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आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/आदिकाल की विशेषताएं

आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

आदिकाल परिचय (वीरगाथा काल)

आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ- आदिकाल को वीरगाथा काल के नाम से भी जाना गया है, यद्यपि अनेक विद्वानों ने इस काल को कई नामों से सम्बोधित किया है, यथा-सिद्ध सामन्त युग, चारण काल, आधार काल, नवजागरण काल, संक्रमण काल और संयोजन काल आदि। हिन्दी काव्य के आरंभिक काल में काव्य की विविध प्रवृत्तियों का उदय हुआ, इस दृष्टि से ‘आदिकाल’ कहना समाचीन है। यह नाम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा दिया गया है। इस काल के राजनीतिक वातावरण तथा काव्य में वीर भावना की प्रधानता के आधार पर इस काल को वीरगाथा काल कह दिया गया है।

ऐतिहासिक दृष्टि से आदिकाल में राजनैतिक अराजकता और अव्यवस्था व्याप्त थी। सम्राट हर्षवर्धन के बाद उनके साम्राज्य का पतन हो गया था। भारत देश अधिकाधिक विघटित होने लगा। राजाओं में आपसी द्वेष के कारण युद्ध की स्थिति बन पड़ी थी। राष्ट्रीयता और देशभक्ति का क्षेत्र सीमित था। इस काल की धार्मिक स्थिति ठीक नहीं थी। धर्म के नाम पर समाज में अनाचार और आडम्बर का बोल-बाला था। वैदिक और पौराणिक धर्म हासोन्मुख थे। बौद्ध और जैन धर्म तंत्रों और सिद्धियों  के जाल में उलझ गये थे। उनकी अनेकशाखाएँ और प्रशाखाएँ हो गई थी। उससमयसमाज में सिद्ध, नाथ, जैन, शैव, शाक्त, वैष्णव और स्मार्त आदि अनेक धार्मिक सम्प्रदाय प्रचलित थे। राजनैतिक और धार्मिक दुर्दशा के कारण उस काल का सामाजिक जीवन उन्नत नहीं हो पा रहा था | राजनीति पर इस्लाम का आधिपत्य हो चला था। इन परिस्थितियों में भी देश में साहित्य सृजन हुआ था । दर्शन, ज्योतिष, कर्मकाण्ड आदि विषयों पर नवीन ग्रंथ लिखे गए। श्री हर्ष, राजाभोज, जयदेव, कुन्तक, क्षमेंद्र महिमभट्ट जैसे विद्वानों ने ग्रंथों की रचनाएँ की थीं किंतु हिन्दी साहित्य ने इनसे विशेष प्रभाव ग्रहण नहीं किया। साहित्य में धार्मिकता और  वीरता की भावना प्रधान रही। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा कि “इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रचुरता है,अतः जैन साहित्य को धार्मिकता मानकर साहित्य कक्ष से बहिष्कृत करना पड़ेगा।”

जहाँ तक वीरगाथा काल के काव्य की प्रवृत्तियों का प्रश्न है, वे उस समय के चारणों और भाटों द्वारा रचित काव्य के आधार पर स्पष्ट की जा सकती हैं। इसकाव्य के काव्यग्रंथ प्राय: ‘रासो’ कहलाते हैं । रासो काव्य, प्रबंध और मुक्तक काव्य के रूप में लिखे गये। पृथ्वीराज रासो और बीसलदेव रासो प्रबन्ध काव्य हैं । खुमान रासो, परमाल रासो, हम्मीर रासो आदि के साथ भी ‘रासो’ शब्द जुड़ा है।

वीरगाथा काल के काव्य में मुख्यतया उस समय के राजाओं, सामन्तों आदि से सम्बंधित वर्णन किया गया। इस काव्य में जन-जीवन प्राय: अछूता रहा। इन काव्यों में दरबारी कवियों द्वारा अपने-अपने आश्रयदाता के मनोरंजन के लिए उसकी वीरता आदि की अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा करने के लिए रचनाये की जाती थीं। इस आधार पर यह काव्य ‘स्वामिन: सुखाय’ काव्य है।

