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कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ / कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें (Krishan Kavay Ki Pravritiitiyan / Krishan Kavay Ki Visheshatayen) 

कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ / कृष्ण काव्य की विशेषताएँ (Krishan Kavay Ki Pravritiitiyan / Krishan Kavay Ki Visheshatayen) 

कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-

कृष्ण काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ – हिन्दी साहित्य में कृष्ण काव्यधारा का अपना विशिष्ट स्थान है। इस काव्यधारा केसाहित्य में आनन्द और उल्लास का अनोखा रूप देखने को मिलता है। इस काव्यधारा की भावात्मक और कलात्मक विशेषताएँ संक्षेप में इस प्रकार विवेचित की जा सकती हैं।

1. कृष्ण लीलाओं का निरूपण-

कृष्ण काव्यधारा की यह प्रधान विशेषता है कि इसमें श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का गान किया गया है। कृष्ण भक्त कवियों ने विशेष रूप से अपने उपास्य देव की बाल क्रीड़ा और किशोर जीवन की लीलाओं का निरूपण किया है। इन लीलाओं में रासलीला, दानलीला, मानलीला, भावनलीला, वंशीवादन, गौए चराना, चीरहरण प्रमुख हैं। कृष्ण की विविध लीलाओं के निरूपण का उद्देश्य अखंड आनन्द और जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यक्ति करना है।

2.सख्यभाव की भक्ति-

इस धारा की यह भी एक विशेष प्रवृत्ति है कि इसकी भक्ति में सख्य एवं कान्ता भाव की प्रधानता है। सख्य भाव की प्रधानता के कारण ही इस धारा के भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण को अपना मित्र माना है तथा इसी भाव से उसकी उपासना की है। एक मित्र कीतरह कृष्ण भक्त कवियों ने उन्हें विविध प्रकार के उपालम्भ दिये हैं। इसके साथ ही इस काव्यधारा के काव्य में दास्य भाव की भक्ति तथा नवधा भक्ति के दर्शन भी होते हैं।

3. शृंगार और वात्सल्य रस की प्रधानता-

इस काव्यधारा में श्रृंगार और वात्सल्य रस की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का निरूपण किया गया है, परन्तु वियोग या विप्रलम्भ शृंगार में अधिक सजीवता, स्वाभाविकता, मधुरता और मार्मिकता के दर्शन होते हैं।

वात्सल्य रस के निरूपण में भक्त कवि अद्वितीय हैं। इन कवियों नेवात्सल्य को भी शृंगार की भाँति वियोगवात्सल्या संयोग वात्सल्य दो रूपों में प्रस्तुत किया है।

4. विषयवस्तु में मौलिकता-

कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने अपने काव्य में कृष्ण सम्बन्धी जिस वस्तु को प्रस्तुत किया है उसमें मौलिकता का परिचय दिया है। मध्यकाल में कृष्ण कथा का आधार भागवत है, परन्तु कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने इसे उसी रूप में नहीं अपनाया जिस रूप में भागवत में है। इस धारा के कवियों ने कृष्ण की कथा में पर्याप्त मौलिकता का परिचय दिया है। जैसे भागवत के कृष्ण निर्लिप्त हैं, परन्तु हिन्दी कवियों के कृष्ण आसक्त तथा लौकिकता का विशेष भाव लिये हुए हैं।

5. त्यागभावना-

कृष्ण काव्यधारा के कवियों की एक विशेषता यह भी है कि उन्हें कोई सांसारिक लोभ-लालच नहीं था। वे लोक में मान तथा धन के इच्छुक नहीं थे। उनको कृष्ण का गुणगान ही विशेष प्रिय था। उन्होंने किसी भी राजा के दरबार में जाकर अपनी कविताका मान नहीं किया और न किसी राजा का अपनी कविता में वर्णन नही किया।

