बालकों में संवेगात्मक प्रतिमानों का विकास
संवेगात्मक प्रतिमानों का विकास किस प्रकार होता है, इसका ज्ञान आवश्यक है क्योंकि इन प्रतिमानों के ज्ञान के आधार पर ही बालकों को संवेगों के अधिक से अधिक लाभ उपलब्ध कराए जा सकते हैं। नवजात शिशु में संवेगात्मक अनुक्रिया की योग्यता पायी जाती है। बैकविन और बैकविन का विचार है कि बालक को इस योग्यता को सीखने की आवश्यकता नहीं होती। नवजात शिशु की यह संवेगात्मक अनुक्रिया उनके सम्पूर्ण शरीर की क्रियाओं द्वारा व्यक्त होती हैं। एक अन्य अध्ययन में भी यह देखा गया है कि जन्म के समय बालक में वह कोई भी स्पष्ट अनुक्रिया नहीं पायी जाती है, जिनको विशिष्ट संवेगात्मक अनुक्रिया कहा जा सके।
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यह देखा गया है कि अपरिपक्व शिशु भी जन्म के समय कुछ संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत करते हैं। इन बच्चों की अपेक्षा परिपक्व बच्चे भी जन्म के समय कुछ अधिक संवेगात्मक प्रतिक्रियाएं प्रस्तुत हैं। हरलॉक का इस सम्बन्ध में विचार है कि संवेगात्मक व्यवहार के प्रथम लक्षणों के रूप में नवजात शिशुओं में केवल सामान्य उत्तेजनाएँ पायी जाती हैं। यह सामान्य उत्तेजनाएँ नवजात शिशुओं में केवल उस समय ही पायी जाती है। जब उनके सामने अधिक शक्तिशाली और तीव्र उद्दीपक प्रस्तुत किये जाते हैं। हरलॉक का यह भी कहना है कि इन बच्चों में विशिष्ट संवेगों से सम्बन्धित स्पष्ट और निश्चित सांवेगिक प्रतिमान नहीं पहचाने जा सकते हैं। यद्यपि नवजात शिशु में केवल कुछ ही दिनों बाद दो प्रकार के प्रत्युत्तर दिखाई देते हैं। प्रथम प्रकार के प्रत्युत्तर सुखद प्रत्युत्तर हैं,जो नवजात शिशु में उस समय दिखाई देते हैं जब वह स्तनपान करता है, उसे सहलाया जाता है या जब वह उपयुक्त तापक्रम के वातावरण में होता है। ऑर्बोसन का विचार है कि नवजात शिशु के सम्पूर्ण शरीर का आराम में होना ही उसके शरीर के सुख को प्रदर्शित करता है। आयु बढ़ने पर उसकी मुस्कुराहट और हँसी से उसके सुख की अनुभूति होती है। दूसरे प्रकार के प्रत्युत्तर बच्चों में असुखद प्रत्युत्तर उस समय होते हैं, जब बच्चे की त्वचा से कोई अधिक ठण्डी गर्म चीज छुवाई जाए, अनानक तेज आवाज की जाए, अथवा बच्चे की स्थिति बेढंगे तरीके से बदली जाए, इस प्रकार के उद्दीपकों से बच्चे में मास अनुक्रियाएँ दिखाई देती हैं और बच्चा रोने लग जाता है। स्पष्ट है कि संवेग जन्मजात नहीं होते हैं ।
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संवेगों का विकास बालक में धीरे-धीरे जैसे-जैसे वह वातावरण में सम्पर्क में आता जाता है, होता जाता है। जब बालक लगभग एक वर्ष का हो जाता है, तब उसकी संवेगात्मक अभिव्यक्तियाँ लगभग उसी प्रकार की हो जाती हैं जैसी वयस्क व्यक्तियों की होती हैं। बच्चों की जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, उनमें भय, क्रोध, प्रेम, प्रसन्नता, ईर्ष्या, जिज्ञासा आदि संवेगों का विकास होता रहता है। बालक जब छोटा होता है तब उसकी संवेगात्मक अभिव्यक्ति में शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता होती है, परन्तु जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, उसमें भाषा का विकास होता जाता है। भाषा का पर्याप्त मात्रा में विकास हो जाने पर बालक अपने विभिन्न संवेगों की अभिव्यक्ति शारीरिक क्रियाओं की अपेक्षा भाषा द्वारा अधिक करता है। अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि संवेगों की उत्पत्ति वंशानुगत कारकों पर सर्वाधिक निर्भर करती है। वंशानुक्रम के अतिरिक्त वातावरण सम्बन्धी कास्क, बालक का स्वास्थ्य, बालक का जन्म क्रम, बालक का लिंग आदि कारक भी संवेगात्मक प्रतिमानों के विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। संवेगात्मक प्रतिमानों के विकास में अधिगम और परिपक्वता का भी वंशानुक्रम की भाँति प्रभाव पड़ता है।
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