वर्तमान भारत में निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता
वर्तमान भारत में निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता- अन्य युगों की अपेक्षा वर्तमान काल में भारत में निर्देशन की अत्यन्त जरूरत है। भारत एक अत्यन्त विकसित देश है। यहाँ कृषि है तथा उद्योग दोनों को उन्नति की जरूरत है। आबादी बढ़ रही है, विद्यालय खुल रहे हैं।, बेकारी बढ़ रही है, नयी-नयी राजनीतिक समस्याएँ सामने आ रही हैं। इन समस्त कारणों देश में निर्देशन की आवश्यकता पर बल डाला है। अतः हम कह सकते हैं कि भारत में निर्देशन की आवश्यकता निम्नांकित दृष्टिकोणों से है-
(1) राजनैतिक दृष्टिकोण से-
राजनैतिक दृष्टिकोण से देश में इस समय निर्देशन की बड़ी आवश्यकता है। राजनैतिक क्षेत्र में निर्देशन की आवश्यकता निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है।”
(अ) स्वदेश रक्षा- स्वदेश रक्षा की दृष्टि से इस समय देश में निर्देशन की अत्यन्त आवश्यकता है। भारत अब तक पंचशील के सिद्धान्तों का अनुयायी रहा है किन्तु चीन और उसके पश्चात् पाकिस्तान के बर्बर आक्रमणों ने भारत को अपनी सुरक्षा को दृढ़ करने को मजबूर कर दिया।
इसके लिए उपयुक्त चयन-विधि का विकास करना जरूरी है, उचित व्यक्तियों की तलाश करना जरूरी है। इन सबको केवल निर्देशन ही कर सकता है।
(ब) प्रजातन्त्र की रक्षा-भारत इस समय विश्व के प्रजातन्त्र देशों में सबसे बड़ा देश है। यदि भारत में प्रजातन्त्र खतरे में पड़ जाता है तो यह समझना चाहिए कि सम्पूर्ण विश्व का प्रजातन्त्र खतरे में पड़ गया है। अत: हमें अपने प्रजातन्त्र की रक्षा करनी है। इसके लिए हमें अपने अधिकारों व कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। हमें अपनी बुद्धि तथा विवेक से उचित प्रतिनिधियों का चयन, देश के प्रति हमारे दायित्व आदि की दृष्टि से भी निर्देशन की आवश्यकता बढ़ जाती है।
(स) धर्म-निरपेक्षता-भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है। यहाँ धर्मों को समान रूप से मान्यता प्राप्त है। धर्म क्या है? धर्म-निरपेक्षता क्या है? दूसरे धर्म के प्रति हमारे क्या कर्त्तव्य हैं? इन समस्त प्रश्नों के उत्तर केवल निर्देशन से ही प्राप्त हो सकते हैं।
(द) भावात्मक एकता-देश में इस समय नये-नये प्रान्तों का प्रादुर्भाव हो रहा है। पंजाब तथा हरियाणा का दृष्टान्त हमारे सम्मुख स्पष्ट है। देश कितने ही प्रान्तों या राज्यों में विभक्त हो जाये। कोई इसके विरूद्ध विशेष आपत्ति नहीं है, किन्तु राज्यों के नाम पर हिंसात्मक कार्यवाहियाँ, लूटमार, अग्निकांड आदि सहनीय नहीं है।
हमें अपने देशवासियों को यह सिखाना है कि देश एक है, प्रान्त उसके अंग है। भावात्मक एकता से रहने की आवश्यकता है। इस सबके लिए भी उचित निर्देशन की आवश्यकता है।
(2) सामाजिक दृष्टिकोण से-
देश में सामाजिक दृष्टिकोण से भी निर्देशन की अत्यन्त आवश्यकता है। यह निम्नांकित पाँच क्षेत्रों से स्पष्ट है-
(अ) आबादी की वृद्धि-देश में आबादी की वृद्धि अत्यन्त तीव्रगति से हो रही है। बढ़ती आबादी ने नयी-नयी समस्याएं हमारे सम्मुख खड़ी कर दी हैं। उनमें बेकारी की समस्या भी एक प्रमुख समस्या है। इसके अलावा जैसा कि हम जानते हैं, कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते, दो व्यक्तियों में भिन्नता होती है यदि व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाये, तो भिन्नता की मात्रा भी बढ़ जाती है। ठीक इसी प्रकार ज्यों-ज्यों देश की आबादी बढ़ती जा रही है, देश में अनेक प्रकार के वैयक्तिक विभिन्नताओं वाले व्यक्ति आते जा रहे हैं। इन सबको ठीक से समाज में समायोजित करने के लिए भी निर्देशन की आवश्यकता है।
(ब) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन-
देश में पूरा समाज व सामाजिक मूल्य बदल रहे हैं। ग्रामीण व्यक्ति शहरों में आकर आबादी का घनत्व बढ़ा रहे हैं। अपने को शहरी जीवन के साथ समायोजित नहीं कर पा रहे हैं। संयुक्त परिवार प्रथा छिन्न-भिन्न हो चुकी है, नये सम्बन्ध स्थापित हो रहे हैं, रहन-सहन खान-पान फैशन आदि सभी कुछ बदल रहा है। धर्म के नये-नये अर्थ निकाले जा रहे हैं। इन समस्त परिवर्तित परिस्थितियों में मनुष्य अपने को किंकर्तव्यविमूढ़ सा पाता है। वह कोई एक निश्चित पथ नहीं निर्धारित कर पाता। अत: उसे अपने जीवन की एक धारा निर्धारित करने के लिए निर्देशन की जरूरत हैं।
