बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास | emotional development during childhood in hindi
क्रो एवं क्रो का कथन है— “सम्पूर्ण बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं।” ये परिवर्तन किस प्रकार होते हैं और इनका बालक के संवेगात्मक विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन यहाँ किया जा रहा है।
1. बालक के संवेग अधिक निश्चित है और कम शक्तिशाली हो जाते हैं। वे बालक को शैशवावस्था के समान उत्तेजित नहीं कर पाते हैं; उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का अपने भय और क्रोध पर नियंत्रण हो जाता है।
2. बालक के संवेगों में शिष्टता आ जाती है और उसमें उनका दमन करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। अतः वह अपने माता-पिता, शिक्षक और बड़ों के सामने उन संवेगों को प्रकट नहीं होने देता है, जिनको वे पसन्द नहीं करते हैं।
3. बालक के संवेगात्मक विकास पर विद्यालय के वातावरण का व्यापक प्रभाव पड़ता हैं; उदाहरणार्थ- आदर्श, स्वतन्त्र और स्वस्थ वातावरण उसके संवेगों का परिष्कार करता है, जबकि भय, आतंक और कठोरता के वातावरण में ऐसा होना असम्भव है।
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4. बालक के संवेगात्मक विकास में शिक्षक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अप्रिय व्यवहार, शारीरिक दण्ड और कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाला शिक्षक, बालक में मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण कर देता है जो उसके संवेगात्मक विकास को विकृत कर देती हैं।
5. बाल्यावस्था में बालक विभिन्न समूहों का सदस्य होता है। इन समूहों में साधारणतः पारस्परिक घृणा, द्वेष और ईर्ष्या पाई जाती है। बालक इन अवांछनीय संवेगों के प्रभावित हुए बिना नहीं बचता है। अतः वह दूसरे बालकों के प्रति अपने व्यवहार में इन संवेगों को व्यक्त करने लगता है।
6. एलिस क़ो के अनुसार- बालक अपने दोषों के परिणामों को सोचकर चिन्तित हो जाता है और अपने से अधिक भाग्यशाली बालकों से ईर्ष्या करता है। वह अपने प्रति परिवार के सदस्यों के व्यवहार को कठोर मानता है, क्योंकि उसके विचार से वे उसके कार्यों को समझ नहीं पाते हैं।
7. एलिस क्रो अनुसार- “बालक सामान्य रूप से प्रसन्न रहता है और दूसरों के प्रति उसका द्वेष अस्थायी होता है। “
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
कोल एवं ब्रूस का विचार है – “किशोरावस्था के आगमन का मुख्य चिन्ह संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।” परिवर्तन के साथ-साथ विकास के अन्य रूप भी हैं, यथा-
1. किशोर में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं। वह इन पर नियंत्रण नहीं रख पाता है। अतः वह साधारणतया अन्यायी व्यक्ति के प्रति क्रोध और दुःखी व्यक्ति के प्रति दया की अभिव्यक्ति करता है।
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2. किशोर की शारीरिक शक्ति की उसके संवेगों पर स्पष्ट छाप होती है, उदाहरणार्थ, सबल और स्वस्थ किशोर में संवेगात्मक स्थिरता एवं निर्बल और अस्वस्थ किशोर में संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है। 3. एलिस क्रो के अनुसार- किशोर अनेक बातों के बारे में चिन्तित रहता है; उदाहरणार्थ, उसे अपनी आकृति, स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति, शैक्षिक प्रगति, सामाजिक सफलता और अपनी कमियों की सदैव चिन्ता रहती है।
4. क्रो एवं क्रो के अनुसार किशोर के ज्ञान, रुचियों और इच्छाओं की वृद्धि के साथ संवेगों को उत्पन्न करने वाली घटनाओं या परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है; उदाहरणार्थ, बाल्यावस्था में बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति उसके लिए मनोरंजन का कारण हो सकती है, पर किशोरावस्था में यही कुरीति उसके क्रोध को प्रज्वलित कर सकती है।
5. किशोर न तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ़। अतः उसे अपने संवेगात्मक जीवन में वातावरण से अनुकूलन करने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वह अपने प्रयास में असफल हो जाता है, तो वह घोर निराशा का शिकार बन जाता है। ऐसी दशा में वह या तो घर से भाग जाता है या आत्महत्या करने की बात सोचता है।
6. बी. एन. झा के अनुसार- “किशोरावस्था में बालक और बालिक, दोनों में काम प्रवृत्ति बहुत तीव्र हो जाती है और उनके संवेगात्मक व्यवहार पर असाधारण प्रभाव डालती है। “
7. बी. एन. झा के शब्दों में “किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास इतना विचित्र होता है कि किशोर एक ही परिस्थिति में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। जो परिस्थिति एक अवसर पर उसे उल्लास से भर देती है, वही परिस्थिति दूसरे अवसर पर उसे खिन्न कर देती है। “
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