कवि-लेखक

महाकवि भूषण जीवन परिचय (Kavi Bhushan)

महाकवि भूषण  (Kavi Bhushan)

महाकवि भूषण जीवन परिचय

महाकवि भूषण जीवन परिचय

जीवन-परिचय

हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में महाकवि भूषण का स्थान बिशिष्ट एवं महत्वपूर्ण है। इन्होंने रीतिकालीन श्रृंगारिक प्रवृतियों के बरक्स अपने काव्य में शौर्य एवं पौरुष का गान किया है। दरबारी संस्कृति से जुड़े रीतिकालीन कवियों की प्रवृति श्रृंगार वर्णन में सर्वाधिक रमी है जिसके अंतर्गत काव्य में नायक-नायिका भेद, रति-रंग, नारी का रूप-सौन्दर्य, नख-शिख, बारहमासा आदि का वर्णन देखने को मिलता है। भूषण ने अपने समय के इस काव्य प्रवृति के बरक्स वीर रस की कविता की है। इनकी दृष्टि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित है; जहाँ एक अत्याचारी एवं क्रूर शाषक से समस्त भारतीय जनता त्रस्त है। अत: दिल्ली के शाषक औरंगजेब के विरुद्ध भूषण शिवाजी जैसे वीर नायक का चरित-गान करते हैं तथा उसे हिन्दू जाति का अपराजेय योद्धा बताते हैं। लोकनायक और राष्ट्रीयता का भाव तत्कालीन युग की आवश्यकता थी। भूषण ने छत्रपति शिवाजी और छत्रसाल बुंदेला का यशोगान करके इसी कार्य को पूरा किया। इसके अतिरिक्त रीतिकालीन परिवेश में अपनी रचना के माध्यम हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल में प्रचलित वीर रसात्मक प्रशस्ति काव्यों की परंपरा को भी पुन: पल्लवित करने का श्रेय भी भूषण को ही जाता है।

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

भूषण का जन्म कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील में त्रिविक्रमपुर गाँव (तिकबाँपुर) में हुआ था। साक्ष्यों के आधार पर इनका समय 1640 से 1735 ई. तक निर्धारित किया जा सकता है। भूषण ही इनका वास्तविक नाम है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें ‘कविभूषण’ की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्द हो गए। इनका असल नाम क्या था, इसका पता नहीं”1 श्री नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने ‘शिवराज भूषण’ में आये कविवंश परिचय के आधार पर भूषण का मूल नाम ‘कन्नोज’ बताया है – ‘द्विज कनोज कुल कस्यपी’ इसी प्रकार से श्री भागीरथप्रसाद दीक्षित ने भूषण का वास्तविक नाम ‘मनिराम’, पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘घनस्याम’ तथा डॉ. किशोरीलाल गुप्त ने ‘ब्रजभूषण’ बताया है। भूषण का वास्तविक नाम चाहे जो भी हो, किन्तु लोक में वे इसी नाम से जाने जाते थे –

“देसनि देसनि तें गुनी, आवत जाँचत ताहि।
तिन आयो एक कवि, भूषण कहिए जाहि।।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम को भूषण का भाई माना है। भूषण कश्यप गोत्रीय, कान्यकुब्ज, त्रिपाठी ब्राह्मण थे और उनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। रत्नाकर त्रिपाठी के चार पुत्र थे – चिंतामणि, भूषण, मतिराम और जटाशंकर। चिंतामणि और मतिराम रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि थे।

भूषण कई राजाओं के यहाँ रहे हैं। आश्रयदाता की खोज के संबंध में यह किंवदंतति प्रसिद्ध है कि विवाहित होने पर भी भूषण केवल घर में बैठे-बैठ खाया करते थे तथा उनके बड़े भाई चिंतामणि शाहजहाँ के दरबार से आर्थार्जन कर पूरे परिवार का पालन- पोषण करते थे। एक दिन खाने में नमक कम होने पर भूषण ने अपनी भाभी से नमक माँगा। इस पर भाभी ने ताना मारते हुए कहा कि तुमने जो ढेर सारा नमक कमा कर रखा है, वो लाए देती हूँ। भूषण को यह बात लग गई और वे नमक (अर्थ) की खोज में निकल पड़े। आश्रयदाता की खोज में

सबसे पहले चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रशाह के दरबार में गए और वहाँ से ‘कविभूषण’ की उपाधि पाने के पश्चात् आगरा होते हुए शिवाजी के दरबार में पहुँचे। श्री हरदयाल सिंह ने लिखा है कि “शिवाजी द्वारा सम्मानित होने पर यहीं से उन्होंने नमक के बदले एक लाख रुपये भाभी के पास भेजे थे।”

मिश्र बंधुओं ने शिवाजी के अतिरिक्त भूषण के बारह आश्रयदाताओं के नाम गिनाए हैं – “1) हृदयराम सुत रुह सुरकी महोबा निवासी (सन् 1666 ई.), 2) कुमाऊँ नरेश ज्ञानचंद (सन् 1700-1708 ई.), 3) गढ़वाल नरेश फतहशाह (सन् 1684-1716 ई.), 4) छत्रपति साहूजी भोंसला (सन् 1708-1748 ई.).5) बाजीराव पेशवा (सन् 1713 1735 ई.), 6) महाराज अवधूत सिंह (सन् 1700-1755 ई.), 7) सवाई जयसिंह जयपुर नरेश (सन् 1708-1743 ई.), 8) चिंतामणि उर्फ चिमनाजी (1671-1732 ई.),10. रावबुद्ध सिंह हाडा बूंदीनरेश (सन् 1707-1748 ई.), 11. दाराशाह (सन् 1653 ई. तक), 12. भगवंतराय बीची असोथर नरेश (सन् 1683-1735 ई.)”

