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जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था

जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा  जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था
जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था

जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालते हुए उनके द्वारा निर्धारित शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक पहलू को स्पष्ट कीजिए।

फलवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण डीवी का शिक्षा दर्शन है। आधुनिक काल में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में जनतन्त्रीय शिक्षा का सबसे बड़ा व्याख्याता जॉन डीवी को माना जाता है। डीवी का जन्म सन् 1859 में हुआ था। 19 वर्ष की अवस्था में इसने दर्शनशास्त्र में सबसे अधिक अंक प्राप्त करके बरमाण्ट विश्वविद्यालय से बी. ए. की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मिनेसोटा, मिशीगन और शिकागो विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के साथ-साथ शिक्षाशास्त्र भी पढ़ाया। तभी से उसे शिक्षा के क्षेत्र में रुचि हो गयी। इसने बालकों की शिक्षा के लिये शिकागो में प्रोग्रेसिव स्कूल नामक एक विद्यालय की स्थापना, जिसमें करके सीखने के सिद्धान्त, को कार्य रूप में परिणित किया गया। इस विद्यालय में डीवी ने अपने फलवाद दर्शन के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रयोग किये। शिकागो छोड़कर वह कोलम्बिया विश्वविद्यालय पहुँचे और वहाँ पर शिक्षा और दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। यहाँ पर सन् 1930 तक काम करने के बाद डीवी ने अवकाश प्राप्त किया। सन् 1932 में वह अनेक सामाजिक, शिक्षा सम्बन्ध और मनोवैज्ञानिक संस्थाओं का सभापति चुना गया। उसे महान् दार्शनिक माना गया और देश-विदेश में उसे सम्मान दिया गया। इसी समय उसे डॉक्टर की उपाधि से भी विभूषित किया गया। उसके विचारों का प्रभाव अमेरिका से बाहर रूस, तुर्की, चीन आदि दूर-दूर के देशों में देखा गया। आधुनिक जन्तन्त्रीय शिक्षा प्रणाली पर डीवी के विचारों की अमिट छाप है।

डीवी ने दर्शन-शास्त्र पर अनेक पुस्तकें लिखी, जिनमे से मुख्य ‘Democracy and Education’ है। उसने जनतन्त्र में शिक्षा व्यवस्था की व्याख्या की जो कि उसकी प्रसिद्ध पुस्तक से मालूम पड़ती है। विद्यालय और समाज के सम्बन्ध को लेकर उसने The School and The Society’ की रचना की। आदर्श विद्यालय का चित्र उपस्थित करते हुये उसने ‘Schools of Tomorrow’ तथा ‘The School and The Child’ नामक पुस्तकों की रचना की। वह मानव-संस्कृति में जनतन्त्रीय मूल्यों को सर्वोच्च स्थान देता था। इस सम्बन्ध में उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Freedom and Culture’ में मानव संस्कृति में स्वतन्त्रता के महत्व की चर्चा की गयी है। केवल दर्शन और शिक्षा-सिद्धान्त के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि डीवी का शिक्षा मनोविज्ञान में भी महत्वपूर्ण योगदान है। चिन्तन के विषय को लेकर उसने हम कैसे सोचते हैं, इस विषय पर How We Think’ नामक पुस्तक की रचना की।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

डीवी शिक्षा को एक अनिवार्य सामाजिक गति मानता है। उसके मतानुसार बिना शिक्षा के समाज प्रगति नहीं कर सकता। इसी के आधार पर सभ्यता की रक्षा व विकास होता है। डीवी के अनुसार, “शिक्षा अनुभव के पुनः निर्माण व पुनर्रचना का एक क्रम है जो कि मनुष्य की क्षमता में वृद्धि करने के द्वारा अनुभव को और भी अधिक सामाजिक महत्व प्रदान करता है। ” मनुष्य के बाह्य व आन्तरिक अनुभव सदा परिवर्तित होते रहते हैं। उसे समय-समय पर नवीन अनुभवों व समस्याओं का सामना करना होता है। अत: उसके क्रिया-कलाप भी उन्हीं के अनुसार बदलते रहते हैं। इसी प्रकार अनुभव का संशोधन, पुनसंगठन अथवा पुनः निर्माण होता है। डीवी इसी वृद्धि, परिवर्तन अथवा संशोधन को शिक्षा कहकर पुकारता है। इस प्रकार वह “शिक्षा का अर्थ क्रम में सन्निहित करता है।” वह यह नहीं मानता कि बच्चे के स्कूल जाने पर ही शिक्षा का आरम्भ होता है। शिक्षा तो उसके जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है और जीवन भर चलती रहती है। शिक्षा जीवन की तैयारी न होकर स्वयं जीवन है।

शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Education)

डीवी के अनुसार शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास किस प्रकार से होगा, इसके लिये सामान्य सिद्धान्त निश्चित नहीं किया जा सकता है क्योंकि भिन्न-भिन्न रुचियों और योग्यताओं के बालकों में विकास भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। अध्यापक को बालक की योग्यताओं को ध्यान में रखना होता है। उसे निर्देशन देना चाहिए। डीवी शिक्षा के लक्ष्य को उन्मुक्त छोड़ देना चाहता है, क्योंकि यदि पहले से निश्चित कर लिया जायेगा और बालक को उसी ओर जाने की कोशिश की जायेगी तो उससे हानि हो सकती है। शिक्षा बालक के लिये है, बालक शिक्षा के लिये नहीं है। शिक्षा का उद्देश्य, “ऐसा वातावरण तैयार करना है जिसमें कि प्रत्येक बालक को समस्त मानव जाति की सामाजिक जागृति में सक्रिय रहकर योगदान करने का अवसर मिले।” फलवादी दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य बालक में सामाजिक कुशलता (social efficiency) उत्पन्न करना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से बाहर रहकर उसका विकास नहीं हो सकता। सामाजिक जीवन में सभी का विकास होता है। इसलिये शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक जीवन में दक्षता प्राप्त करना है। फलवादी शिक्षा का उद्देश्य जनतन्त्रीय मूल्यों की स्थापना है। बालक में जनतन्त्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हम ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतन्त्रता और सहयोग से काम करें। प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जायें। ऐसा समाज तभी बन सकता है जबकि व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाये। अस्तु, शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिये। विद्यालय जनतन्त्रीय समाज का एक सूक्ष्म रूप है। उसमें बालक में जनतन्त्रीय गुणों का विकास किया जाना चाहिये। इस विकास में नैतिकता मुख्य है। नैतिक विकास सक्रियता से होता है। इससे व्यक्ति में कुशलता और चरित्र का निर्माण होता है। विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेकर बालकों में उत्तरदायित्व वहन करने की शक्ति बढ़ती है। शिक्षा के क्षेत्र में सभी बालकों और बालिकाओं को समान अवसर प्रदान किया जाना चाहिए और उनकी योग्यता के अनुसार उनका विकास होना चाहिए।

शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Education)

डीवी शिक्षा प्रक्रिया के दो अंग मानता था मनोवैज्ञानिक और सामाजिक।

1. मनोवैज्ञानिक शिक्षा का पाठ्यक्रम और विधि बालक की मूल प्रवृत्तियों और शक्तियों के आध र पर निश्चित की जानी चाहिए। बालक की शिक्षा उसकी रुचियों के अनुसार होनी चाहिये। उसकी रुचियों का पता लगाकर ही विभिन्न अवस्थाओं में विद्यालय का पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिये।

2. सामाजिक अंग समस्त शिक्षा प्रजाति की सामाजिक चेतना में शक्ति के भाग लेने से प्रारम्भ होती है। इसलिये विद्यालय में ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिये जिससे सक्रिय रहकर बालक मानव जाति की सामाजिक जागृति में सफलतापूर्वक भाग ले सकें। इससे उसके आचरण में सुधार होता है और उसके व्यक्तित्व तथा शक्तियों का विकास होता है।

शिक्षा पद्धति (Education System)

सफल शिक्षा मनोवैज्ञानिक होने के कारण डीवी ने शिक्षा पद्धति के विषय में महत्वपूर्ण विचार उपस्थित किये हैं जो कि उसकी पुस्तकों How We Think तथा Interest and Effort in Education में पाये जा सकते हैं।

उसका सबसे प्रसिद्ध सिद्धान्त ‘करके सीखने का सिद्धान्त’ है जिसके अनुसार सबसे अच्छी शिक्षा पद्धति वह है जिसमें बालक स्वयं कार्य करके विभिन्न विषयों को सीखें। शिक्षक को भाषण के द्वारा अपने विचार बालक के मन में नहीं भरने हैं बल्कि उसे ऐसे काम करने को देने हैं जिनसे उसकी विभिन्न शक्तियों का स्वाभाविक विकास हो सके। काम करते समय ही उसे उससे सम्बन्धित बातों का ज्ञान कराया जाना चाहिये और व्यावहारिक समस्याओं को हल करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। समस्याओं को हल करने से बालक के अनुभव में वृद्धि होती है।

