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निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ, प्रकृति, गुण एवं इसके दोष | Meaning, nature, Merits and Demerits of prohibitive education in Hindi

निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ, प्रकृति, गुण एवं इसके दोष | Meaning, nature, Merits and Demerits of prohibitive education in Hindi
निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ, प्रकृति, गुण एवं इसके दोष | Meaning, nature, Merits and Demerits of prohibitive education in Hindi

निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ एवं प्रकृति को स्पष्ट कीजिए। इसके गुण एवं दोषों का वर्णन कीजिए।

निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ- प्रकृतिवादी विचारक रूसो ने शिक्षा की एक नवीन अवधारणा का . प्रतिपादन किया जिसे निषेधात्मक शिक्षा के नाम से जाना गया। रूसों के समय में धर्म तथा समाज स्वीकृत आदर्शों की शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य था। स्मृति तथा पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करना शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग था। रूसों के मत से यह शिक्षा बालक के स्वाभाव तथा रुचि के प्रतिकूल थी। अतः उसमें ज्ञान के प्रकाश के स्थान पर अज्ञान का अंधकार उत्पन्न करती है। वास्तव में बालक की भावनाओं तथा प्राकृतिक शक्तियों का पूर्ण विकास करना ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति तभी सम्भव है जब बालक को उसकी प्रारम्भिक अवस्था में समाज के अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक ज्ञान को ग्रहण करने से बचाया जाए। वास्तव में बच्चों को गुण और सत्य के जो सिद्धान्त पढ़ाए जाते हैं उनसे लाभ के स्थान पर हानि हो जाती है। क्योंकि बालकों का प्राकृतिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए रूसो कहते हैं कि बच्चे को निषेधात्मक शिक्षा देनी चाहिए। जिसका तात्पर्य बालक को निष्क्रिय बना देना नहीं वरन् उसे दुर्गुणों से बचाना तथा त्रुटियों से दूर रखना है। शिक्षाशास्त्री ने एस रास के अनुसार- A negative education does not mean a time of illness. It does not give virtues it protects from vice, it does not inculcate truth it protects from error. J. s. Ross.

रूसो का मत है कि ज्ञान देने से पहले बालक के ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों पुष्ट बनाना अनिवार्य है। यह कार्य तभी सम्भव है यदि बालक को कम से कम 12 वर्षो तक कोई ज्ञान न दिया जाय वरन् उसे खेलने, घूमने तथा प्रकृति निरीक्षण का अवसर प्रदान किया जाय। उसे किसी निश्चित पाठ्यक्रम में न बांधकर स्वच्छतापूर्वक अपनी आन्तरिक शक्तियों को विकसित करने की सुविधा दी जाये। शिक्षा की यही प्रक्रिया निषेधात्मक शिक्षा कहलाती है।

निषेधात्मक शिक्षा की प्रकृति- प्रकृतिवादी शिक्षा की एक विशिष्टता निषेधात्मक शिक्षा है। रूसों ने निषेधात्मक शिक्षा को बच्चों के लिए निर्धारित किया है। इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए रूसो ने लिखा है कि में निषेधात्मक शिक्षा उसे कहता हूँ जो प्रत्यक्ष रूप से उन अंगों को जो इसके साधन हैं, पूर्ण बनाने का और इन्द्रियों के उचित अभ्यास द्वारा विवेक का मार्ग तैयार करने का प्रयत्न करती है। निषेधात्मक शिक्षा का तात्पर्य निठल्लापन नहीं है वरन इसके विपरीत है। यह अच्छी बातें बताने का प्रयास करने के बजाय बुरी बातों से बचाती है। यह सत्य की शिक्षा नहीं देती है पर असत्य से दूर रखती है। यह बालक को उस मार्ग पर चलने देती है जो उस आयु वर्ग के बालकों को सत्य की… और ले जाता है, जब वह इसे समझने के योग्य हो जाता है। यह मार्ग उसे अच्छाई की ओर उस समय ले जाता है जब वह उसे समझने और इससे प्रेम करने योग्य हो जाता हैं।

