गिज्जूभाई के शैक्षिक विचारों का उल्लेख कीजिए।
गिज्जूभाई का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। गिज्जूभाई ने शिक्षा के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। गिज्जूभाई का मुख्य उद्देश्य एक ऐसे विद्यालय एवं ऐसी शिक्षा व्यवस्था का विकास करना था जो बालकों के समग्र इन्द्रिय विकास, शारीरिक विकास, शैक्षिक भ्रमण, कथा कहानी जैसी प्रवृत्तियों का केन्द्र हो । जहाँ बालक हँसते, खेलते तथा रुचिपूर्ण गतिविधियों में सक्रियता के साथ भाग लेते हुए शिक्षा ग्रहण करें।
गिज्जूभाई ने बाल-केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया। बाल-शिक्षा के जगत में गिज्जूभाई की एक अनमोल कृति है – ‘दिवा-स्वप्न’। इस कृति में गिज्जूभाई की बाल-केन्द्रित शिक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण विचार वर्णित हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है-
1. अध्यापक- गिज्जूभाई चाहते थे कि ‘दिवा-स्वप्न’ पुस्तक में जिन-जिन बातों का निर्देश किया गया है, वे सब वर्तमान प्राथमिक शाला के शिक्षकों के लिए दिवा स्वप्न की वस्तु बनें। बाल-शिक्षण विषयक शिक्षा-प्रणाली के जिन नियमों का व्यवहार वे अपने बाल मन्दिर में कर रहे थे, उन नियमों को प्राथमिक शालाओं के अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है। इस पर उन्होंने इस पुस्तक में अपने व्यावहारिक विचार प्रकट किये।
गिज्जूभाई ने शिक्षकों के स्वभाव में समर्पण की भावना उत्पन्न करने के लिए लिखा है, “हमारी वर्तमान प्राथमिक पाठशाला का शिक्षक अज्ञानी है, नौकर है, धन का लोभी है और अपने आप में अविश्वास रखने वाला है। शिक्षक की इस कमजोरी को गिज्जूभाई सहानुभूति के साथ देखते हैं तथा उसके इस मानसिक रोग में स्वयं भी दुःख का अनुभव करते हैं। इस पुस्तक के वाचन से शिक्षक अपनी निर्बलता के विचार से घबरायेगा, शरमायेगा और अपने अन्दर एक ऐसा बल उत्पन्न करने की महत्वाकांक्षा को जगाएगा, जिसके द्वारा वह श्री गिज्जूभाई के दिवा-स्वप्न का साक्षात्कार कर सकें।
2. शिक्षण-विधि – गिज्जूभाई की एक और अनुपम कृति है – “प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा।’ इस पुस्तक में एक शिक्षक और बालक के बीच की उस प्रक्रिया की चर्चा है, जिससे बालक के भाषा शिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। इस पुस्तक के चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में माइकेल वेस्ट (सन् 1920) की भाँति सबसे पहले वाचन पर बल दिया गया है। इसके पश्चात् वे रेखा-चित्रण से लेखन को प्रारम्भ करते हैं। उँगलियों को कलम पकड़ने का तरीका, पेन्सिल पर पकड़, इच्छानुसार मोड़ना और उल्टी-सीधी आकृतियों से अक्षर आकृति तक जाना इत्यादि लेखन की प्रथम आवश्यकता है। उनके अनुसार श्रुत लेखन से लेखन की गति तो बढ़ती ही है साथ ही साथ सही लिखने की आदत भी पड़ती है।
3. कविता- शिक्षण लोकगीतों में गेयता, डोलन, ताल की स्पष्टता और उचित विषय-वस्तु के. होने पर बालक उनकी ओर आकृष्ट होता है। लोकगीतों के माध्यम से छात्रों का काव्य-शिक्षण प्रारम्भ किया जाय। बालकों के सम्मुख कविता वह रखी जाए, जिसकी भाषा बोधगम्य हो तथा विषय-वस्तु वर्णनात्मक या कथात्मक हो। कविता का परिचय गाकर ही कराया जाय, उसे रटाना भी आवश्यक नहीं है। केवल रसानुभव पर ही कविता आत्मसात् हो जाती है।