6. भ्रमरगीत का वर्णन-

कृष्ण काव्यधारा के प्राय: सभी कवियों ने अपने भाव प्रकट करने के लिए भ्रमरगीत गाये। इस प्रकार के गीतों का प्रसंग विरह वर्णन शीर्षक से अधिक हुआ है विरह दग्धा गोपियाँ उद्धव को खरी-खोटी सुनाने के उद्देश्य से एक भौरे को सम्बोधित कर अपने मन के भाव प्रकट कर देती हैं। इस प्रकार गोपियाँ भ्रमर का आश्रय लेकर उद्धव एवं श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा कहकर अपने मन की बातें कह डालती हैं। हिंदी में यह परम्परा ‘भ्रमरगीत’ के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण भक्त कवियों ने इसका बड़ी तन्मयता एवं कुशलता से वर्णन किया है

7. लोक जीवन की अवहेलना-

कृष्ण काव्यधारा के अंतर्गत लोकजीवन की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है। इसका कारण यह रहा है कि इस काव्यधारा के कवि आराध्य देव की विविध लीलाओं के निरूपण में संलग्न रहे, उन्हें जनजीवन की और उन्मुख होने का अवसर ही प्राप्त नहीं ही सका|

8. चरित्रांकन-

कृष्ण काव्यधारा के अन्तर्गत चरिचांकन की विविधता राम काव्यधारा कीतरह प्राप्त नहीं होती है। कृष्ण काव्य में राधा, कृष्ण, गोपी तथा उनके विविध चित्रों का चरित्रांकन किया है। कृष्ण काव्य के इन सभी पात्रों के चित्रण की विशेषता है-प्रतीकात्मकता। राधा माधुर्य भाव की भक्ति का प्रतीक है, श्रीकृष्ण परमात्मा है और गोपियाँजीवात्माएं । वे निरन्तर प्रेम से ‘व्याकुल होकर परम आनन्दधाम कृष्ण में लीन होने के लिए व्याकुल रहती हैं।

9.प्रकृति चित्रण-

इस काव्यधारा के कवियों ने अपने काल में प्रकृति का उद्दीपन और आलंकारिक रूप में विशेष चित्रण किया है। उद्दीपन रूप में इन्होंने यमुना की तरंगों, वन, उपवन आदि का अपूर्व वर्णन किया है।

10 दार्शनिकता-

कृष्ण काव्यधारा के अंतर्गत दार्शनिकता की प्रवृत्ति के भी दर्शन हो जाते हैं । यह काव्यधारा मुख्य रूप से पुष्टिमार्ग तथा राधावल्लभ संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्तों से प्रभावित है। श्रीकृष्ण ब्रह्म हैं, वे नित्य हैं, वे अपनी आनन्ददायिनी शक्ति राधा के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करतेहुए पुष्टि जीव गोपियों को बंधन से मुक्त करके सुख की अनुभूति करते हैं । गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में सिक्त होकर निर्वाण की आकांक्षा नहीं करती हैं।

11. अलौकिक प्रेम-

इस काव्यधारा में प्रेम का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। कृष्ण भक्त कवियों का प्रेम रीतिकालीन कवियों की तरह सांसारिक या लौकिक नहीं है। उसमें कलुषता, अश्लीलता और निम्नता के स्थान पर पवित्रता, उच्चता और अलौकिकता के दर्शन होते हैं। सका।

12.भगवान के सगुण रूप की प्रधानता-

कृष्ण काव्यधारा के कवियों ने भगवान के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को माना, परन्तु भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने निर्गुण परापरा का खंडन किया है, क्योंकि वह मन, वाणी और कर्म से अगम्य है।

13. काव्य शिल्प-

कृष्ण काव्यधारा की काव्य शिल्प विषयक विशेषताएँ भी भावात्मक विशेषताओं से कम नहीं हैं। इस धारा की एक विशेषता यह है कि इसके कवियों ने अपनी भावनाओं को मुक्तक काव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। इस धारा के कवियों ने प्रमुख रूप से तो अपने साहित्य में पद छंद का प्रयोग किया है, परन्तु इसके अतिरिक्त चौपाई, दोहा, रोला, सोरठा, सबैया, छप्पय, कुण्डलिया, गीतिका, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग भी दृष्टिगत होता है। इन कवियों ने अपने साहित्य में अलंकारों का प्रयोग बड़े स्वाभाविक और सजीव रूप में किया है।

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