B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

समस्यात्मक बालक का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, कारण एवं शिक्षा व्यवस्था

समस्यात्मक बालक का अर्थ
समस्यात्मक बालक का अर्थ

समस्यात्मक बालक का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।

समस्यात्मक बालक का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, कारण एवं शिक्षा व्यवस्था – सामान्यतः समस्याएँ पैदा करने वाले बालकों को समस्यात्मक बालक कहा जाता है। समस्याएं प्रायः तब खड़ी होती हैं, जब वे बालक कुछ असामाजिक या अनैतिक कार्य करने लगते हैं और बार-बार समझाने या मना करने पर भी अपने व्यवहार पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। वेलेण्टाइन ने समस्यात्मक बालकों की परिभाषा निम्न प्रकार दी है-“समस्यात्मक बालक शब्द सामान्य रूप से ऐसे बच्चों का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिनका व्यवहार अथवा व्यक्तित्व किसी बात में गंभीर रूप से असामान्य होता है।”

समस्यात्मक बालकों के प्रकार

मनोवैज्ञानिकों ने गहन शोध व अध्ययन के बाद बालकों के कार्यों और व्यवहार के आधार पर उनके निम्नलिखित प्रकार बतायें हैं-

1. झूठ बोलने वाले बालक,

2. चोरी करने वाले,

3. झगड़ालू बालक,

4. क्रोधी

5. भयभीत होने या करने वाले बालक,

6. अनुशासनहीन बालक,

7. पढ़ने में रुचि न लेने वाले बालक,

8. अपराधी प्रवृत्ति वाले बालक,

9. अंगूठा चूसने, नाखून काटने और अनियंत्रित मूत्र स्राव करने वाले बालक ।

झूठ बोलने वाले बालक-

झूठ बोलना बालकों की एक सामान्य प्रवृत्ति होती है। अनेक बालक किसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए बात-बात पर झूठ बोलने लगते हैं। यह प्रवृत्ति जब सामान्य बालक की सीमा को पार करके हानिकारक स्वरूप ग्रहण कर लेती है, तब यह एक समस्या बन जाती है। बालक प्रायः मनोरंजन, मनोविनोद, प्रतिशोध, स्वार्थपरता, बचाव, प्रहसान आदि के कारण झूठ बोलने लगते हैं। स्टैंग के अनुसार-“अनेक बालकों की झूठी बातों का मूल कारण भय होता है।”

बालकों की झूठ बोलने की प्रवृत्ति को दूर करने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए-

1. बालकों को झूठ के नुकसान और सच के फायदों से अवगत कराना चाहिए।

2. सत्य बोलने वाले बालकों को पुरस्कार व झूठ बोलने वालों को मनोवैज्ञानिक दण्ड दिया जाना चाहिए।

3. बालकों को इस भय से मुक्त किया जाना चाहिए कि सच बोलने पर उनकी गलतियों पर उन्हें दण्ड दिया जायेगा। इसके विपरीत वे अप्रिय होने पर भी यदि सच बोलें तो उन्हें सत्यासत्य विवेक का ज्ञान कराते हुए क्षमा कर देना चाहिए।

4. सत्य बोलने पर बालक के साहस व निर्भीकता की प्रशंसा करनी चाहिए।

5. बालकों के सामने बड़ों को भी सत्य बोलने का आदर्श रखना चाहिए।

6. बालकों को स्व-प्रेरण, स्व-निर्णय और स्व-मूल्यांकन के अवसर दिये जाने चाहिए।

7. बालकों के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।

चोरी करने वाले बालक-

बहुत से बालकों में चोरी करने की गन्दी आदत पड़ जाती है। अपने घर से सहपाठियों के बस्तों से, मिलने जुलने वाले लोगों के पास से वस्तुयें चुराना उनकी आदत बन जाती है। ये बालक प्रायः घर में अभाव, गरीबी, माता-पिता की उपेक्षा, बदला, शत्रुता के कारणों से ऐसा करने लगते हैं। इनकी ये बुरी लत छुड़ाने के लिए निम्न प्रयास किये जाने चाहिए-

1. बालकों को कहानियों, जीवनियों तथा उदाहरणों के माध्यम से चोरी के दुष्परिणामों को समझाने का प्रयत्न करना चाहिए।

2. चोरी पकड़े जाने पर बहुत अधिक शारीरिक दण्ड आदि न देकर मनोवैज्ञानिक विधियों से उन्हें चोरी से विमुख रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

3. चोरी के कारणों का पता लगाकर, यथासंभव उनके अभाव की पूर्ति की जानी चाहिए।

4. बालक की हर मांग को तिरस्कार या उपेक्षां से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उनकी जायज आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए।

5. बालकों को कुछ न कुछ जेब खर्च अवश्य दिया जाना चाहिए।

6. बालकों की शक्ति को उनकी रुचियों व क्षमताओं के अनुरूप कार्यों में लगाया जाना चाहिए।

7. उनमें उचित-अनुचित की समझ उत्पन्न करनी चाहिए।

झगड़ालू बालक-

कुछ बालकों में अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के साथ अनावश्यक रूप से झगड़ने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इनके लिए “खाली दिमाग शैतान का घर” वाली कहावत चरितार्थ होती है। ऐसे बालकों को उनकी रुचियों, योग्यताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार सदैव कुछ उपयोगी कार्यों में लगाये रखना चाहिए। इन बालकों का मस्तिष्क प्राय: उर्वर होता है। अतः यदि इनका समुचित मार्गदर्शन किया जाये तो ये उपयुक्त बालक बन सकते हैं।

