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रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों की काव्य प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों की काव्य प्रवृत्तियाँ
रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों की काव्य प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों की काव्य प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ- अलौकिकता के स्थान पर सांसारिकता एवं विलासिता की अभिलाषा इस काल की प्रवृत्तियों से नितान्त विपरीत है इसका कारण सद्युगीन परिस्थितियों का प्रभाव है। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से रीतिकाल ह्रासोन्मुख अधिक है। इस युग में भक्ति काल की भांति शद्ध भक्ति की धारा प्रवाहित न होकर सीमा रहित घोर श्रृंगार की ओर बढ़ चली। रीतिकालीन कवि राधा और कृष्ण का वर्णन अलौकिक रूप से न करके साधारण नायिका और नायक की भाँति किया। अन्य शब्दों में रीतिकालीन कवि अलौकिक सत्ता के सौन्दर्य में स्वयं को तन्मय न करते हुए केवल नारी की कामोद्दीपक चेष्टाओं, क्रीड़ाओं आदि में निमग्न रहे। इसके अतिरिक्त उस युग की परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी थीं जिनके कारण जीवन को बाह्य सौन्दर्य को ही अत्यधिक महत्त्व दिया गया। जीवन के महत्तर मूल्यों की ओर किसी का ध्यान ही न था।

श्रृंगारिकता-

श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति रीति कवियों की कविता का प्राण है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन कवियों की श्रृंगार भावना की अभिव्यक्ति के दमन से उत्पन्न किसी प्रकार की मानसिक ग्रंथियाँ नहीं हैं। इसमें शरीर सुख की वह साधना है जिसमें विलास के समस्त उपकरणों के संग्रह की ओर व्यक्ति की दृष्टि रहती है। इसका कारण यहग है कि नैतिक बन्धनों की छूट और आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन से उनकी इस प्रवृत्ति का अत्यधिक विकास हुआ है।

काव्य रीतियों का वर्णन-

काव्य रीतियों का निरूपण रीति काल की है। रीतिकाल के कवि संस्कृत ग्रन्थों के आधार पर काव्य के समस्त अंगों काव्य हेतु, काव्य प्रयोजन, काव्य भेद, शब्द शक्ति, अलंकार, छन्द आदि का विवचन अपने ग्रन्थों में करते रहे चिन्तामणि, कुलपति, सूरति मिश्र, श्रीपति, देव आदि ऐसे ही आचार्य है। चिन्तामणि कुलपति का रस विलास, कुलपति मिश्र का रहस्य, देव का ‘भाव विलास’, काव्य रसायन, ‘रस तरंगिणी’, भिखारीदास का प्रमुख विशेषता रीतियों से सम्बद्ध हैं जिसमें संस्कृत आचार्यों की भाँति काव्यांगों का विवेचन किया गया है।

रीतिकाल में प्रधान काव्य की रचना के स्थान पर मुक्तक काव्य की प्रधानता हुई है। इसका कारण यह था कि कवि आश्रयदाताओं के मन को अनुरंजित करने के लिए कभी-कभी एक दो चमत्कारी दोहे सुना दिया करते थे। नहि पराग नहिं मधुप ‘मधु’ नहिं विकास इहि काल’ वाले दोहे ने ओमर में महाराजा जयसिंह को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने बिहारी से इसी प्रकार के अन्य दोहे रचन एको आमंत्रित किया और उनका सम्मान भी किया।

चमत्कारी प्रदर्शन एवं वाणी कौशल-

रीति युग की यह भी काव्यगत विशेषता है। उनकी कविता का उद्देश्य, काव्य सृजन की अपेक्षा आचार्यत्व का प्रदर्शन करना अधिक था, इसलिए इन कवियों ने काव्य अलंकार, वक्रोक्ति-उक्ति चमत्कार आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। केशव के पदों में इनका स्थान अत्यधिक है। बिहारी के काव्य में उक्त चमत्कार की प्रधानता है।

अन्य विशेषतायें-

रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त भक्ति और नीति सम्बन्धी रचनायें भी लिखी हैं। रीतिकालीन कवियों की भक्ति भावना के विषय में डॉ. नागेन्द्र का यह कथन दृष्टव्य हैं- “वास्तव में यह भक्ति भी उनकी श्रृंगारिकता का ही एक अंग थी। जीवन की अतिशय रसिकता से जब यह लोग घबरा उठते हैं तो राधाकृष्ण का यही अनुराग उनके धर्म-भक्ति मन की आश्वासन देता होगा। इस प्रकार रीतिकालीन भक्ति एक ओर तो सामाजिक कवच दूसरी ओर मानसिक शरण भूमि के रूप में इसकी रक्षा करती थी।

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