
मानव विकास की विभिन्न अवस्थाओं हेतु रूसो द्वारा प्रतिपादित शिक्षा योजना का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
रूसो के अनुसार मानव विकास की अवस्थायें और शिक्षा (Stages of Human Development and Education according to Rousseau)
रूसो ने अपनी प्राकृतिक विचारधारा के अनुसार, मानव विकास को निम्नलिखित चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
- शैशव- जन्म से पाँच वर्ष की अवस्था तक ।
- बाल्यावस्था – 5 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था तक।
- कैशोर्य – 12 वर्ष से 15 वर्ष की अवस्था तक।
- युवावस्था – 15 से 20 वर्ष की अवस्था तक।
ये अवस्थायें एक-दूसरे पर निर्भर हैं इसलिए इन्हें एक-दूसरे से पृथक् रखकर शिक्षा देना ठीक नहीं। वह प्रत्येक अवस्था की आवश्यकता को पृथक मानता है। अवस्था बदलने पर रुचियाँ बदलती हैं और विवेक विकासशील होता है।
शैशव और शिक्षा (Infancy and Education)
शिशु स्वभाव से क्रियान्मुख होता है। उसे कोई भी वस्तु मिल जाए वह उसी से खेलने लगता है, उसे पटकता है, मुँह में डाल लेता है। बालक को ऐसे में अच्छे खिलौने देना आवश्यक है। खिलौने सस्ते, साधारण, हल्के और हानि न पहुँचाने वाले होने चाहिये। सोने-चाँदी की कीमती घण्टियाँ, शीशे, लोहे और लकड़ी के खिलौने अच्छे नहीं होते, इनसे चोट लगने का भय बना रहता है। रूसो कहता है-बालक को फूल, पत्तियाँ और फल जैसे प्राकृतिक और कोमल पदार्थ खेलने को दिए जाएँ। हानिकारक वस्तु या खिलौने स्वास्थ्य के लिये अच्छे नहीं होते। अतः ऐसे पदार्थ बालक के आस-पास नहीं होने चाहिए।
बच्चों को ऐसे कपड़े पहनाए जायें जिससे अंगों के संचालन में कोई बाधा न आये। कपड़े अधिक लंग और चुस्त न हों। बच्चे का पालन (दाइयों) द्वारा कराना उचित नहीं। वे माँ जैसा प्यार नहीं देती। बच्चे का पालन-पोषण माँ को स्वयं करना चाहिए।
सामान्य व स्वस्थ विकास होने पर बच्चा स्वतः ही समय पर उठने, चलने, बात करने या बोलने लगेगा। समय से पूर्व उसे बोलने का अभ्यास कराना स्वाभाविक नहीं है। बालक की भाषा के विकास में माँ और घर के लोगों का भारी योग होता है। बालक के स्वभाव के अनुकूल शब्दों के प्रयोग करके बालक की शब्दावली का विकास किया जा सकता है। रूसो के अनुसार, शिशु की शिक्षा निषेधात्मक होनी चाहिए। शिशु में कोई आदत न डाली जाए। उसे बुरी आदतों से बचाकर रखा जाये। बालक स्वाभाविक क्रियायें करके अपना स्वाभाविक विकास कर सके, उसके लिए उचित वातावरण दिया जाना चाहिये।
बाल्यावस्था और शिक्षा (Childhood and Education)
इस अवस्था के बच्चों के लिये ज्ञानेन्द्रियाँ प्रशिक्षण व्यवस्था करना जरूरी है। रूसो का कहना है-
“सर्वप्रथम ज्ञानेन्द्रियाँ ही बलवती होती हैं इसलिए हमें उन्हें प्रशिक्षित करना चाहिए परन्तु हम उनकी उपेक्षा करते हैं। “
“बच्चा सब कुछ छूना चाहता है, उठाना चाहता है, उसकी इस गति को रोकना ठीक नहीं। ऐसा करने पर ही वह गर्म, ठण्डे, कोमल, कठोर, रूप और आकार का ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। वह ऐसी क्रियाओं में स्पर्श और दृष्टि का उपयोग अच्छी प्रकार करता है। इस प्रकार उँगलियों की क्रियाओं तथा आँखों में एक सामंजस्य पैदा हो जाता है। “
