोतों से प्राप्त चन्दा, विद्यार्थियों पर किया गया जुर्माना, बैंक आदि में जमा धनराशि पर मिलने वाला ब्याज, विद्यालय के भवनों से प्राप्त किया गया किराया आदि को सम्मिलित किया जाता है। निजी स्रोतों की व्याख्या निम्नलिखित है

1. प्रभूत धन (एण्डोमेण्ट्स)– प्रभूतधन का अर्थ ऐसे धन से है, जो विद्यालय की स्थायी निधि के रूप में सुरक्षित रहता है। इस धन पर मिलने वाले ब्याज को विद्यालय के विभिन्न मदों पर व्यय किया जाता है। भारत में अनेक संस्थाएँ ऐसी हैं जो केवल अपनी भूमि, भवन तथा एकत्रित धन द्वारा होने वाली आय से चलती हैं। प्राप्त आँकड़ों से विदित हुआ है कि वर्तमान में 3 प्रतिशत से 10 प्रतिशत के लगभग आय संस्थाओं को इसी साधन से होती है। प्रभूत धन विद्यालयों को न केवल स्वामित्व ही प्रदान करता है, वरन् वह उन्हें आकस्मिक घटनाओं का सामना करने के लिए भी समर्थ बनाता है।

2. शाला शुल्क (स्कूल फीस)- शाला शुल्क के अन्तर्गत प्रमुख शुल्कों में शिक्षण में शुल्क प्रवेश शुल्क, प्रयोगशाला शुल्क, परीक्षा शुल्क, पुस्तकालय शुल्क, भवन शुल्क, क्रीड़ा शुल्क, मध्याह्न भोजन शुल्क, विकास शुल्क तथा परिवहन शुल्क आदि सम्मिलित किये जाते हैं। अनेक संस्थाएँ उपर्युक्त शुल्क के आधार पर ही कार्य चला रही हैं। निजी आय के स्रोतों में शाला शुल्क आय का प्रमुख स्रोत है। शुल्क का निर्धारण विद्यालय एवं विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है, किन्तु विद्यार्थियों के विरोधी आन्दोलनों तथा कुछ राजनीतिक कारणों की वजह से स्कूल फीस में अधिक वृद्धि नहीं हो सकी है। शाला शुल्क से अधिक आय इस कारण भी नहीं हो पा रही है, क्योंकि संविधान ने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा को निःशुल्क कर दिया है और कोई-कई राज्य ऐसे भी हैं, जिन्होंने बालक/बालिकाओं की उच्च शिक्षा को भी निःशुल्क कर दिया है। यद्यपिशुल्क आय का प्रमुख स्रोत रहा है, किन्तु प्राप्त आँकड़ों से विदित हुआ है कि शुल्क का अनुपात उतरोत्तर घट रहा है।

3. चन्दा – शैक्षिक विकास हेतु जनता, संस्था अथवा अन्य स्रोतों से जो धन अथवा भूमि ऐच्छिक रूप में प्राप्त होता है। उसे चन्दा या दान कहते हैं। प्राचीनकाल में अधिकांश संस्थाएँ जनता द्वारा एकत्रित चन्दे के ऊपर ही चला करती थीं। चन्दा अथवा दान द्वारा जो धन और भूमि संस्थाओं को प्राप्त होती थी, उससे शिक्षा का कार्य कुछ सीमा तक तो चल जाता था। वर्तमान स्थिति में जनता में चन्दा अथवा दान देने की प्रवृत्ति कम हो गयी है और यदि उसके द्वारा थोड़ा-बहुत धन अथवा भूमि प्राप्त हो भी जाये तो वह वर्तमान परिस्थितियों में छात्रों की भारी संख्या की तुलना में अपर्याप्त ही सिद्ध होगी। इस युग में अधिकांश दान श्रेष्ठ छात्रों को छात्रवृत्ति के रूप में प्राप्त हो रहा है। धनाभाव के कारण कुछ संस्थाओं में योग्य शिक्षक एवं प्रशासन उपलब्ध नहीं होते हैं, जिससे समूची शिक्षा प्रणाली में विकार उत्पन्न होने का भय बना रहता है।

4. जुर्माना — विद्यालयों में छात्रों से दण्डस्वरूप जो धन लिया जाता है, उसे जुर्माना कहते हैं। छात्रों से यह आर्थिक दण्ड विद्यालय देर से आने, शुल्क समय पर न देने, पुस्तकालय की पुस्तकें समय पर वापस न करने, व्यवहार में अनियमितता लाने तथा विद्यालय नियमों को तोड़ने आदि पर वसूल किया जाता है। इससे विद्यालय को बहुत थोड़ी मात्रा में आय होती है।

5. अन्य स्त्रोत- शैक्षिक आय के अन्तर्गत अन्य स्रोतों में बैंकों में जमा धनराशि पर मिलने वाले ब्याज, विद्यालय भवनों से प्राप्त होने वाला किराया तथा विद्यालय सम्पत्ति से होने वाला लाभ आदि सम्मिलित है। स्वतंत्रता से पूर्व इस प्रकार की आय को एण्डोमेण्ट्स के अन्तर्गत रखा जाता था, किन्तु अब इन्हें अलग रखा जाने लगा है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में अन्य स्रोतों के अन्तर्गत न्यूनतम आय होती है।

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