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सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति के विकास में योगदान

सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति के विकास में योगदान
सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति के विकास में योगदान

सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति के विकास में योगदान स्पष्ट कीजिए। 

सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति में योगदान- सभ्यता एवं संस्कृति मूल्य पद्धति के विकास के दो पहलू हैं। सभ्यता बाह्य पक्ष है एवं संस्कृति आभ्यान्तरिक। अनेकानेक वस्तुओं एवं पदार्थों को हम सभ्यता के ले लेते हैं। वैज्ञानिक अन्वेषण नित्य हो रहे हैं। प्राचीनकाल से ही मनुष्य जीवन को समुन्नत करने के लिये अन्वेषण कर रहा है। आग की खोज प्राचीनतम युग में बड़ी महत्त्वपूर्ण खोज थी और इस खोज ने जीवन पर बड़ा प्रभाव डाला। आज रेल, वायुयान आदि आवागमन के साधन मौजूद हैं। औषधियों में बहुत विकास हो गया है। इन्हें हम सभ्यता का विकास कहते हैं। जब इन पदार्थों एवं वस्तुओं का मन पर प्रभाव पड़े और हमारे मूल्यों में परिवर्तन आये तो उसे संस्कृति के अंदर लेते हैं। संस्कृति में उद्देश्य, लक्ष्य, मूल्य, कला, नैतिकता आदि की प्रधानता रहती है।

प्रायः सभ्यता एवं संस्कृति साथ-साथ चलते हैं। कभी-कभी सभ्यता के पक्ष को भौतिक संस्कृति एवं आन्तरिक पक्ष को अभौतिक संस्कृति भी कहा जाता है।

संस्कृति का निर्माण- व्यक्ति की अनेकानेक आवश्यकताएँ हैं। इन जरूरतों की पूर्ति का एक हंग ही संस्कृति का निर्माण करता है। व्यक्ति की जरूरतों को मुख्य रूप से हम दो भागों में बाँट सकते हैं-

  1. जीव वैज्ञानिक
  2. मनोवैज्ञानिक

जीव वैज्ञानिक जरूरतें बहुत कुछ शरीर से संबंधित हैं। जीवन की रक्षा के लिए इनकी पूर्ति आवश्यक है। इसमें मुख्य आवश्यकताएँ निम्नवत् हैं- (i) भोजन (ii) जल (iii) वायु (iv) काम क्रिया (v) बच्चे का लालन-पालन (vi) दुःखों से निवृत्ति (vii) निद्रा ।

मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ मन से सम्बन्धित हैं और इनकी पूर्ति स्वस्थ मन के विकास के लिए आवश्यक हैं। ये मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ मुख्य रूप से दो प्रकार की हैं-

  1. सुरक्षा
  2. अनुभव की नवीनता।

उपर्युक्त शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकताओं की पुष्टि विभिन्न विधियों से की जाती है। इसीलिए संस्कृतियों में हम विभिन्नता पाते हैं। भारतीय समाज में इन आवश्यकताओं की पूर्ति की शैली अमरीकी समाज की शैली से भिन्न है। यह शैली ही किसी समाज की संस्कृति बनती है।

उप-संस्कृति का योगदान- कभी-कभी एक देश के अंदर ही एक समुदाय की संस्कृति दूसरे समुदाय की संस्कृति से भिन्न हो जाती है, अर्थात् एक ही समाज में भिन्न संस्कृतियाँ रहती हैं। इन संस्कृतियों को हम उप-संस्कृति कह सकते हैं। उप-संस्कृति को जानने के लिए हम किसी समाज के व्यक्तियों की निम्नवत् बातों को प्रायः देखते हैं- (i) निवास स्थान (ii) आय (iii) व्यय की आदत (iv) व्यवसाय (v) शिक्षा (vi) भाषा।

इसके अतिरिक्त किसी समाज की संस्कृति को समझने के लिए निम्नलिखित तत्त्वों की ओर ध्यान दिया है। उस समाज के सदस्यों की रहन-सहन की आदतों में निम्नलिखित बातें आती हैं-