रूसो के कथन से निषेधात्मक शिक्षा की प्रकृति पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है कि यह शिक्षा बालकों को बाहरी ज्ञान देने के स्थान पर उसमें अन्तर्निहित ज्ञान से प्राक्यटन का अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करती है। बालक क्या करे या क्या न करे की अपेक्षा उसे क्या करना उचित है और क्या करना उचित नहीं है, के ज्ञान का बोध कराती है। जिससे बालक बुराई से बचता है तथा अच्छाई के मार्ग को प्रशस्त करता है। रूसो के अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के अन्दर से प्रस्फुटित होती है, वह व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है। रूसो ने कहा था कि “जो प्रायः करते हो उसका उल्टा करो रास्ता स्वयं प्राप्त हो जाएगा।”

निषेधात्मक शिक्षा के गुण-दोष

 गुण रूसों की शिक्षा निषेधात्मक शिक्षा के गुण निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षा का नवीन अर्थ- रूसो ने शिक्षा का नवीन अर्थ प्रदान किया जोकि परम्परागत शिक्षा से पूर्णतः पृथक थी। उसके अनुसार शिक्षा आन्तरिक विकास की प्रक्रिया है। रूसो के अनुसार शिक्षा जीवन की तैयारी मात्र ही नहीं वरन स्वयं जीवन है।

2. शिक्षा में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति- रूसो के विचारों में निषेधात्मक शिक्षा के रूप में मनोवैज्ञानिक आन्दोलन की नींव डाली। बाद में इसी आन्दोलन को पेस्टालाजी, हर्बर्ट तथा फ्राबेल ने आगे बढ़ाने का कार्य किया।

3. बालकेन्द्रित शिक्षा- रूसो ने बालक को बालक मानकर शिक्षा प्रदान किए जाने का सुझाव प्रस्तुत किया, उसको शिक्षा का केन्द्र माना जाय अर्थात् शिक्षा उसकी रुचि, प्रवृत्ति, योग्यता क्षमता तथा आवश्यकताओं के अनुकूल हो ।

4. स्वतन्त्रता पर बल- रूसो ने बालक को बार-बार टीकने का विरोध किया। उसे स्वतन्त्र रूप से स्वाभाविक तरह से सीखने देने पर बल दिया। रूसो का विचार है कि वातावरण ही शिक्षा के लिए उपयुक्त दशाएँ प्रदान करता है।

5. स्वानुभव द्वारा सीखने पर बल- रूसो की निषेधात्मक शिक्षा का उद्देश्य बालक की स्वानुभव द्वारा सीखने देना चाहती है। बालक को प्रत्येक क्षण यह बताना कि क्या नहीं करना है या क्या करना है उचित नहीं है।

6. निरीक्षण, प्रयोग व अन्वेषण द्वारा सीखना- निषेधात्मक शिक्षा इस बात पर विशेष बल देती है कि बालक को स्वयं निरीक्षण करने उसके ज्ञान का पता लगाने व प्रयोग करके सीखने देना चाहिए न कि उसे प्रत्येक बात को पहले से ही बता देनी चाहिए। इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान से उसे उचित-अनुचित, सही-गलत का भी बोध कराएगी।

7. शिक्षा विधि एवं पाठ्यक्रम- शिक्षा विधि एवं पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में रूसों का मानना था कि पहले बालक का अध्ययन किया जाय उसके बाद उसके विकास की अवस्था के अनुसार पाठ्य ‘सामग्री का चयन किया जाय और उस पाठ्य सामग्री को क्रियात्मक विधियों के माध्यम से सीखने देना चाहिए। रूसो ने करके सीखना, स्वानुभव, निरीक्षण, प्रयोग अन्वेषण विधियों से सीखने पर बल दिया। रूसो ने स्वयं द्वारा या पारम्परिक शिक्षा विधि एवं पाठ्यक्रम को निषेध माना है।

