नैतिक विकास
नैतिक अर्थात् “Moral” शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द “Mores” से हुई है, जिसका अर्थ है “रीति-रिवाज’ अथवा लोक-रीति । वास्तव में नैतिकता का संप्रत्यय एक सापेक्षिक संप्रत्यय है, जिसकी व्याख्या समाज या संस्कृति के संदर्भ में ही की जा सकती है। प्रत्येक समाज में कानून व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये कुछ विशेष नियम व कानून बनाये जाते हैं तथा समाज के प्रत्येक नागरिक को इन नियमों व कानूनों का पालन करना उसका नैतिक दायित्व होता है। जो व्यक्ति समाज के द्वारा बनाये गये नियमों व मान्यताओं के अनुसार व्यवहार करता है, उसका व्यवहार नैतिक माना जाता है और जो व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं मान्यताओं का पालन नहीं करता है, उसका व्यवहार अनैतिक माना जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि नैतिकता पूर्ण रूप से एक सामाजिक तथ्य है।
नैतिक विकास का अर्थ
साधारण शब्दों में नैतिक व्यवहार से तात्पर्य सामाजिक मान्यताओं व आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने से है। हरलॉक के मतानुसार — “समूह के कोड के अनुसार व्यवहार करना ही नैतिक व्यवहार कहलाता है । ” नैतिक व्यवहार से संबंधित नियमों व मान्यताओं का पालन करना व्यक्ति के चरित्र की दृढ़ता व पवित्रता से संबंधित होता है।
अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि काई भी व्यक्ति नैतिक मूल्यों व आदर्शों को इसलिये नहीं अपनाता है कि वे परंपरागत हैं या समाज के सारे लोग इनका अनुसरण करते हैं, बल्कि वह इन मूल्यों और आदर्शों को अपनी तर्क व विवेकेशक्ति के आधार पर ग्रहण करता है, क्योंकि नैतिकता से संबंधित सभी नियम धार्मिक विश्वासों, नियमों, पवित्रता, आस्था, न्याय तथा सच्चाई पर आधारित होते हैं और सदैव बुद्धि से संबंधित तथा तार्किक होते हैं।
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नैतिकता से संबंधित व्यवहार जन्मजात नहीं होता, अपितु नैतिकता का विकास बालक के वातावरण के संपर्क में आने के पश्चात् होता हैं प्रारंभ में बालक नैतिकता से संबंधित व्यवहार को पुरस्कार, दंड या प्रशंसा और निंदा आदि के आधार पर सीखता है। आरंभ में बालक को उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होता है। वह केवल प्रलोभन के कारण ही उचित व्यवहार प्रदर्शित करता है। इस अवस्था में बालक को पूर्णतः नैतिक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में बालक में नैतिकता का विकास उसकी ज्ञान, शक्ति व विवेक के विकास पर निर्भर करता है।
किशोरावस्था में जाकर बालक में विवेक का उदय होता है। अतः तब वह प्रलोभनों को त्यागकर अपनी अंतःप्रेरणा और अंतरात्मा के आधार पर शुद्ध आचरण अपना सकता है। अतः उचित-अनुचित का ज्ञान व नैतिक-प्रत्यय के विकसित हो जाने पर जब बालक स्वयं अपनी बुद्धि एवं विवेक के आधार पर उचित निर्णय देना आरंभ कर देता है, तभी हम कह सकते हैं कि बालक में स्वस्थ रूप से नैतिक व्यवहार का विकास हो रहा है। अतः विवेक एवं बुद्धि के द्वारा निर्देशित होकर अपनी इच्छानुसार नैतिक व्यवहार करना नैतिकता को प्रदर्शित करता है।