बरस लै कूकर जीये, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरस अठारह छत्री जीये, आगे जीवन को धिक्कार।।

यह काव्य सामन्ती जीवन का चित्रण करता है। कवियों का ध्यान राजदरबारों तथा युद्धों तक ही सीमित रहा। देशद्रोही कहे जाने वाले जयचन्द जैसे राजाओ की प्रशंसा में भी उनके आश्रय में रहने वाले कवियों ने प्रशंसापरक काव्यों की रचना की।

इस काल की रचनाओं में प्रकृति का भी चित्रण है । इनमें प्रकृति के आलम्बन और उद्दीपन दोनों ही रूप मिलते हैं । इन काव्यों में जिन युद्धों का वर्णन है उनमें काव्य के रचयिताओं ने प्राय: भाग भी लिया था, इसी कारण उनका युद्ध वर्णन इतना सजीव बन पड़ा है मानो वह युद्ध पाठक के सामने ही हो रहा है। युद्धों के मूल में प्राय: नारी रही है। “जिहि की बिटिया सुन्दर देखी, तेहि घर जाहि धरे हथियार” यह उक्ति इस काल के लिए पूर्णत: चरितार्थ रही है। वैसे भी यह काल युद्धों का काल रहा था । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि “लड़ने वाली जातियों के लिए सचमुच चैन से रहना असंभव हो गया था, क्योंकि उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम सब ओर से आक्रमण की संभावना थी।”

इस काल का काव्य “पिंगल” भाषा में रचित है। उस समय साहित्यिक राजस्थानी भाषा का नाम “डिंगल”था। यह भाषा वीर रस के वर्णन के लिए बहुत ही उपयुक्त रही है। इसके अतिरिक्त इस काल की रचनाओं में पिंगल नाम से ब्रज, अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।

काव्य में छन्दों की विविधता के दर्शन होते हैं । छन्दों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। इस काल के काव्य में दोहा, तोमर, तारंक, तोरक, गाहा या गाथा, आर्या, रोला, कुण्डलियाँ, उल्लाला, पद्धति आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है | छंदों के प्रयोग के सम्बंध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि “रासो के छन्द जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन्न उत्पन्न करते हैं।”

वीरगाथा काल में कई प्रसिद्ध कवि हुए और उनकी रचनाएँ पर्याप्त प्रसिद्ध हुईं। इस काल के प्रमुख कवियों में चन्दवरदाई, दलपतिविजय, नरपतिनाल्ह, जगनिक, श्रीधर, कवि नल्लसिंह का नाम लिया जाता है। इनके अतिरिक्त अमीर खुसरो, शालिभद्रसूरी, कवि आसगु, स्वयंभू, विद्यापति, रामसिंह, कवि धनपाल, अब्दुर्रहमान आदि कवि भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इस काल की मुख्य काव्य कृतियों में पृथ्वीराज रासो, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो, हम्मीर रासो, रणमल्ल छन्द, विजयपाल रासो विद्यापति की पदावली, कीर्तिलता, कीर्तिपताका, संदेश रासक, पडम चरिउ, परमात्मा प्रकाश और बौद्धगान आदि प्रमुख है |

आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/आदिकाल की विशेषताएं

ऐतिहासिक काव्यों की प्रधानता :

ऐतिहासिक व्यक्तियों के आधार पर चरित काव्य लिखने का चलन हो गया था। जैसे – पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो, कीर्तिलता आदि । यद्यपि इनमें प्रामाणिकता का अभाव है लौकिक रस की रचनाएँ : लौकिक-रस से सजी-संवरी रचनाएँ लिखने की प्रवृत्ति रही ; जैसे – संदेश-रासक, विद्यापति पदावली, कीर्तिपताका आदि।

उपदेशात्मक साहित्य : बौद्ध ,जैन, सिद्ध और नाथ साहित्य में उपदेशात्मकता की प्रवृत्ति है, इनके साहित्य में रुक्षता है । हठयोग के प्रचार वाली रचनाएँ लिखने की प्रवृत्ति इनमें अधिक रही।