  1. भोजन
  2. पारिवारिक जीवन का स्वरूप
  3. विवाह एवं काम प्रवृत्ति के प्रति अभिवृत्ति
  4. मजाक
  5. शारीरिक आदतें
  6. वेषभूषा।

रहन-सहन की आदतों के अतिरिक्त यह भी देखना आवश्यक होता है कि किसी समाज के सदस्य अवकाश के क्षणों का किस प्रकार उपयोग करते हैं। अवकाश के कार्यों को देखने के लिए निम्नलिखित बातों को देखना चाहिए-

  1. खेलकूद
  2. छुट्टी बिताने के ढंग
  3. अध्ययन
  4. कलात्मक अभिव्यक्ति के साधन
  5. अध्ययन।

किसी भी समाज की संस्कृति को जानने हेतु व्यक्तियों के विश्वास की भी जानकारी होनी चाहिए। इसके लिए निम्नवत् बातों की ओर ध्यान देना चाहिए-

(i) मान्य स्तर (ii) जीवन के उद्देश्य (iii) धार्मिक विश्वास (iv) नैतिक अभिवृत्तियाँ (v) सामाजिक महत्त्वाकांक्षा, (vi) राजनीतिक विचारधारा।

ये सभी तत्त्व संस्कृति एवं सभ्यता के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

प्रायः संस्कृति की सहायता से मनुष्य अपना विकास करता है। जन्म से न तो वह पशुवत होता है न मानव। पाश्विक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण एवं समाजोपयोगी तत्वों का विकास संस्कृति की सहायता से ही होता है। मनुष्य के आस-पास का भौगोलिक वातावरण उस पर बड़ा प्रभाव डालता है। इस वातावरण से अपने को व्यवस्थित करने में व्यक्ति को संस्कृति से सहायता मिलती हैं। भौगोलिक वातावरण ही नहीं, सामाजिक वातावरण से भी सामंजस्य प्राप्त करने का साधन संस्कृति है। संस्कृति से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आता है। संस्कृति के सार्वभौमिक रूप में व्यक्ति कभी-कभी भाग लेता है। संस्कृति के सार्वभौमिक भाग के अतिरिक्त उसका एक विशिष्ट भाग भी होता है, जिसमें एक वर्ग भाग लेता है। कुछ व्यक्ति इस संस्कृति में भाग लेकर अपना उन्नयन करते हैं। संस्कृति के विशिष्ट तत्त्वों का प्रभाव व्यक्ति के विकास में सार्वभौमिक तत्त्वों से अधिक पड़ता है। जो व्यक्ति वैकल्पिक रूप से संस्कृति के विशिष्ट तत्वों को जितना ही अधिक अपनाता है, उसका व्यक्तित्व उतना ही अधिक सुविकसित एवं उन्नत समझा जाता है।

भारत की शिक्षा एवं संस्कृति का मूल्यों में योगदान- भारतीय संस्कृति की दृष्टि से शिक्षा के दो प्रमुख कार्य होते हैं-

  1. भारतीय संस्कृति की सुरक्षा एवं संरक्षण करना।
  2. संस्कृति का विकास करना।

वस्तुतः यदि देखा जाए तो समाज में मानव निर्मित सभी उपकरण शिक्षा के विकास का ही परिणाम हैं, दूसरी ओर यदि हम शिक्षा की प्रक्रिया पर दृष्टिपात करें तो संस्कृति की सीमा में निहित मनुष्य के विचार, मूल्य, मान्यताएँ एवं विशाल ही शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं, उदाहरणार्थ- जो समाज भौतिकवादी विचारधारा पर महत्त्व देता है, उस समाज में भौतिक संस्कृति के विकास पर अधिक बल दिया जाएगा। इसके विपरीत जो समाज आध्यात्मवादी विचारधारा पर महत्त्व देता है, वह नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों के विकास अर्थात् अभौतिक संस्कृति के विकास पर बल देगा।

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