बच्चा जब चलना सीख जाता है तो वह चुपचाप कमरे में घुसकर घूर घूर कर देखता है, सूंघता है, हाथों को काम में लाकर वस्तुओं को छूता है। बिल्ली घ्रण शक्ति से पहचान करती है तो बच्चा देखकर और छूकर वस्तुओं को पहचानने का प्रयत्न करता है। बालक की इन क्रियाओं में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। यदि कोई बाधा आयी तो बालक बुद्ध बना रहेगा और उसकी क्रियाशीलता कुण्ठित हो जायेगी। हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हमारे विवेक का आधार होती हैं और सामाजिक क्रियाओं के प्रति सचेत रहती हैं।
रूसो के अनुसार- ” दर्शनशास्त्र का पहला पाठ हमें, हमारे हाथ-पैर, आँख, कान आदि ही पढ़ाते हैं। यदि पुस्तकों को इनका स्थान दे दिया जाये तो इनका उपयोग नहीं होगा और विवेक विकसित नहीं होगा। ऐसे में हम दूसरे के विवेक का उपयोग करेंगे और हमें दूसरे की बात पर विश्वास कर लेना पड़ेगा। ऐसा करते-करते हम आदी हो जाते हैं और कुछ सीखने में असमर्थ रहते हैं।”
आगे रूसो कहता है- “यदि हम सोचना या चिन्तन करना सीखना चाहते हैं तो अपनी ज्ञानेन्द्रियों और अंगों को शिक्षा देनी होगी, क्योंकि ये ही बुद्धि के अस्त्र हैं, शरीर को शक्तिशाली बनाने से ही इन अस्त्रों को काम में लाया जा सकता है। स्वस्थ शरीर के माध्यम से ही मानसिक क्रियाएँ सरल होती हैं। “
बच्चा जब वस्तुओं को पहचानने लगे तो उसे ऐसी वस्तुओं की पहचान करने का वातावरण और अवसर देना चाहिए। रूसो कहता है कि बच्चा जलवायु और वातावरण को भली प्रकार सहन कर सके। बालक ऐसे सिर को अधिक न ढके प्रायः सिर खुला रखे, कम-से-कम कपड़े पहने, खुला शरीर रहे, दौड़े कूदे, और घूमे। ये सभी काम वह जी खोलकर करे। बालक की आँख को इतना अच्छा प्रशिक्षण मिले कि वह एक बार में ही देखकर ऊँचाई दूरी, माप और तौल का अनुमान लगा सके। संगीत के माध्यम से कानों को, विविध गन्धों से नाक को, विविध वस्तुओं को स्पर्श द्वारा त्वचा को और स्वाद द्वारा जीभ को प्रशिक्षित किया जाये। बालक के सामने कोई स्वाभाविक समस्या रखी जाए जिसका हल वह स्वयं ही अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा खोजे। बच्चे को रेखागणित सिखाने का अभ्यास कराना चाहिये।
12 वर्ष की अवस्था तक बालक की शिक्षा अनुभव प्रधान होना चाहिए। परन्तु हम रूसो की अनुभव प्रधान शिक्षा से सहमत नहीं हैं, क्योंकि बालक के स्वानुभव इतने कम, अव्यवस्थित और अपूर्ण होते हैं कि उनसे उसका वांछित विकास हो ही नहीं सकता। बालक चाकू से हाथ काटने का या आग में हाथ देकर उसे जलाने का स्वानुभव लेना चाहे तो यह बहुत घातक हो सकता है। इसलिये बालक को ऐसे अनुभवों से बचाना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक बात स्वानुभव के आधार पर सीखना मुक्ति-संगत नहीं है। परन्तु रूसो की इस बात में सत्यता है कि स्वानुभाव अच्छा और स्थायी ज्ञान देता है। अतः शिक्षा में परानुभवों के साथ-साथ स्वानुभव अर्जित करने तथा वास्तविकता की खोज करने के अवसर जुटाने बहुत आवश्यक हैं।