जो कविताएँ क्रिया-प्रधान होती हैं, जिनमें गाड़ी-घोड़, दौड़-धूप, धूम-धाम से होती है, उन्हें बालक पसन्द करते हैं। बालक के क्रियापूर्ण जीवन में क्रिया का गान करने वाली कविताएँ बालक के विकास में विशेष रूप से सहायक होती हैं। बालकों में कविता गाने का शौक उत्पन्न कर देने से कविता- शिक्षण का आधा काम स्वतः ही बन जाता है।
कविता-पाठ में बालकों को न तो शब्दों के अर्थ लिखवाने चाहिए और न उन्हें यों ही अपनी ओर से अर्थ बताने चाहिए। गाना शुरू करने से पहले उन्हें कविता की वस्तु का थोड़े में परिचय दे देना चाहिए। कभी-कभी कविता सुनने के पश्चात् उसका संक्षिप्त सार सुनने में बालकों को विशेष आनन्द आता है। विभिन्न मुद्राओं से कविता के भाव प्रकट करने चाहिए। किसी शबद या पंक्ति का अर्थ बालक के पूछने पर बता देना चाहिए। कविता की सफलता का रहस्य यह जानने में है कि बालक काव्य में कितना रस लेने लगा है ? काव्य उसे कितना स्पर्श कर सका है तथा बालक के लेखन तथा वाणी: में कविता ने कितना स्थान ले लिया है ? गिज्जूभाई के अनुसार शब्दार्थ और अन्वय अनावश्यक है।
4. व्याकरण शिक्षण- गिज्जूभाई के अनुसार पाठ में संज्ञा, क्रिया, सर्वनाम, विशेषण पद की पहचान खेल-खेल में की जा सकती है। अपने दिवा स्वप्न में अध्यापक लक्ष्मीशंकर के माध्यम से सफलतापूर्वक व्याकरण शिक्षण विधि प्रयुक्त की है।
5. इतिहास शिक्षण- बच्चों के लिए इतिहास काहनी के रूप में ही दिलचस्प बनता है। उसमें कहानीपन तो होना ही चाहिए, साथ ही मूल घटना के आस-पास एक-सी कल्पित घटनाओं से सजाकर इतिहास पढ़ाना चाहिए।
6. भूगोल-शिक्षण – भूगोल पढ़ाने में ग्लोब और नक्शों की सहायता लेकर तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहिए।
7. गणित-शिक्षण- गणित पढ़ाने के गिज्जूभाई माण्टेसरी पद्धति को ही ठीक समझते हैं।
8. चित्रकला शिक्षण – चित्रकला शिक्षण में बच्चों को वस्तु देकर उनकी आकृति बनाने को कहना चाहिए। भले ही प्रारम्भ में छात्र सुन्दर न बना सकें परन्तु अभ्यास से वे ठीक चित्र बनाने लगेंगे।
बाद में उन्हें पेन्सिल से रंग भरने का अभ्यास कराया जाय। बच्चों को पट्टी पर अथवा कागज पेन्सिल से जैसा भी सम्भव हो चित्र बनाने दिया जाय। अच्छे चित्रों का एलबम बनाकर प्रदर्शन हेतु रखा जाना चाहिए।
9. धार्मिक शिक्षा – छोटे बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में धार्मिक पुरुषों तथा उनके जीवन के प्रसंगों पर कथाएँ होनी चाहिए। धर्म की गम्भीर बातों को छोटे बच्चे नहीं समझ पाते हैं। उन्हें पुराण और उपनिषद् की कथाएँ भी बताई जा सकती हैं। कर्मकाण्ड, श्लोक पाठ, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन आदि को हम भविष्य के लिए छोड़ सकते हैं।
10. खेल-कूद – बच्चों को नियत समय में खेलने देना चाहिए। खेलने का मतलब खेलना, कूदना, दौड़ना और मौज करना है। इसमें हारने-जीतने का कोई महत्व नहीं होना चाहिए । पुरस्कार से उनमें छोटे-बड़े की भावना उत्पन्न होती है।
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