डीवी के अनुसार शिक्षा पद्धति में बालक के जीवन, क्रियाओं और विषयों में एकता स्थापित की जानी चाहिये। बालक के जीवन की क्रियाओं के चारों ओर सब विषय इस तरह बांध दिये जाने चाहिए कि क्रियाओं के द्वारा उनका ज्ञान प्राप्त हो सके। डीवी का यह सिद्धान्त गाँधीजी ने अपने बुनियादी शिक्षा के कार्यक्रम में अपनाया था। बालक की क्रियाएँ भी पहले से निर्धारित नहीं होनी चाहिये।

शिक्षक का स्थान (Place of Teacher)

फलवादी शिक्षा योजना में शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना है जिसमें पलकर बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके और वह जनतन्त्र का योग्य नागरिक बन सके। डीवी ने शिक्षक को यहाँ तक महत्व दिया है कि उसे समाज में ईश्वर का प्रतिनिधि ही कह दिया है। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में डीवी ने महत्वपूर्ण विचार उपस्थित किये हैं। विद्यालय में शिक्षक को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, इस विषय में डीवी ने शिक्षा मनोविज्ञान और जनतन्त्रीय मूल्यों को निर्देशन माना है। विद्यालय में स्वतन्त्र और समानता के मूल्य को बनाये रखने के लिये शिक्षक को अपने को बालकों से बड़ा नहीं समझना चाहिए। उसे आज्ञाओं और उपदेशों के द्वारा अपने विचारों और प्रवृत्तियों को बालक पर लादने का प्रयास नहीं करना चाहिए। उसे बालकों का निरीक्षण करके उनकी रुचियों, योग्यताओं और गतिविधियों को समझकर उनके अनुरूप कार्यों में लगाना चाहिये। इस प्रकार विद्यालय में शिक्षा बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिये। इससे विद्यालय के संचालन में कठिनाई बहुत कम हो जाती है। शिक्षक को चाहिए कि बालकों को ऐसी क्रियाओं में प्रवृत्त करे कि उनमें सोचने-विचारने की योग्यता विकसित हो।

अनुशासन (Discipline)

शिक्षक के उपयुक्त व्यवहार से अनुशासन बनाये रखना आसान हो जाता है। डीवी ने अनुशासन की प्रचलित विधियों की आलोचना की। उसने बतलाया कि अनुशासन बनाये रखने के लिये बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को कुंठित करने का प्रयास अनुचित है। वास्तव में, अनुशासन केवल बालक के निजी व्यक्तित्व पर ही निर्भर नहीं है। उसका सामाजिक परिस्थितियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सच्चा अनुशासन सामाजिक अनुशासन है और यह बालक के विद्यालय के सामूहिक कार्यों में भाग लेने से उत्पन्न होता है। अस्तु, विद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाना चाहिए कि बालक परस्पर सहयोग से रहने का अभ्यास करें। विद्यालय में एक-से उद्देश्य लेकर सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक कार्यों में एक साथ भाग लेने से बालकों में अनुशासन उत्पन्न होता है और उन्हें नियमित रूप से काम करने की आदत पड़ती है। विद्यालयों के कार्यक्रमों का बालक के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। अस्तु, बालक को प्रत्यक्ष रूप से उपदेश न देकर उसे ऐसा सामाजिक परिवेश दिया जाना चाहिए और उसके सामने ऐसे उदाहरण उपस्थित किये जाने चाहिए कि उसमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो ओर वह सही अर्थों में सामाजिक प्राणी बने। यह ठीक है कि विद्यालय में शान्तिपूर्ण वातावरण होने से काम अधिक अच्छा होता है। किन्तु शान्ति साधन है। शिक्षक को तो अपनी ओर से बालकों को उनकी प्रवृत्तियों के अनुसार विविध प्रकार के कामों में लगाये रखना चाहिये और यदि इस प्रक्रिया से कभी-कभी कुछ अशान्ति भी उत्पन्न हो तो उसे दूर करने के लिये बालक की क्रियाओं पर रोक-टोक करना उचित नहीं है। आत्मानुशासन उत्पन्न करने में उत्तरदायित्व की भावना का विशेष महत्व है। उसे उत्पन्न करने के लिये विद्यालय के अधिकतर काम स्वयं विद्यार्थियों को सौंप दिये जाने चाहिये। इसमें भाग लेने से उनमें अनुशासन की भावना उत्पन्न होगी।

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