उच्च कोटि का धार्मिक साहित्य : बहुत सी धार्मिक रचनाओं में उच्चकोटि के साहित्य के दर्शन होते हैं ; जैसे – परमात्म प्रकाश, भविसयत्त-कहा, पउम चरिउ आदि ।

फुटकर साहित्य : अमीर खुसरो की पहेलियाँ, मुकरी और दो सखुन जैसी फुटकर (विविध) रचनाएँ भी इस काल में रची जा रही थी।

युद्धों का यथार्थ चित्रण :

वीरगाथात्मक साहित्य में युद्धों का सजीव और ह्रदयग्राही चित्रण हुआ है । कर्कश और ओजपूर्ण पदावली शस्त्रों की झंकार सुना देती है ।यह सर्वमान्य है कि इस काल में वीर रस प्रधान रचनाएं अधिक हुई है। इसलिए इस काल को वीरगाथा काल कहा गया। लेखक राजा के आश्रित थे , अतः लेखकों को ना चाहते हुए भी राजा की वीरता अथवा उसकी महानता और उसके भुजबल का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना पड़ता था। जिससे राजा प्रसन्न होकर रचनाकारों को प्रोत्साहन देता था जिससे उनकी जीविका चलती थी। सभी रासो ग्रंथ वीर रसात्मक ग्रंथ है। वीर रस के प्रधानों का कारण यह है कि उस समय युद्ध के बादल चारों ओर मंडरा रहे थे, अर्थात विदेशी आक्रमण निरंतर हुआ करते थे और साम्राज्य के विस्तार के लिए राजा एक दूसरे के प्रति निरंतर युद्ध किया करते थे। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। राजा एक दूसरे पर आक्रमण किया करते थे उससे राज्य विस्तार व उनकी सुंदर कन्या व सभी रानियां छीनना चाहते थे।

आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा-

उनके युद्ध, विवाह आदि का विस्तृत वर्णन हुआ है, लेकिन राष्ट्रीयता का अभाव रहा उनके विवाह एवं प्रेम प्रसंगों की कल्पना तथा विलास-प्रदर्शन में श्रृंगार का श्रेष्ठ वर्णन और उन्हें वीर रस के आलंबन-रूप में ग्रहण करना इस युग की विशेषता थी । स्पष्टतः वीर रस और श्रृंगार का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है ।चरित नायकों की वीर-गाथाओं का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन करने में ऐतिहासिकता नगण्य और कल्पना का आधिक्य दिखाई देता है।

राष्ट्रीय एकता का अभाव :

आदिकाल में राष्ट्रीयता का अभाव था। और यह संपूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं रता था। उस काल में प्रजा अपने राजा के अधिकार क्षेत्र को ही देश मानते थे, और उसके प्रति अपनी पूरी आस्था और निष्ठा रखते थे। पड़ोसी राज्य को वह शत्रु राष्ट्र समझते थे। जिसके कारण बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयता का अभाव देखने को मिला।उस काल में छोटे – छोटे राज्यों में भारतवर्ष विभक्त था और राष्ट्रीयता की भावना पूर्णता अभावग्रस्त स्थिति में थी।

प्रबंध (महा काव्य और खंडकावय) एवं मुक्तक दोनों प्रकार का काव्य लिखा गया । खुमान रासो, पृथ्वीराज रासो प्रबंध काव्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं । बीसलदेव रासो मुक्तक काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है ।

भाषा और प्रबंध काव्य लेखन ( डिंगल , पिंगल भाषा)

हिंदी भाषा का विकास भले ही आदिकाल से ना हुआ हो परंतु उसका विकास आरंभिक काल में ही प्रारंभ हो गया था।

डिंगल भाषा में भले ही अपभ्रंश की झलक मिलती है। मगर मैथिली में विद्यापति ने जो रस बरसाए बरसाए आया है वह स्मरणीय है।

इन ग्रंथों में डिंगल और पिंगल मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ है। मैथिली , ब्रिज और खड़ी बोली में केवल मुक्तक काव्य ही थे। किंतु डिंगल के छोटे बड़े अनेक प्रबंध काव्य की रचना होते देखा जा सकता है। जैसे – पृथ्वीराज रासो परमाल रासो आदि।

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