दोष- रूसो द्वारा प्रतिपादित निषेधात्मक शिक्षा के निम्नांकित दोष हैं-

1. सामाजिकता के विपरीत- रूसो ने अपनी निषेधात्मक शिक्षा में ये जो यह व्याख्या व्यक्त की कि वह तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विपरीत थी। वह बालक को 15 वर्ष तक समाज से दूर शिक्षा प्रदान करना है। तत्पश्चात् सामाजिक शिक्षा व्यक्तियों के सम्पर्क में रखकर प्रदान करना है। यह उपयुक्त नहीं है।

2. बालक सम्बन्धी ज्ञान अपूर्ण- रूसो ने निषेधात्मक शिक्षा के अन्तर्गत बालकों के विकास के सम्बन्ध में अपने जो विचार प्रकट किए हैं वे उपयुक्त प्रतीत नहीं होते हैं। ग्रेव्स के अनुसार रूसो का बालक सम्बन्धी ज्ञान दोषपूर्ण है और उसके सुझाव अप्राकृतिक तोड़-मरोड़ तथा भावुकता से पूर्ण है।

3. प्राकृतिक अनुशासन का सिद्धान्त दोषपूर्ण है- रूसो ने निषेधात्मक शिक्षा के अनुशासन सम्बन्धी जो विचार व्यक्त किये हैं वह अनुपयुक्त प्रतीत होता है। रूसो ने प्राकृतिक अनुशासन पर बल दिया है। प्रकृति अपने क्रिया-कलापों में कठोर एवं घातक हो सकती है जिसका परिणाम बालक को हानि पहुँचा सकता है। अतः बालक को बालक मानकर ही दण्ड किया जाना चाहिए।

4. परस्पर विरोधी विचार- निषेधात्मक शिक्षा में व्यक्त विचार परस्पर विरोधाभाषी है। जैसे रूसो प्रारम्भ में समाज का विरोध करता है किन्तु किशोरावस्था में हृदय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए समाज को आवश्यक मानता है। अनुशासन में प्राकृतिक अनुभाग पर बल देता है जोकि हानिकारक हो सकता है। रूसो ने निषेधात्मक शिक्षा के अन्तर्गत पुस्तकों, शिक्षकों एवं समाज की अवहेलना करके पूर्ण संचित अनुभवों का बहिष्कार किया है।

5. बचपन तर्क के सोने का समय- निषेधात्मक शिक्षा के अन्तर्गत रूसो ने बचपन को तर्क के सोने का समय माना है। 12 वर्ष की अवस्था तक तर्क का विकास करने का समर्थक नहीं है। परन्तु यह तथ्य अस्वाभाविक है क्योंकि रूसो ने जिस प्रकार के अनुशासन का प्रतिपादन किया है उसके लिए तर्क की आवश्यकता है।

6. गरीबों के लिए शिक्षा की आवश्यकता को नकारना- निषेधात्मक शिक्षा के अन्तर्गत रूसो ने गरीबों के लिए किसी प्रकार की शिक्षा का अनुभव नहीं किया। उसने लिखा है कि “गरीबों को शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है।’

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रूसो द्वारा प्रतिपादित निषेधात्मक शिक्षा में जहाँ एक ओर कुछ अच्छाइयाँ है तो वहीं दूसरी ओर उतनी ही बुराइयाँ भी पायी जाती है। रूसो के निषेधात्मक शिक्षा सम्बन्धी विचार परस्पर विरोधाभाषी, अस्वाभाविक, अमनोवैज्ञानिक तथा अव्यवहारिक भी हैं। इसके अन्तर्गत शिक्षक का स्थान अत्यन्त गौड़ रह जाता है क्योंकि वह बच्चे को कुछ भी सिखाने के बजाए इस रूप में होता है कि वह इस बात की निगरानी निरीक्षण करता रहे कि बालक कैसे सीखता है। वह बालकों को सिर्फ इस बात से अवगत कराए, की सच्चई या सफलता क्या है, की अपेक्षा बुराई या ‘विफलता क्या है।

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