इस संदर्भ में नैतिकता को एक आंतरिक तथ्य की संज्ञा दी जा सकती है। अतः यह कहा जा सकता है कि नैतिकता या नैतिक व्यवहार का संबंध ऐसी मानसिक वृत्ति से है, जो मनुष्य को उचित-अनुचित का ज्ञान कराती है तथा उसे मानवीय मूल्यों को बनाये रखने और चारित्रिक नियमों के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा देती है। इस प्रकार से नैतिकता आत्म चेतना के आधार पर व्यक्ति को उचित-अनुचित, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय और भलाई-बुराई में अंतर करना सिखलाती है। यह सभी प्रकार के अंतर व्यक्ति अपने सामाजिक अनुभवों के आधार पर ही सीख पाता है। यदि बालक में नैतिक मूल्य वृढ़ व स्थायी रूप धारण कर लेते हैं तो बालक कठिन परिस्थितियों में भी अनुचित व्यवहार नहीं करता है, अपितु वह अपनी बुद्धि एवं तर्क के आधार पर उचित निर्णय लेकर ही सही व उचित व्यवहार करता है।
नैतिक भवना बच्चे में शैशव अवस्था से ही पैदा होने लगती हैं नैतिकता की पहली सीढ़ी परिणाम पर आधारित होती हैं यह सात वर्ष से पूर्व की आयु होती है, जब बच्चा किए गए कार्य के अनुकूल प्रभाव को अच्छा और प्रतिकूल प्रभाव को बुरे की संज्ञा देता है। यह विधि वसतुनिष्ठ नैतिक प्रदर्शन कहलाती है। सात वर्ष की आयु के बाद बच्चा काम के पीछे की भवना पर ध्यान देने लगता है। यह विधि व्यक्ति नैतिक प्रदर्शन कहलाती है और यह स्तर लगभग 10 वर्ष की आय तक विकसित होता है।
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यह भी एक तथ्य है कि बालक अपना स्वयं नैतिक आचरण विकसित नहीं कर सकता। सामाजिक आचरण का अनुपालन एकदम नहीं हो पाता। इसके लिए सतत् शिक्षा और समय की आवश्यकता होती है। बारह वर्ष की अवस्था में बालक स्थायी व्यवहार के योग्य हो पाता है। जिन घरो में दोहरे मानदण्ड अपनाए जाते हैं, वहां बालक के नैतिक-विकास में संघर्ष पाया जाता है।
नैतिक विकास के चरण:
नैतिक विकास के निम्नलिखित दो चरण होते हैं
1. नैतिक व्यवहार का विकास
2. नैतिक-अवधारणा का विकास
1. नैतिक व्यवहार का विकास- समाज के समस्त व्यवहारों को ग्रहण करने में व्यक्ति को अनेक वर्ष लगते हैं। इसमें कुछ नैतिक व्यवहारों को वह दण्ड एवं पुरस्कार के कारण सीखता है, कुछ को अनुकरण द्वारा सीखता है और कुछ को प्रतिबिम्बित चिंतन के माध्यम से सीखता हैं समस्त नैतिक व्यवहारों को सिखाने का उद्देश्य बालकों में अनुशासन की भावना विकसित करना है। यदि अनुशासन की धारण स्पष्ट है तो बालक नैतिक व्यवहार को सरलतापुर्वक सीख लेता है। बालक को सही-गलत सिखाना मात्र ही नैतिक व्यवहार का सीखना नहीं है। ‘ईमानदारी’ के गुण के बारे में अध्ययन करके यह परिणाम निकाला गया कि विशिष्ट परिस्थितियों में ऐसे गुणों का विकास किया जा सकता है। कभी-कभी एसी भी परिस्थिति आती है कि बालक सही निर्णय लेने में संघर्ष की स्थिति से गुजरता है।
नैतिक व्यवहार को उचित रूप से सीखने के लिये बालकों को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिये-
1. बालक को विशिष्ट परिशिष्ट में सही कार्य करने की कुशलता अर्जित करनी चाहिए।
2.बालक में सही-गलत की शुद्ध अवधारणाओं का विकास होना चाहिए।
3. विभिन्न परिस्थितियों में समान विशषताओं वाले वयवहार का अर्जन करना चाहिए।
2. नैतिक-अवधारणा का विकास- नैतिक विकास की प्रक्रिया में नैतिक अवधारणा का विकास भी एक आवश्यक पहलू है। जब हम सही-गलत की बात करते हैं तो हम यह मान तेले हैं कि यह भावात्मक विचार है। भावात्मक अवधारणाओं को ग्रहण करने तथा समझने के लिए यह आवश्यक है कि मानसिक तथा शारीरिक परिपक्वता में संतुलन हो। अवधारणा के विकास पर बालक की बुद्धि, उसके सामाजिक सांवेगिक-विकास, सांस्कृतिक वातावरण एवं उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न गुणों का प्रभाव पड़ता है। बालक में निःस्वार्थ भावना का विकास स्वार्थ की भावना-युक्त आत्म-केंद्रीयता, सामाजिक-केंद्रीयता, आज्ञा पालन, धर्म तथा नैतिकता के नियमों का अनुपालन, सामाजिक अस्वीकृति का भय तथा पारस्परिक-अनुक्रिया द्वारा होता है।
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