शिक्षक प्रशिक्षक के रूप में गिज्जूभाई (Gijjubhai as a Teacher-Educator)
गिज्जूभाई ने अपना एक बाल-मन्दिर खोला और उसमें बालकों को पढ़ने, लिखने, कार्य करने. खेलने, बागवानी करने, नाचने-गाने, अभिनय करने, कहानी कहने, आनन्द मनाने, दृश्य-दर्शन करने की शिक्षा प्रदान करने लगे। इस कार्य को वे बहुत तन्मयता से करते थे। गिज्जूभाई के बाल मन्दिर की प्रसिद्धि बढ़ती गई तथा उसमें प्रवेश के लिए बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। अतः उन्होंने लोगों को अपने बाल-मन्दिर के आधार पर अन्य बाल-मन्दिर खोलने के लिए प्रेरित किया। परन्तु इन बाल-मन्दिरों में परम्परागत अध्यापक उस दायित्व को नहीं निभा सकते थे जिसका निर्वाह गिज्जूभाई अपने बाल मन्दिर में कर रहे थे।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए गिज्जूभाई ने शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाया। ऐसे छ: सौ शिक्षक और शिक्षिकाओं को उन्होंने तैयार किया जिन्होंने उनके सिद्धान्तों के आधार पर बच्चों को प्रशिक्षित करने का व्रत लिया।
वर्तमान शिक्षक-प्रशिक्षक की भाँति गिज्जूभाई ने कक्ष में भाषण देकर अपने कार्य का अन्त नहीं किया बल्कि उन्होंने शिक्षकों का व्यावहारिक मार्गदर्शन किया, किस प्रकार बच्चों के साथ घुल-मिलकर उनके विकास में वे सहायक हो इसका प्रयोगिक प्रशिक्षण प्रदान किया।
अध्यापकों के मार्गदर्शन हेतु गिज्जूभाई ने कुछ शिक्षा-सिद्धान्तों को प्रतिपादन किया तथा शिक्षकों से इन सिद्धान्तों पर चलने का आग्रह किया। गिज्जूभाई के शिक्षा-सिद्धान्तों को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-
- विद्यालय में पहुँचने पर बालक का स्वागत उसका नाम लेकर होना चाहिए।
- बालक को आदर व सम्मान दिया जाए।
- बालक को भयमुक्त बनायें।
- बालक को कहानी सुनायें व उससे सुनें।
- बालक को लोकगीत सुनायें व साथ गाएँ।
- समूह गान द्वारा बालक को गाना सिखाएँ।
- बालक को आस-पास के नदी झरने, झील, पहाड़, जंगल, चिड़ियाघर व अजायबघर ले जायें।
- खेल-खेल में उन्हें व्याकरण सिखाएँ, भाषा-ज्ञान करायें, कहानी सुनायें व उनसे सुनें, पहेली सुलझाने का खेल खेलें ।
- ग्लोब के खेल द्वारा भूगोल सिखाएँ।
- कभी-कभी नाटक खेलें, अभिनय करें, बालकों से अभिनय करने को कहें।
- बालकों को मारिए, पीटिए, झिड़किए नहीं।
- इतिहास का ज्ञान देने के लिए कहानी कहें, कहानी कथा द्वारा इतिहास की जानकारी दें।
- बालकों को स्वयं नया खेल खोजने दें एवं सीखने दें।
- विद्यालय से जब बच्चा छुट्टी होने पर घर जाये तो उसको प्रसन्न मुद्रा से शिक्षक अगले दिन पुनः खेलने की बात कहे।
- बच्चों के अन्दर सृजनशक्ति व कल्पना शक्ति को सही दिशा प्रदान कर प्रोत्साहित करना चाहिए।
गिज्जूभाई को एक उच्च कोटि का शिक्षाशास्त्री मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। निम्नांकित कारणों से गिज्जूभाई एक उत्तम शिक्षक प्रशिक्षक कहे जा सकते हैं-
- गिज्जूभाई ने शिक्षण को बाल केन्द्रित माना।
- शिक्षा को स्वाभाविक एवं व्यावहारिक प्रक्रिया माना।
- बालकों के मानसिक विकास को समझने का आग्रह किया।
- बालकों के अनुभवों को नियोजित करने को कहा।
- पाठ्यक्रम को विद्यार्थियों की आवश्यकताओं एवं क्षमताओं पर आधारित होना चाहिए।
- शिक्षण को रोचक बनायें।
- शैक्षिक कार्यक्रम का केन्द्र शिक्षक या पाठ्यक्रम नहीं बल्कि बालक होना चाहिए।
- बालकों को स्नेह और सहानुभूति के साथ शिक्षा प्रदान करें।
- ‘करके सीखने’ पर बल दें।
- ज्ञात से अज्ञात की ओर धीरे-धीरे बढ़ें।
- अध्यापक को सलाहकार, मार्गदर्शक तथा अनुकरण योग्य बनना चाहिए।
- स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का अनुगमन करते हुए बालकों को पर्याप्त स्वतंत्रता देनी चाहिए।
उपर्युक्त बिन्दुओं पर जोर देने के कारण गिज्जूभाई एक आधुनिक शिक्षाशास्त्री के रूप में हमारे समक्ष आते हैं जिनकी तुलना, रूसो, पेस्टालॉजी, फ्रोबेल एवं मॉण्टेसरी जैसे आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों से सरलता से की जा सकती है। गिज्जूभाई के उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री होने का पता उनके दो ग्रन्थों-
(1) दिवास्वप्न और (2) प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा से चलता है।
दिवास्वप्न में लेखक तात्कालीन प्राथमिक शाला की आलोचना करता है तथा उसका शिक्षक भावी शाला की कल्पना करता है। सम्पूर्ण पुस्तक कहानी शैली में लिखी हुई है तथा शिक्षक द्वारा भावी विद्यालय का दिवास्वप्न देखने का विवरण प्रस्तुत करती है।
दूसरी पुस्तक है ‘प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा जिसमें गिज्जूभाई ने भाषा की शिक्षा पर अपने विचार दिए । लेखन से पूर्व वाचन की शिक्षा लोकगीत द्वारा कविता शिक्षण खेल में व्यावहारिक व्याकरण की शिक्षा, कहानी द्वारा इतिहास बता देना, ग्लोब के माध्यम से खेल-खेल में भूगोल सिखा देना, मॉण्टेसरी विधि से गणित सिखा देना जैसे आधुनिक सिद्धान्तों की व्याख्या इस पुस्तक में की गयी है। उपर्युक्त दोनों पुस्तके गिज्जूभाई को उच्च कोटि के शिक्षाशास्त्रियों में खड़ा कर देती हैं।
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