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शिक्षा का शाब्दिक अर्थ इसके संकुचित, व्यापक एवं वास्तविक अर्थ

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ इसके संकुचित, व्यापक एवं वास्तविक अर्थ
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ इसके संकुचित, व्यापक एवं वास्तविक अर्थ

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके संकुचित, व्यापक एवं वास्तविक अर्थ को स्पष्ट कीजिए। अथवा शिक्षा के विस्तृत अर्थ से आप क्या समझते हैं ? संक्षेप में लिखिए।

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ (Etymological Meaning of Education)

शिक्षा अपने आप में एक विस्तृत शब्द है जिसके माध्यम से कोई भी मनुष्य विशेषकर शिशु अपनी आंतरिक भावनाओं को प्रकट कर सकता है। शिक्षा का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द एजुकेशन (Education) होता है। इस अंग्रेजी भाषा के शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के तीन शब्दों से हुई है, ‘एड्केटम’ (Educatum) ‘एडयूसियर’ (Educere) व ‘एडूकेयर’ (Educare) |

एड्केटम शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों ‘ए’ (E) तथा ‘डूको’ (Duco) के योग से हुई है। इसका अर्थ है आगे की ओर बढ़ना अथवा अन्दर से विकास होना । इस अर्थ को हम इस परिप्रेक्ष्य में ले सकते हैं कि जन्म के समय शिशु में जन्मजात प्रवृत्तियाँ होती हैं तथा कुछ समय पश्चात् जब वह अपने आसपास के वातावरण के सम्पर्क में आता है उस शिशु के अन्दर छिपी हुई शक्तियाँ विकसित होना प्रारम्भ कर देती हैं। प्रारम्भ में ये शक्तियाँ अल्प विकसित या सुषुप्तावस्था में होती हैं परन्तु उन्हें विकसित करने का कार्य या जाग्रत करने का कार्य शिक्षा के द्वारा होता है।

इसी प्रकार ‘एडूसियर’ व ‘एडूकेयर’ शब्दों का भी यही अर्थ है। ‘एडूसियर’ का अर्थ है निकाल तथा ‘एडूकेयर’ का अर्थ है आगे बढ़ना या विकास करना। इस प्रकार शिक्षा का शाब्दिक अर्थ मनुष्य की जन्मजात शक्तियों को विकसित करना व उन्हें आगे बढ़ना है। शिक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘शिक्ष’ धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य है सीखना व सिखाना’। इस प्रकार शिक्षा के अन्तर्गत सीखने व सिखाने की प्रथा का भी प्रचलन है।

इस सम्बन्ध में प्रो. जी. एच. थॉमसन ने कहा है कि- “शिक्षा एक विशेष प्रकार का वातावरण है, जिसका प्रभाव बालक के चिंतन, दृष्टिकोण व व्यवहार करने की आदतों पर स्थाई रूप से परिवर्तन के लिए डाला जाता है। “

शिक्षा का संकुचित अर्थ

शिक्षा के संकुचित अर्थ से तात्पर्य है कि शिक्षा एक निश्चित स्थान, जैसे-स्कूल, कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय में प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा निश्चित व्यक्तियों के द्वारा निश्चित व्यक्तियों को दी जाती है। इसका रूप निश्चित पाठ्यक्रम व एक निश्चित समय होता है। इस सम्पूर्ण शैक्षणिक कार्यवाही में शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक का स्थान मुख्य तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का स्थान गौण होता है। इस प्रकार की शिक्षा से विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार शिक्षा पद्धति में विद्या प्रदान करने वाले शिक्षक से यह उम्मीद की जाती है कि वह विद्या ग्रहण करने वाले विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व को प्रभावित करें तथा उनका सर्वांगीण विकास हो। परन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में यह कम ही देखने को प्राप्त होता है कि केवल विद्यालय की शिक्षा प्राप्त करके किसी शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व का विकास हो ।

इस क्रम में प्रो. त्रेवर ने कहा है- “शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसमें तथा जिसके द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र व व्यवहार को एक विशेष सांचे में ढाला जाता है। “

जी. एच. थाम्सन- शिक्षा एक विशेष प्रकार का वातावरण है जिसका प्रभाव बालक के चिन्तन दृष्टिकोण तथा व्यवहार करने की आदतों पर स्थाई रूप से परिवर्तन के लिए डाला जाता है।

डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार- “छात्रों के जीविका उपार्जन करने में सहायता देना शिक्षा का कार्य है। “

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार- “शिक्षा का अर्थ मस्तिष्क को इस योग्य बनाता है कि वह सत्य की खोज करके उस तथ्य को अपना बनाते हुए व्यस्त कर दे।”

याज्ञवल्क्य के अनुसार- “शिक्षा मनुष्य को सचरित्र बनाने का साधन है। “

शिक्षा का व्यापक अर्थ

मूल रूप से हम देखें तो शिक्षा की प्रक्रिया अपने आप में अत्यन्त व्यापक है। सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी मनुष्य प्रत्येक समय किसी-न-किसी व्यक्ति से कोई-न-कोई शिक्षाप्रद बात सीखता रहता है। इस प्रकार यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक व्यक्तियों, घटनाओं, संस्थाओं व विचारों से परिचित होता है तथा कुछ परिस्थितियों में उनसे प्रभावित भी होता है। वह उन सभी घटनाओं से कुछ-न-कुछ सीखने का प्रयास करता है जिनसे वह प्रभावित होता है। इस प्रकार शिक्षा एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, इससे हमें नया ज्ञान, नया अनुभव प्राप्त होता है तथा हमारे विचारों, आदतों व व्यवहार में भी परिवर्तन उत्पन्न होता है तथा हमारे सीखने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है। इस प्रकार की शिक्षा के लिए किसी स्थान विशेष की आवश्यकता नहीं होती है और न ही कुछ विशेष प्रकार के व्यक्ति शिक्षा प्रदान करने के लिए आवश्यक होते हैं। यहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक घटना जो उसके सामने घटित होती है प्रत्येक अनुभव तथा प्रत्येक संस्था उसकी शिक्षक है, वह प्रत्येक से कुछ न कुछ शिक्षा ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रत्येक उसका शिक्षक है तथा शिक्षण की यह प्रक्रिया निरन्तर व सतत् चलती रहती है।

इस सन्दर्भ में डम्बिल के अनुसार- “शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव आ जाते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं। “

एस. एस. मैकन्जी के अनुसार- “व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन पर्यन्त चलती रहती है तथा जीवन के प्रत्येक अनुभव में उसमें वृद्धि होती है। “

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार- “मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।”

शंकराचार्य के अनुसार- “सा विद्या या विमुक्ता।’

महात्मा गाँधी के अनुसार- ” शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर मन तथा आत्मा का सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वांगीण विकास करे। “

शिक्षा का वास्तविक अर्थ

शिक्षा के संकुचित व व्यापक अर्थों को दृष्टिगत रखें तो हमें शिक्षा के सीमित रूप के ही दर्शन होते हैं। यदि संकुचित अर्थ को देखें तो शिक्षा सीमित तथा परिवर्तन विरोधी होती है तथा व्यापक अर्थ को ध्यान में रखें तो शिक्षा आवश्यकता से अधिक उदार, सार्वभौमिक दृष्टिकोण तथा प्रगतिशील मापदण्ड उत्पन्न करने में कुछ हद तक अक्षम रहती है। इस प्रकार संकुचित व व्यापक अर्थ दोनों अपने आप में सीमित हैं। दोनों दृष्टिकोण पूर्ण नहीं है इसीलिए वर्तमान समय में आवश्यकता यह है कि इसका सही व वास्तविक अर्थ तो समझा जाएँ। कोई एक ऐसा रूप जो दोनों का समन्वय करता हो । जो उदार दृष्टिकोण व प्रगतिशील भावना का विकास करता हो। बालक शिक्षा को एक व्यवस्थित व क्रमबद्ध रूप में भी ग्रहण कर सकें तथा अपने अनुभवों को भी शिक्षा के क्षेत्र में समाहित कर सकें। इसी प्रकार उनका सम्पूर्ण विकास होगा। शिक्षा के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करते हुए टी. रेमण्ट ने लिखा है कि-” शिक्षा उस विकास का नाम है जो शैशव अवस्था से प्रौढ अवस्था तक होता ही रहता है अर्थात् शिक्षा वह क्रम है जिससे मानव अपने को आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार- “सर्वोच्च शिक्षा वह है जो हमें मात्र सूचनाएँ ही नहीं देतीं अपितु हमारे जीवन और सम्पूर्ण सृष्टि में तादात्म्य स्थापित करती है। “

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