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शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड का अर्थ, उद्देश्य एंव समुदाय की भूमिका

शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड का अर्थ, उद्देश्य एंव समुदाय की भूमिका
शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड का अर्थ, उद्देश्य एंव समुदाय की भूमिका

शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड क्या ? शिक्षा के गुणवत्ता को उन्नत बनाने में समुदाय की भूमिका का वर्णन कीजिए।

शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड – शिक्षा की गुणवत्ता से तात्पर्य हैं, शिक्षा अपने लक्ष्यों व उद्देश्यों को कितनी मात्रा में किस प्रकार तथा कितनी सफलता के साथ प्राप्त करती है। कोई समाज या राज्य अपने समाज व राज्य के नागरिकों की आवश्यकतानुसार लक्ष्यों तथा उद्देश्यों का निर्धारण करती है और उसी के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था को करती है और शिक्षा यदि राज्य या समाज की आवश्यकतानुसार उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल होती है तो यह समझा जाता है कि शिक्षा गुणवत्तापूर्ण है।

शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड शिक्षा के उद्देश्यों के आधार पर निर्धारित किए जा सकते है-

शिक्षा की गुणवत्ता के मापदण्ड अथवा शिक्षा के उद्देश्य यह निम्न प्रकार है-

भारत एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाला राष्ट्र है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर आज तक हमारे राष्ट्र ने अपनी पूर्णक्षमता के दोहन के फलस्वरूप किये गये प्रयासों से लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगति के पूर्ण प्रयास किये है, इन्हीं प्रयासों के कारण आज हमारी गिनती विकासशील श्रेणी के अग्रणी राष्ट्रों में होती है तथा आज भी हम एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए अथक प्रयास कर रहे है। सही रूप से देखा जाए तो शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करके हम मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं। इसी क्रम में हमें यह सुनिश्चित करना है कि लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के क्या उद्देश्य रहेंगे।

1. लोकतान्त्रिक नागरिकता की भावना का विकास- जैसाकि हम पहले भी कह चुके है कि भारत एक लोकतन्त्रीय परम्परा वाला राष्ट्र है तथा लोकतन्त्र की सफलता उच्च नैतिक मूल्यों से सुसज्जित नागरिकों से ही होती है। जिस राष्ट्र में नैतिकता तथा मूल्यों के प्रति समर्पण नहीं होगा वह अपनी सरकार चुनने में कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं तथा विकासोन्मुख नीतियों का क्रियान्वयन भी उनके द्वारा नहीं हो सकता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार का होना चाहिए कि वह अपने छात्रों में तथा नागरिकों में लोकतन्त्र की भावना को मजबूत करें क्योंकि लोकतन्त्रीय भावना के विकास से ही शिक्षा के उद्देश्यों का प्रारम्भिक, चरण प्रारम्भ होता है। लोकतन्त्रीय पद्धति में नागरिकता अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है, इस दायित्व बोध में ही बौद्धिक, सामाजिक व नैतिक गुण छुपे हुए है, जिनके दृष्टिगोचर होने की अपेक्षा स्वयं नहीं की जा सकती है, ये गुण शिक्षा के माध्यम से ही प्रकट होते है।

2. नेतृत्व के गुणों का विकास- लोकतन्त्रीय भावना के साथ-साथ नेतृत्व के गुणों का विकास करना भी है। जीवन के अनेक शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य नागरिकों में क्षेत्रों में आज के छात्र ही भविष्य में नेतृत्व की कमान संभालेंगे इसलिए शिक्षा का यह मूलभूत उद्देश्य बन जाता है कि वे सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक क्षेत्रों में नेतृत्त की बागडोर छात्रों के हाथों में दे तथा उन्हें प्रशिक्षित करके एक अच्छा नागरिक बनाने के साथ- साथ नेतृत्व का गुण भी उन्हें प्रदान करें। माध्यमिक शिक्षा परिषद् ने इस सम्बन्ध में कहा है कि जनतन्त्रीय भारत में शिक्षा का उद्देश्य-व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।

3. समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना- प्रत्येक व्यक्ति की अनेक प्रकार की आवश्यकतायें होती है। इनमें से कुछ तो वह अकेले हो पूर्ण कर लेता है तथा कुछ को पूर्ण करने में उसे समाज के अन्य व्यक्तियों की सहायता लेनी होती है। इस प्रकार सहायता लेने के फलस्वरूप उसके अन्दर तक सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भी जन्म लेती है कि जिस प्रकार उसकी सहायता की गई है उसी प्रकार वह भी दूसरे व्यक्तियों की सहायता करें। इस प्रकार एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना भी शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्यों में शामिल है

4. निःस्वार्थ कार्य की भावना- वर्तमान समय भौतिकता का है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ में इस प्रकार खोया हुआ रहता है कि उसका सम्बन्ध दया, मानवता, सेवा, परोपकार, त्याग, बलिदान जैसी भावनाओं से लगभग समाप्त हो गया है। अपना कार्य जिस व्यक्ति से होता है। हम उससे अपने सम्बन्धों की दुहाई देकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते है परन्तु जिन व्यक्तियों से हमें कार्य नहीं है। उनकी तरफ से हम उदासीन रहते है। इस प्रकार की मनोवृत्ति हमारे समाज, राष्ट्र के लिए घातक है। जब तक व्यक्ति में अपने स्वार्थ को छोड़कर निःस्वार्थ भाव से दूसरे की सहायता करने की भावना जाग्रत नहीं होगी तब तक समाज में दूरियाँ बनी रहेगी। हमारी शिक्षा के उद्देश्यों में इस भावना का भी स्थान होना चाहिए कि हम निः स्वार्थ भाव से मानव हित के लिए कार्य कर सकें।

5. आन्तरिक शक्तियों का विकास- आधुनिक शिक्षा पद्धति की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि वह मनुष्य के अन्दर की शक्तियों व उसकी सुपुष्ट भावनाओं को जाग्रत कर सकें तथा उनका विकास कर सकें। मनुष्य की कल्पना, तर्क आलोचना, स्मरण तथा विपरीत परिस्थितियों में निर्णय लेना अच्छे-बुरे तथा ऊँच-नीच की समझ इन गुणों का विकास करना भी शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्य में शामिल होना चाहिए तथा अच्छाइयों को ग्रहण करने की भावना पर जोर दिया जाना चाहिए।

शिक्षा की गुणवत्ता को उन्नत बनाने में समुदाय की भूमिका

समुदाय को शिक्षा का एक अनौपचारिक साधन या अभिकरण माना जाता है। प्रत्येक बालक अनेकानेक तरीके से जिस समुदाय में रहते हैं उस समुदाय से अनौपचारिक रूप से शिक्षा प्राप्त करते हैं। सबसे प्रमुख बात है कि सहयोगपूर्ण व्यवहार करना समुदाय की ही देन है। इसके अतिरिक्त आचार-विचार, शिष्टचार तथा विभिन्न रीति-रिवाज भी बालक अपने समुदाय से ही सीखता है। इसलिए माना जाता है कि प्रत्येक बालक को अपने समुदाय की गतिविधियों में अवश्य ही सहभागिता निभानी चाहिए। क्योंकि शिक्षा तब तक अधूरी तथा गुणवत्ता से परे मानी जाती है जब तक नागरिकों में किताबी ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक व सामाजिक ज्ञान न हो। शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने में समुदाय निम्न प्रकार से योगदान कर सकते हैं।

1. सामाजिक गुणों के विकास में योगदान – गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए बालकों में कुछ अनिवार्य सामाजिक गुणों का विकास भी महत्वपूर्ण समझा जाता है। समुदाय में प्रत्येक बच्चे का सम्पर्क अनेक सदस्यों से स्थापित होता है। इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप बच्चे अनेक सामाजिक गुणों को सीखते हैं तथा अपने समुदाय की परम्पराओं एवं प्रथाओं को भी जानते हैं। अपनी परम्पराओं को सीखना भी गुणवत्तापरक शिक्षा का ही अंग है। सहयोग, त्याग तथा सामूहिक हित जैसे सद्गुण समुदाय के प्रभाव से ही सीखे जाते हैं।

