प्रकृतिवाद के सन्दर्भ में रूसो के विचारों का वर्णन कीजिए। अथवा रूसो के अनुसार प्रकृति की और लौटो’ का क्या अर्थ है ?
रूसो का प्रकृतिवाद (Naturalism of Rousseau)
रूसो के अनुसार, ” प्रकृति के निर्माता के यहाँ से संसार में सभी वस्तुएँ अच्छे और सुन्दर रूप में आती हैं। मनुष्य के हाथों में आते ही वे दूषित हो जाती हैं।” रूसो सामाजिक व्यवस्था और व्याप्त कुरीतियों से बहुत दुःखी था और व्याप्त कृत्रिमता को दूर करने के लिए प्रकृति की ओर लौटने का उसने सन्देश दिया। उसके अनुसार, समाज की विविध कलायें और संस्थायें व्यक्ति के जीवन को बनावटी बनाकर उसे पतन में पहुँचा देती हैं। आदिकालीन मानव आज के सभ्य मानव से अधिक सुखी था, क्योंकि वह प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था। आज भी मनुष्य सभी कष्टों से छुटकारा पा सकता है यदि वह प्रकृति के नियमों का अनुसरण करने लगे। रूसो का नारा था- ‘मनुष्य तू प्रकृति की ओर लौट तो तेरा कल्याण होगा।’
रूसो का विचार था कि बालक को समाज से बहुत दूर रखा जाये, अन्यथा उसमें सामाजिक बुराइयाँ आ जायेंगी। वह नहीं समझ पाया कि सामाजिक बुराइयों से बालक का बचाव समाज से पृथक् रखकर नहीं वरन् प्रेम, सहयोग, त्याग आदि भावनाओं के बल पर भी हो सकता है। पेस्तालॉजी समाज-सुधार का आधार मानव और समाज के प्रेम को मानता था। रूसो को समाज और परिवार से सुख नहीं मिला। उसे केवल कष्ट मिले इसलिए उसके मन में समाज के प्रति घृणा थी।
रूसो समाज विरोधी विचारों का समर्थक था। सामाजिक आधार उसकी शिक्षा के आधार नहीं थे। अपनी ‘सोशल काण्ट्रैक्ट’ नामक पुस्तक से उसका मत है कि ठीक राजनीतिक सिद्धान्तों का अनुसरण करके नवीन सभ्यता का विकास सम्भव नहीं है। वह उस समय के प्रचलित स्कूलों की शिक्षा का कट्टर विरोधी था। वह शिक्षा का आधार मानव-सम्भव को मानता है। वह ऐसे ‘प्रकृतिवाद के मनुष्य’ की कल्पना करता है जो अपने स्वभाव के अनुकूल स्वतन्त्रतापूर्वक विकास करता है और असभ्य होते हुए भी सामाजिक परम्पराओं से दूर रहता है। रूसो के अनुसार, बालक के स्वभाव का पता लगे तभी तो उसे स्वाभाविक शिक्षा दी जाती है। परन्तु बालक के स्वभाव का पता लगाना सरल काम नहीं है। रूसो कहता है- “हमें मनुष्य बनना है या नागरिक यह निर्णय लेना है तथा प्रकृति और समाज की शक्तियों से लड़ना है। हम मनुष्य और नागरिक दोनों एक साथ नहीं बन सकते।” वह एमील को मनुष्य बनाना चहाता है, कोई नागरिक या सामाजिक व्यक्ति नहीं बनाना चाहता। अठारहवीं शताब्दी में जो परिस्थितियाँ विद्यमान थीं, सम्भवतः उनको देखते हुए रूसो का विरोध स्वाभाविक ही था।
रूसो के अनुसार, दूसरों या समाज के विचारों और अनुभवों पर निर्भर रहकर विकास करना मूर्खता है। व्यक्ति को अपनी प्रकृति, अपने स्वभाव और प्रकृति के आधार पर कार्य करना चाहिए। दूसरे के अनुभव हानिकारक और अप्राकृतिक या अस्वाभाविक होते हैं। हमें अपने स्वभाव, प्रकृति और आन्तरिक भावना के अनुकूल कार्य करना चाहिए। वह बालक में कोई भी आदत (Habit) डालना ठीक नहीं समझता था। वास्तव में ‘कोई भी आदत न डालने की आदत ही’ बालक के विकास के लिए उचित है। रूसो के अनुसार, व्यक्ति को किसी भी आदत का दास नहीं होना चाहिए। व्यक्ति जो मन में आये, वह करे, इसी में सुख है।
रूसो को प्रकृति से प्यार था इसी कारण वह सभी को प्रकृति की ओर लौटने का परामर्श देता है। बच्चा मनुष्य और समाज के सम्पर्क में आकर बिगड़ता है। परन्तु जीव जन्तुओं, पशुओं, वनस्पतियों आदि के सम्पर्क में आकर सुधरता है। रूसो शहर को नैतिक और शारीरिक दृष्टि से मानव जाति की कब्र मानता है। उसके अनुसार, समाज अत्याचारी है इसलिए पीड़ित व्यक्ति एकान्त में रहना पसन्द करता है। इन्हीं मान्यताओं के कारण रूसो बालक को समाज और उसकी संस्कृति से बिल्कुल अलग रखना चाहता है और प्राकृतिक वातावरण में रखकर उसे विकास का स्वतन्त्र अवसर देना चाहता है। लोगों की दृष्टि में रूसो का प्रकृतिवाद समाज में व्याप्त असमानता, बुराई, शोषण की अपेक्षा अधिक अच्छा लगा। इसी के फलस्वरूपः शिक्षा बाल केन्द्रित बन सकी।
रूसो का प्रकृतिवाद और शिक्षा (Naturalism of Rousseau and Education)
रूसो का विचार था कि बालक को बालक समझकर ही शिक्षा देना ठीक है उसे वयस्क समझकर शिक्षा देना ठीक नहीं प्रौढ़ और बालक की आवश्यकताओं में भेद होता है। इसलिए दोनों की शिक्षा समान नहीं हो सकती। शिक्षा तभी उपयोगी होगी जब वह व्यक्ति (बालक) के स्वभाव के अनुकूल हो। पहले बालक के स्वभाव या प्रकृति (Nature) को जाना जाये तभी उसकी शिक्षा व्यवस्था की जाये। स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा अनुपयोगी है क्योंकि वह बालकों के स्वभाव के अनुकूल नहीं है, वह उन पर लादी जाती है। बालक को ज्ञान लादकर बड़ा न किया जाए वरन् जब तक वह स्वयं बड़ा नहीं हो जाता उसे बालक ही रहने दिया जाये। रूसो के अनुसार, शिक्षा वह है जो बालक के अंगों और जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक विकास करे। “पहले बालक के स्वभाव और उसकी आवश्यकताओं को समझो तब उसके लिए स्वाभाविक शिक्षा-व्यवस्था करो। स्वभावनुकूल दी जाने वाली शिक्षा बालक के लिए सर्वाधिक उपयोगी होगी।”
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