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पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अर्थ, उद्देश्य, महत्व एवं संगठन के सिद्धान्त

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अर्थ, उद्देश्य, महत्व एवं संगठन के सिद्धान्त
पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अर्थ, उद्देश्य, महत्व एवं संगठन के सिद्धान्त

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं से आप क्या समझते हैं? इसके उद्देश्य एवं संगठन के सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अर्थ- पाठ्य-सहगामी क्रियाओं से आशय उन क्रियाओं से है जो पाठ्यक्रम के साथ-साथ विद्यालय में करायी जाती है। इन क्रियाओं का उतना ही महत्व है, जितना कि कक्षा में पढ़ायी जाने वाली पाठ्य-वस्तु इन क्रियाओं को ही पाठ्य सहगामी क्रियायें कहा जाता है।

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं के उद्देश्य-पाठ्य सहगामी क्रियाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का सर्वप्रथम उद्देश्य छात्रों को प्रजातंत्र तथा नागरिकता की शिक्षा प्रदान करना है।
  2. छात्रों का सर्वतोन्मुखी विकास करना।
  3. छात्रों को स्वशासन की शिक्षा प्रदान करना।
  4. समाज और विद्यालय के महज आपसी सम्बन्धों को सुदृढ़ करना।
  5. छात्रों की रूचियों का सही मार्गदर्शन करना।

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का महत्त्व

शिक्षा में मनोविज्ञान के प्रवेश से पूर्व शिक्षा का उद्देश्य केवल मानसिक वृद्धि करना था। उस समय विद्यालयों में किताबी ज्ञान एवं शिक्षा प्रदान की जाती थी, लेकिन आप शिक्षा का उद्देश्य बालकों का केवल मानसिक विकास करना ही नहीं, बल्कि मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक सांस्कृतिक एवं नैतिक विकास करना है। इसलिए अब विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शिक्षण के अलावा अन्य क्रियाओं को महत्व दिया जा रहा है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं का महत्त्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट है-

1. छात्रों में निहित प्रतिभाओं की खोज एवं विकास- पाठ्य-सहगामी क्रियाओं के माध्यम से छात्रों में निहित विभिन्न प्रतिभाओं की खोज कर उन्हें उजागर किया जा सकता है।

2. अतिरिक्त शक्तियों का समुचित उपयोग- छात्रों की अतिरिक्त शक्तियों का समुचित उपयोग, उनकी अतिरिक्त शक्तियों का समुचित उपयोग इन क्रियाओं द्वारा होता है।

3. शैक्षिक दृष्टि से महत्व- इनके माध्यम से छात्र परस्पर सहयोग, प्रेम, सद्भावना, मेल-मिलाप, सहकारिता आदि गुणों का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते है।

4. विशेष रूचियों का विकास– पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का वैविध्य छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करता है वे अपनी रूचियों के अनुसार उन्हें अपनाते हैं। इस तरह उन्हें अपनी रूचियों को तृप्त करने का अवसर प्राप्त होता है।

5. सामाजिक दृष्टि से महत्व- इनका सामाजिक दृष्टि से भी बड़ा महत्व है, प्रतिनिष्ठा और कर्त्तव्यपरायणता से ओत-प्रोत होकर छात्र विद्यालय और राष्ट्र से प्रेम करना सीख जाता है।

6. नैतिक दृष्टि से महत्व- इन क्रियाओं का नैतिक दृष्टि से भी महत्व है। छात्र वफादारी | और नियमों का पालन करना सीख लेते हैं।

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं के संगठन के सिद्धान्त

पाठ्य-सहगामी क्रियाओं के लाभों को उचित और प्रभावशाली ढंग से उठाने के लिए यह आवश्यक है कि उनका संचालन ठीक प्रकार से किया जाय। इनके प्रभावशाली और उचित संगठन के लिये निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

1. विद्यालय कार्य-काल में ही इनका संगठन हो— पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ विद्यालय के कार्य-काल में ही संगठित की जाये। इस प्रकार की व्यवस्था से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि अधिक से अधिक छात्र इन क्रियाओं में भाग ले सकेंगे। विद्यालय बन्द हो जाने के पश्चात् | दूर रहने वाले छात्रों का इनमें भाग लेना सम्भव नहीं होगा। ऐसी दशा में अनेक छात्र लाभान्वित होने से वंचित रह जायेंगे। अतः विद्यालय के समय में ही पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाये तो उत्तम है।

2. छात्रों का अधिक से अधिक सहयोग- इन क्रियाओं के संगठन में यथासम्भव छात्रों का अधिक से अधिक सहयोग प्राप्त किया जाय। प्रत्येक क्रिया के संगठन और संचालन में छात्रों से सलाह लेना उचित है और उन पर कुछ उत्तरदायित्व भी डाले जाएँ।

3. शिक्षा और विद्यालय के उद्देश्य का ध्यान– पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ केवल | आनन्द प्रदान करने वाली न हों। वरन् इनका संगठन इस बात को ध्यान में रखकर किया जाए। कि ये शिक्षा और विद्यालय के उद्देश्यों की अधिक से अधिक पूर्ति कर सकें।

4. उचित योजना का निर्माण- विद्यालय में किसी भी पाठ्य-सामग्री क्रिया का संगठन इस बात का ध्यान में रखकर किया जाए कि ये शिक्षा और विद्यालय के उद्देश्यों की अधिक से अधिक पूर्ति कर सकें।

5. उचित चुनाव- इन क्रियाओं का उचित और उपयुक्त चुनाव ही इनके संगठन का महत्वपूर्ण पहलू है। इस विषय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है—

  • (क) क्रियाओं में वैविध्य और व्यापकता होनी चाहिए, जिससे प्रत्येक छात्र अपनी रूचि के अनुकूल रूचियों का चयन कर सकें।
  • (ख) क्रियाएँ आवश्यकता से अधिक भी न हों।
  • (ग) अधिक व्ययपूर्ण क्रियाओं को स्थान नहीं दिया जाए।
  • (घ) उन पाठ्य-सहगामी क्रियाओं पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए जिनका शिक्षा सम्बन्धी अधिक महत्व हो।
  • (ङ) क्रियाएँ साध्य न होकर साधन हों।
  • (च) क्रियाओं के चयन में स्थानीय वातावरण का अवश्य ध्यान रखा जाय।

6. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं को अध्यापकों के कार्य का एक अंग माना जाय- अध्यापकों को इन क्रियाओं के विषय में यह ध्यान रखना कि ये भी पाठ्यक्रम का एक अंग हैं। अतः यदि उन पर इनका कार्य या उत्तरदायित्व सौंपा जाय, तो उसे वह शिक्षण का एक अंग मानकर स्वीकार करें। इनको उत्तरदायित्व का बोझ नहीं माना जाए। कुछ हैं-

7. अध्यापक केवल मार्गदर्शन करें- जिस अध्यापक को पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं का संचालक बनाया जाए, उसे केवल मार्गदर्शन का ही कार्य करना चाहिए न कि तानाशाह का।

8. अध्यापक केवल मार्गदर्शन करें- पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं के उत्तरदायित्व का वितरण करते समय अध्यापकों की रूचियों का भी ध्यान रखा जाए।

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