2. चारित्रिक एवं नैतिक विकास में योगदान- गुणवत्तापरक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों का चारित्रिक एवं नैतिक विकास करना भी है। प्रत्येक समुदाय अपने नागरिकों के चरित्र एवं नैतिकता के विकास को ध्यान में रखता है। प्रत्येक समुदाय अपने नागरिकों को अच्छी आदतों के लिए प्रोत्साहित करता है तथा बुरी आदतों को रोकता है। समुदाय के नियम व प्रतिबन्ध इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. शारीरिक विकास में योगदान – गुणवत्तापरक शिक्षा की एक पहचान यह भी है कि नागरिकों का शारीरिक स्वास्थ्य का उत्तम होना है और इस दिशा में समुदाय अपनी पीढ़ी के बालकों को स्वास्थ्य के नियमों एवं सफाई के लाभों से अवगत कराते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर प्रत्येक समुदाय बच्चों के स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास के लिए खेल, व्यायाम तथा खेल के मैदान एवं पार्कों आदि की भी व्यवस्था करते है। इससे समुदाय के सदस्यों का समुचित शारीरिक विकास होता है जो कि गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए आवश्यक तत्व है।

4. मानसिक विकास में योगदान – गुणवत्तापरक शिक्षा का एक उद्देश्य बच्चों का समुचित मानसिक विकास करना भी है। समुदाय इस क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान करता है। प्रत्येक समुदाय में समय-समय पर तरह-तरह के वार्तालाप एवं गोष्ठियों का आयोजन औपचारिक व अनौपचारिक भी हो सकते हैं। इन कार्यक्रमों में सुविधाओं से बालकों के मानसिक विकास में मदद मिलती है।

5. व्यावसायिक विकास में योगदान- समुचित शिक्षा के अन्तर्गत बच्चों में व्यावसायिक प्रशिक्षण देना तथा जीविका-उपार्जन के योग्य बनाना होता है। प्रत्येक समुदाय इस विषय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सामान्य रूप से प्रत्येक समुदाय का मुख्य व्यवसाय निश्चित होता है। समुदाय के अधिकांश सदस्य किसी एक मुख्य व्यवसाय में ही संलग्न होते
है। ऐसे में बच्चे जब अपने समुदाय की गतिविधियों में भाग लेते हैं तो वे अपने समुदाय की ओर से ही बच्चों के व्यावसायिक प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार समुदाय व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था से बच्चों का व्यावसायिक एवं जीविका-उपार्जन सम्बन्धी भविष्य सुरक्षित हो जाता है तथा वे अपने व्यवसाय आगे चलकर कुशल हो जाते हैं।

6. विद्यालय पर नियन्त्रण में योगदान- समुदाय गुणवत्तापरक शिक्षा की व्यवस्था के लिए विद्यालयों की प्रबन्ध समिति विद्यालय प्रशासन आदि पर अपनी सहभागिता दर्ज कराते हुए विद्यालय की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाकर नियन्त्रण स्थापित कर सकता है। समुदाय के उन्हीं व्यक्तियों के हाथों में विद्यालयों का नियन्त्रण होना चाहिए जो विद्यालय और समुदाय के हितों को ध्यान में रखते हों। हावर्थ महोदय के अनुसार “विद्यालय समाज के चरित्र का सुधार करने का साधन है। यह सुधार सामाजिक उन्नति की दिशा में है या नहीं, यह विद्यालय के संचालकों के विचारों और आदर्शों पर भी निर्भर करता है।

भारतवर्ष में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण राज्य द्वारा होता है। इस स्थिति में समुदाय का दायित्व है कि समुदाय द्वारा चलाए जाने वाले विद्यालयों में राज्य द्वारा निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने की व्यवस्था हो। इसलिए इन विद्यालयों में राज्य द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को लागू करना चाहिए, जिससे समुदाय गुणवत्ता पर शिक्षा की व्यवस्था में अपना योगदान कर सकता है। डॉ. के बी बुधोड़ी के अनुसार समुदाय का कार्य शिक्षा को व्यवस्थित करना और शिक्षा का कार्य समुदाय को व्यवस्थित करना है।

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