(स) बेकारी,गरीबी, निम्न-जीवन-स्तर व गन्दी बस्तियाँ-
देश में इस समय बेकारी, गरीबी, निम्न-जीवन स्तर व भूखमरी का साम्राज्य है। औद्योगिक नगरों की गन्दी बस्तियाँ हमें दिखाती हैं कि वर्तमान युग में मानव के जीवन की क्या हालत है? वास्तव में पं० नेहरू ने कभी सही कहा था कि कानपुर, मुम्बई, कोलकाता जैसे नगरों की झुग्गियाँ जानवरों के रहने योग्य भी नहीं हैं। उनमें भी मानव रहते हैं। ये वर्तमान समाज के मस्तिष्क पर कलंक के टीके के समान हैं। समाज के इस वातावरण के कारण ही बाल अपराध कुसमायोजन, समस्यात्मक बालक आदि को बढ़ावा मिलता है। इन सबके लिए उपयुक्त निर्देशन की जरूरत है।
(द) प्रवासी व शरणार्थी-
शरणार्थियों के अतिरिक्त वर्तमान युग में नयी समस्या और हमारे सामने आ गयी है। वह यह है कि वे भारतीय जो अब तक विदेशों में रहते थे। पुनः भारत लौट रहे हैं। ये व्यक्ति विशिष्ट समाज में पले हैं। इनके संस्कारों पर उन देशों की सभ्यता का बड़ा गम्भीर प्रभाव पड़ा है। नयी सभ्यता में आकर ये प्रवासी भारतीय अपने को बड़ा अस्त-व्यस्त तथा समाज में अलग पाते हैं। वे भारतीय समाज के साथ मिलने-जुलने में संकोच करते हैं। समायोजन नहीं कर पा रहे हैं। इस सब कारणों से उन्हें निर्देशन की आवश्यकता है।
(य) औद्योगीकरण-
देश में नये-नये उद्योगों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। नये-नये उद्योग खुल रहे हैं। इनमें काम करने के लिए अलग-अलग क्षमता व योग्यता वाले व्यक्तियों की जरूरत पड़ती है। इस दृष्टिकोण से भी निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।
(3) शिक्षा के दृष्टिकोण से-
शिक्षा सबके लिए और सब शिक्षा के लिए हैं। इस विचार के अनुसार प्रत्येक बालक को शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। शिक्षा किसी विशिष्ट समूह के व्यक्तियों के लिए नहीं है। प्रत्येक बालक को चाहे वह किसी भी समूह का क्यों न हो, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। किस समूह का कौन सा बालक किस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के योग्य है, इसकी जानकारी हमें केवल निर्देशन से ही मिलती है। इसलिए शिक्षा के दृष्टिकोण से निर्देशन की बड़ी आवश्यकता है।
(ब) पाठ्यक्रम का चयन-
अर्द्ध विकसित देश होने के कारण अभी हम यह निर्धारित नहीं कर पाये हैं कि निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति किस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था के द्वारा सम्भव है। इसलिए हमारे शिक्षा विद् कभी कोई नीति अपनाते हैं तो कभी कोई। कभी इण्टरमीडिएट समाप्त करते हैं तो कभी पुन: इसकी सिफारिश करते हैं। इस समस्त कारणों से हमारे बालक तथा अध्यापक वर्ग शिक्षा व्यवस्था के परिवर्तित रूप के साथ ठीक से अनुकूलन प्राप्त नहीं कर पाते है। इसके लिए भी उचित निर्देशन की आवश्यकता है।
(ख) विद्यालयों का चयन-
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में नये-नये विषयों से सम्पन्न नयी विचारधाराओं से ओत-प्रोत हमारे विद्यालयों की स्थापना हो रही है, इन समस्त नये-नये विद्यालयों और उनमें पढ़ाये जाने वाली विषयों आदि की पर्याप्त जानकारी देने हेतु भी निर्देशन की आवश्यकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान भारत में सभी दृष्टियों से राजनैतिक सामाजिक शैक्षिक व आर्थिक-निर्देशन की अत्यन्त आवश्यकता है, देश की वास्तविक उन्नति बिना निर्देशन की उचित व्यवस्था किये नहीं हो सकती।
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में भी निर्देशन की जरूरत है। हाईस्कूल तथा अन्य परीक्षाओं के परिणाम यह प्रदर्शित करते हैं कि एक बहुत बड़ी संख्या में छात्र अनुत्तीर्ण होकर समय, श्रम तथा धन नष्ट करते हैं अध्ययन बताता है कि वे छात्र अयोग्यता की कमी के कारण असफल नहीं होते हैं, वरन् ये रुचि की कमी, कम प्रेरणा तथा साम्वेगिक कठिनाइयों के फलस्वरूप फेल होते हैं। तृतीय श्रेणी प्राप्तकर्ताओं को उनकी श्रेणी जीवनपर्यन्त हतोत्साहित करती है। अत: इस प्रकार की बर्बादी को केवल निर्देशन के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है।
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