कैशोर्य और शिक्षा (Adolescence and Education)
रूसो के अनुसार, कैशोर्य 12 से 15 वर्ष तक की आयु तक का माना जाता है। इस समय किशोर को अन्वेषण करने की जिज्ञासा रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाये। जब किशोर में स्वाभाविक जिज्ञासा पैदा होने लगे तो उसे प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन का अवसर दिया जाये। रूसो के अनुसार, कैशोर्य अध्ययन करने का परिश्रम करने और शिक्षा प्राप्त करने का सर्वोत्तम समय है। वे निश्चय ही किसी निर्माण कार्य को व्यावसायिक या औद्योगिक कार्य को सीखें। इसके अवसर जुटाये जायें।
रूसो कहता है- “किशोर की समझ के अनुकूल उससे प्रश्न करो और उसे सोचने दो।” उसके अनुसार, भूगोल और खगोल विज्ञान मानचित्रों की सहायता से न पढ़ाया जाये, क्योंकि इनसे किशोरों को पृथ्वी आदि का गलत ज्ञान मिलता है। भूगोल आदि विषय बालकों को समयानुसार, प्रत्येक ऋतु में जलवायु, लयक्रम, हवा, सूर्य का छिपना और उदय होना, पर्यटन (excursion) तथा निरीक्षण (Observation) के माध्यम से समझाया जाए। बालक प्रत्यक्ष दर्शन और प्रकृति-दर्शन के माध्यम से बहुत अच्छा सीखता है। किशोरों को पाठ्यक्रम पुस्तकों के माध्यम से बिल्कुल न पढ़ाया जाये इससे उनका ज्ञानात्मक विकास रुक जाएगा।
युवावस्था और शिक्षा (Youth and Education)
रूसो के अनुसार, युवावस्था 15 से 20 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करें तो उनके स्वभाव के अनुकूल होगा। इस समय यौन सम्बन्धी शिक्षा अनिवार्य हो जाती है। इसी समय व्यक्ति सामाजिक और नैतिक कर्त्तव्यों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
रूसो कहता है-” जब एमील साथी की आवश्यकता अनुभव करेगा तब उसे अकेला नहीं छोड़ा जायेगा। हमने अब तक उसे शारीरिक ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी और बौद्धिक बल दिया है, अब उसे ‘हृदय’ भी देना है। “
रूसो इस अवस्था में सामजिकता और नैतिकता की शिक्षा देना चाहता है, जबकि उसने किशोर को समाज से सदैव दूर रखा है। वह किस जादू के बल पर युवकों या युवतियों को आदर्श सामाजिक और नैतिक बना सकेगा ? उसने नैतिक शिक्षा का अवसर बालकों को कभी दिया ही नहीं।
वह चाहता है कि युवक स्वयं सामाजिक स्थलों पर, जैसे- स्कूल, अस्पताल, जेलखाना, अनाथालय आदि पर जायें और देंखे कि उनमें क्या बुराइयाँ और अनैतिकताएँ विद्यमान हैं। वह समाज के सम्पर्क में आकर दीन-दुःखी लोगों को देखेगा तो उसमें सहानुभूति के कारण दया और करुणा उपजेगी। उसे सभी मानव-समाज और प्राणियों के साथ प्रेम करने की आवश्यकता अनुभव होगी। परन्तु रूसो कहता है कि युवाओं को ऐसे सामाजिक स्थलों पर बार-बार नहीं भेजना चाहिए। इससे वह कठोर हृदय वाला व्यक्ति बन सकता है। इस समय इतिहास की शिक्षा इतने स्वाभाविक ढंग से दी जायेगी कि वर्तमान की दशाओं को देखकर इतिहास के प्रति कोई भ्रम अनुभव न करे। युवा को इतिहास और नैतिकता द्वारा यह समझाया जायेगा कि समाज में क्या प्रशंसनीय है और क्या निन्दनीय है।
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