क्रोधी बालक-

क्रो व क्रो ने क्रोध को निम्न रूप से व्यक्त किया है-“क्रोध आक्रामक व्यवहार द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।”

हिन्दी में एक प्रसिद्ध कहावत है-“क्रोध अन्धा होता है।” अर्थात् जब व्यक्ति क्रोध में होता है तो उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है। बालक प्रायः अपनी इच्छा पूरी न होने, प्रिय वस्तु के खोने या टूटने, ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुता, उद्देश्य प्राप्ति में बाधा, कुण्ठा, निराशा, कमजोरी, बीमारी या अपने प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण कभी-कभी क्रोध का प्रदर्शन करते हैं। अपने क्रोध का प्रदर्शन करते हुए वे झगड़ा, मार-पीट, नोंचना, गाली-गलौज करना, वस्तुओं को तोड़ना-फाड़ना अथवा फेंकना, चिल्लाना, रोना तथा अपने शरीर को चोट पहुँचाना आदि क्रियाओं के द्वारा दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं।

ऐसे बालकों को क्रोध-मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम क्रोध के कारण का पता लगाया जाना चाहिए। उसके बाद यदि उसका क्रोध निरर्थक नहीं है तो उसकी मांग या आवश्यकता को पूरा कर देना चाहिए। बालकों के अहं को यथासंभव चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। उन्हें विभिन्न – कहानियों, किस्सों व घटनाओं आदि के माध्यम से क्रोध के दुष्परिणामों से अवगत करना चाहिए। उन्हें खेल-कूद, शिक्षा-निर्देशन और मनोरंजन के व्यवस्थित अवसर देकर उन्हें कार्य में संलग्न रखना चाहिए।

भयभीत होने या करने वाले बालक-

अनेक बालक शारीरिक अथवा मानसिक कमजोरियों के कारण या तो अत्यधिक डरपोक होते हैं या दूसरों को डराने में आनन्द अनुभव करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ बच्चे अंधेरा देखकर डरने लगते हैं तथा कुछ को छिपकली, मेंढक आदि जीव जन्तुओं से सजीव खिलौने से दूसरों को डराने में खुश होते हैं। बालकों के इस प्रकार के व्यवहार के पीछे प्राण: कोई शारीरिक, मानसिक कमजोरी अथवा चिढ़न होती है। अतः सर्वप्रथम बालकों की शारीरिक, मानसिक जांच कर उनकी कमी को दूर किया जाना चाहिए। इसके बाद उनको ऐसी परिस्थितियों के परिणामों से अवगत कराते हुए उन्हें स्वयं अनुभव करने के ऐसे अवसर दिये जाने चाहिए जिससे वे स्वयं को भय मुक्त करने के लिए तैयार हो जायें। ऐसे जो बालक भूत से डरते हैं, उन्हें नाटक आदि के द्वारा यह अनुभव कराया जाना चाहिए कि भूत आदि कुछ नहीं होते हैं। इसी प्रकार भयभीत करने वाले बालकों को स्व-अनभव प्रदान करके उनमें सुधार लाया जा सकता है।

अनुशासनहीन बालक-

अनुशासनहीनता स्वयं में कोई जटिल समस्या नहीं है। वातावरण के दुष्प्रभावों तथा समुचित शिक्षा प्रणाली के न होने के कारण प्रायः छात्र अनुशासनहीन हो जाते हैं। प्रभावात्मक तथा मुक्तयात्मक अनुशासन के लिए मिले जुले स्वरूप को छात्रों पर लागू करने से उनकी अनुशासनहीनता को सरलता से दूर किया जा सकता है।

पढ़ने में रुचि न लेने वाले बालक-

आजकल अभिभावक और शिक्षक प्रायः यह कहते हुए सुने जाते हैं-“क्या करें, हमारा बच्चा पढ़ने में मन ही नहीं लगाता है।” वस्तुतः यह समस्यात्मक बालकों की उतनी अधिक नहीं है, जितनी आजकल के तथाकथित पढ़े लिखे माता-पिता और शिक्षकों की है। इस समस्या का मूल कारण माता-पिता तथा शिक्षकों का बालकों के साथ किया जाने वाला अमनोवैज्ञानिक व्यवहार है। बच्चों से अपेक्षायें तो यह लगायी जाती हैं कि वह बड़े होकर इंजीनियर, डॉक्टर, आई. ए. एस. या बड़ा अफसर बनें किन्तु उसकी व्यक्तिगत योग्यताओं, रुचियों और क्षमताओं को जानने का प्रयास नहीं किया जाता है। यदि बालकों की शिक्षा उनकी रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं और अभियोग्यताओं को ध्यान में रखते हुए संचालित की जायें तो सभी बच्चे पढ़ने में रुचि लेंगे और उनकी यह समस्या स्वत: समाप्त हो जायेगी।

अपराधी बालक-

बाल-अपराध अथवा बालकों का अपराधी होना आधुनिक युग की एक बहुत चिन्ताजनक समस्या है। आजकल जिस प्रकार की शिक्षा हमारे समाज में दी जा रही है और समाज का वातावरण जिस प्रकार प्रदूषित हो रहा है, उससे यह समस्या निरन्तर विकराल होती जा रही है। मेडिनस और जानसन ने इसे एक सामाजिक समस्या बताते हुए कहा है-“बाल अपराध एक सामाजिक समस्या के रूप में बढ़ती जा रही है।”

Important Links

Disclaimer

Disclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment