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संवेग का अर्थ | संवेग का परिभाषा | संवेग की विशेषताएं

संवेग का अर्थ
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संवेग का अर्थ | Meaning of Emotion in Hindi

मनुष्य अपनी रोजाना की जिन्दगी में सुख, दुःख, भय, क्रोध, प्रेम, ईर्ष्या, घृणा आदि का अनुभव करता है। वह ऐसा व्यवहार किसी उत्तेजनावश करता है। यह अवस्था संवेग कहलाती है। “संवेग” के लिए अंग्रेजी का शब्द है— इमोशन। इस शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘इमोवेयर’ से – हुई है, जिसका अर्थ है- ‘उत्तेजित होना’। इस प्रकार संवेग को व्यक्ति की उत्तेजित दशा कहते हैं। उदाहरणार्थ, जब हम भयभीत होते हैं, तब हम भय के कारण से बचने का उपाय सोचते हैं, हमारी बुद्धि काम नहीं करती है, हम भय की वस्तु से दूर भाग जाना चाहते हैं, हमारे सारे शरीर में पसीना आ जाता है, हम काँपने लगते हैं और हमारा हृदय जोर से धड़कने लगता है। हमारी इस उत्तेजित दशा का नाम ही संवेग है। इस दशा में हमारा बाह्य और आन्तरिक व्यवहार बदला जाता है। कुछ मुख्य संवेग है- सुख, दुख भय, क्रोध, आशा, निराशा, लज्जा, गर्व, ईर्ष्या, आश्चर्य और सहानुभूति ।

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संवेग का परिभाषा | Definition of Emotion in Hindi

हम ‘संवेग’ के अर्थ को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं, यथा

1. वुडवर्थ – “संवेग, व्यक्ति की उत्तेजित दशा है। “

2. क्रो व क्रो– “संवेद, गतिशील आन्तरिक समायोजन है, जो व्यक्ति के संतोष, सुरक्षा और – कल्याण के लिए कार्य करता है। “

3. ड्रेवर– “संवेग, प्राणी की एक जटिल दशा है, जिसमें शारीरिक परिवर्तन प्रबल भावना के कारण उत्तेजित दशा और एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने की प्रवृत्ति निहित रहती हैं।” “

4. किम्बल यंग – “संवेग, प्राणी की उत्तेजित मनोवैज्ञानिक और शारीरिक दशा है, जिसमें शारीरिक क्रियाएँ और शक्तिशाली भावनाएँ किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से बढ़ जाती

5. बैलेन्टीन – “रागात्मक प्रवृत्ति के वेग के बढ़ने को संवेग कहते हैं। “

6. रॉस जे.एस.- “सवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्त्व की प्रधानता रहती है।”

7. जरसील्ड — किसी भी प्रकार के आवेश आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं। “

8. पी. टी. यंग – “संवेग, मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न सम्पूर्ण व्यक्ति के तीव्र उपद्रव की अवस्था – है जिसमें चेतना, व्यवहार, अनुभव और अत्तरावयव से कार्य निहित होते हैं।”

संवेगों की उत्पत्ति, योजना से होती है। ये उत्तेजनायें भौतिक तथा मनोविज्ञान कारणों से होती है। वास्तव में संवेग एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति की सभी आन्तरिक तथा बाह्य क्रियाओं में परिवर्तन आ जाता है।

इन परिभाषाओं से ये तथ्य स्पष्ट होते हैं-

1. संवेगावस्था में व्यक्ति असामान्य हो जाता है।

2. संवेगावस्था में व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते है।

3. संवेग मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न होते हैं।

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संवेग की विशेषताएँ

संवेगों के तीन पक्ष हैं— अनुभवात्मक, शारीरिक तथा व्यवहारात्मक साहित्यकारों की रचना में अनुभवात्मक, शारीरिक स्थिति में परिवर्तन एवं शारीरिक क्रिया के प्रति अनुक्रिया करना व्यवहारात्मक पक्ष हैं। ये सभी पक्ष संवेगों की इन विशेषताओं में प्रकट होते हैं।

स्काउट का कथन है— “प्रत्येक विशिष्ट प्रकार के संवेग में कुछ विचित्रता होती है, जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती है।”

संवेग की विचित्रता के कारण हम उसके स्वरूप को भली-भाँति तभी समझ सकते हैं, जब हम उसकी विशेषताओं से पूर्णतया परिचित हो जाएँ। अतः हम उसकी मुख्य विशेषताएँ प्रस्तुत कर रहे है, यथा-

1. तीव्रता- संवेग में तीव्रता पाई जाती है और वह व्यक्ति में एक प्रकार का तूफान उत्पन्न कर देता है। पर इस तीव्रता की मात्रा में अन्तर होता है, उदाहरणार्थ, अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा शिक्षित व्यक्ति में, जो संवेग पर नियंत्रण करना सीख जाता है, संवेग की तीव्रता कम होती है। इसी प्रकार, बालकों की अपेक्षा वयस्कों में और स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में संवेग की तीव्रता कम पाई जाती है।

2. व्यापकता – स्टाउट के अनुसार, “निम्नतर प्राणियों से लेकर उच्चतर प्राणियों तक एक ही प्रकार के संवेग पाये जाते हैं।’ इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि संवेग में व्यापकता होती है और वह सब प्राणियों में समान रूप से पाया जाता है। उदाहणार्थ, बिल्ली को उसके बच्चों को छोड़ने से, बालक को उसका खिलौना छीनने से और मनुष्य को उसकी आलोचना करने से क्रोध आ जाता है।

3. वैयक्तिकता- संवेग में वैयक्तिकता होती है, अर्थात् विभिन्न व्यक्ति एक ही संवेग के प्रति विभिन्न प्रतिक्रिया करते हैं, उदाहरणार्थ, भूखें भिखारी को देखकर एक व्यक्ति दया से द्रवित हो जाता है। दूसरा उसे भोजन देता है और तीसरा, उसे ढोंगी कहकर भगा देता हैं।

4. संवेगात्मक सम्बन्ध- स्टाउट का कथन है— “एक निश्चित संवेग उसके स्वरूप संवेगात्मक मनोदशा का निर्माण करता है।” इस मनोदशा के कारण व्यक्ति उसी प्रकार का व्यवहार करता है, जैसा कि उसके साथ किया गया है, उदाहरणार्थ, यदि गृह-स्वामिनी किसी कारण से क्रुद्ध होकर रसोइयाँ को डाँटती है, तो रसोइया अपने क्रोध को नौकरानी पर उतारता है।

.5. संवेगात्मक सम्बन्ध- स्टाउट ने लिखा है— “संवेग का अनुभव किसी निश्चित वस्तु के सम्बन्ध में ही किया जाता है।” इसका अभिप्राय है कि संवेग की दशा में हमारा किसी व्यक्ति या वस्तु या विचार से सम्बन्ध होता है, उदाहरणार्थ, हमें किसी व्यक्ति, वस्तु विचार या कार्य के प्रति ही क्रोध आता है। इनके अभाव में क्रोध के संवेग का उत्पन्न होना असम्भव है।

6. स्थानान्तरण – ड्रमण्ड व मैलोन का मत है— “संवेगात्मक जीवन में स्थानान्तरण का नियम एक वास्तविक तथ्य है।” 7. सुख या दुःख की भावना-स्टाउट के अनुसार — “ अपनी विशिष्ट भावना के अलावा संवेग में निस्सन्देह रूप से सुख या दुःख की भावना होती है।” उदाहरणार्थ, हमें आशा में सुख का और निराशा में दुःख का अनुभव होता है।

8. विचार शक्ति का लोप- संवेग हमारी विचार शक्ति का लोप कर देता है। अतः हम उचित या अनुचित का विचार किये बिना कुछ भी कर बैठते हैं, उदाहरणार्थ, क्रोध के आवेश में मनुष्य हत्या तक कर डालता है।

9. पराश्रयी रूप- स्काउट के शब्दों में– “संवेग की एक विशेषता को हम इसका पराश्रयी रूप कह सकते हैं।” इसका अभिप्राय है कि पशु या व्यक्ति में जिस संवेग की अभिव्यक्ति होती है, उसका आधार कोई विशेष प्रवृत्ति होती है, उदाहरणार्थ, अपनी प्रेमिका के पास अपनी प्रतिद्वन्द्वी को देखकर प्रेमी को क्रोध आने का कारण उसमें काम प्रवृत्ति की पूर्व उपस्थिति है।

10. स्थिरता की प्रवृत्ति- संवेग में साधारणतः स्थिरता की प्रवृत्ति होती हैं, उदाहरणार्थ, दफ्तर में डॉट खाकर घर लौटने वाला क्लर्क, अपने बच्चों को डाँटता या पीटता है।

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11. क्रिया की प्रवृत्ति स्टाउट का विचार है – “संवेग में एक निश्चित दिशा में क्रिया की प्रवृत्ति होती है।”

क्रिया की इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति कुछ न कुछ अवश्य करता है, उदाहरणार्थ, लज्जा का अनुभव करने पर बालिका नीचे की ओर देखने लगती है या अपने मुख को छिपाने का प्रयत्न करती है।

12. व्यवहार में परिवर्तन – रायर्बन का मत है – “संवेग के समय व्यक्ति के व्यवहार के सम्पूर्ण स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है।” उदाहरणार्थ दया से ओतप्रोत व्यक्ति का व्यवहार उसके सामान्य व्यवहार से बिल्कुल भिन्न होता है।

13. मानसिक दशा में परिवर्तन- संवेग के समय व्यक्ति की मानसिक दशा में निम्नलिखित क्रम में परिवर्तन होते हैं – 1. किसी वस्तु या स्थिति का ज्ञान, स्मरण या कल्पना, 2. ज्ञान के कारण सुख या दुःख की अनुभूति, 3. अनुभूति के कारण उत्तेजना, 4. उत्तेजना के कारण कार्य करने की प्रवृत्ति।

14. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन- (i) हृदय की धड़कन और रक्त का संचार बढ़ना, (ii) भय और क्रोध के समय पेट में पाचक रस का निकलना बन्द होगा, (iii) भय और क्रोध के समय भोजन की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रक्रिया का बन्द होना।

15. बाह्य शारीरिक परिवर्तन– (i) भय के समय काँपना, रोंगटे खड़े होना, मुख सूख जाना, घिग्घी बँधना, (ii) क्रोध के समय मुँह लाल होना, पसीना आना, आवाज का कर्कश होना, होठों और भुजाओं का फड़कना, (iii) प्रसन्नता के समय हँसना, मुस्कुराना, चेहरे का खिल जाना, (iv) असीम दुःख या आश्चर्य के समय आँखों का खुला रह जाना।

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