उपर्युक्त सारे आश्रयदाताओं के नाम भूषण के छंदों में प्राप्त विवरण के आधार पर दिए गए हैं, किन्तु इनसे संबंधित अधिकाँश छंद प्रसंगवश आए हैं। इन सभी को भूषण का आश्रयदाता मानना ठीक नहीं है। अत: भूषण के प्रमुख आश्रयदाताओं में तीन नाम प्रमुख हैं – छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल बुन्देला और छत्रपति साहू महाराज।

भूषण वीररस के कवि थे, किन्तु सर्वप्रथम 1666 ई. में ‘कविभूषण’ की उपाधि उन्हें श्रृंगारपरक छंदों के आधार पर मिली थी। अत: प्रवृति के अनुकूल न पाकर श्रेष्ठ आश्रयदाता की खोज में वे अपने भाई चिंतामणि के पास आ पहुँचे। औरंगजेब के पचासवी वर्षगाँठ के अवसर पर ही भूषण ने 12 मई सन् 1666 को सर्वप्रथम छत्रपति शिवाजी को मुग़ल दरबार में प्रत्यक्ष देखा था। वहाँ घटित प्रसंगों से प्रभावित होकर भूषण छत्रपति शिवाजी के पीछे रायगढ़ चले गए। रायगढ़ में शिवाजी एवं भूषण की भेंट हुई, जहाँ पर उन्होंने शिवाजी को निम्नलिखित छंद सुनाया था –

“इंद्रा जिमि जम्म पर, वादव सुलभ पर,
रावण संदभ पर, रघुकुलराज है।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यौं सहस्रबाहु पर राम द्विजराह है
दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर, जैसे मृगराज है।
तेज ताम अंस पर, कान्हा जिमि कंस पर
त्यों म्लेच्छ वंस पर सेर सिवराज है।”

इसके बाद भूषण शिवाजी के दरबारी कवि हो गए। भूषण शिवाजी के साथ दरबार में ही नहीं, युद्धक्षेत्र में भी रहते थे। सन् 1670 ई. में भूषण ने पेड़गाँव के पास बहादुर खां को शिवाजी से हारते हुए और सन् 1672 ई. में सलहेरी के युद्ध में महावत खां को शिवाजी से हारकर संधि करते हुए अपनी आँखों से देखा था – ‘भूषण देखे बहादुरखां पुनि होय महावतयां अति ऊबा। भूषण हिन्दू जाति के प्रति एक संवेदनशील, स्पष्टवादी, निर्भीक एवं स्वामिभक्त कवि थे। औरंगजेब के धार्मिक अत्याचार, एवं हिन्दू जनता की दुर्गति को देखकर उनका मन विद्रोह कर उठा था। इसी कारण वे एक श्रेष्ठ एवं आदर्श लोकनायक की खोज में आगरा से रायगढ़ गए और शिवाजी के आश्रय में रहकर उनके गौरवयुक्त चरित्र को अमरता प्रदान की।

क्या आप जानते हैं?

भूषण ने काव्य रचना के माध्यम से अपने युग में विलासिता का जीवन व्यतीत करने वाले हिन्दू राजाओं को भी सचेत किया है। वे एक स्वाभिमानी एवं राष्ट्रप्रेमी कवि थे। अपनी रचना में छत्रपति शिवाजी और छत्रसाल बुन्देला को आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर उन्होंने देशप्रेम, स्वतंत्रता एवं जातीय गौरव का सन्देश दिया है। कुछ लोगों ने भूषण पर मुसलमान विरोधी या इस्लाम विरोधी होने का भी आरोप लगाया है, जो कि पूरी तरह से निराधार है। भूषण ने कहीं भी कुरान, मस्जिद, पैगम्बर या इस्लाम धर्म के विरुद्ध कुछ नहीं कहा है। भूषण का आक्रोश हिन्दू जनता पर अत्याचार करने वाले शासक औरंगजेब पर था, जो उनके अनेक छंदों में देखने को मिलता है। अत: उनके निशाने पर अत्याचारी शासक एवं उसकी नीतियों रही है, न कि कोई धर्म।

भूषण अलंकारवादी आचार्य कवि थे। रीतिकाल के आचार्य कवियों ने लक्षण एवं उदाहरण की परिपाटी पर अपने ग्रन्थ की रचना की है। भूषण ने भी अलंकार के लक्षण बताते हुए उदाहरणस्वरूप शिवाजी एवं छत्रसाल के चरित्र का वर्णन किया है। आचार्य के रूप में अलंकार शास्त्र का विवेचन करते हुए किसी मौलिक सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने भले ही न किया हो, किन्तु एक कवि के रूप में उनकी प्रतिमा असंदिग्ध है। वे रीतिकाल में वीर रस के संभवत: सबसे बड़े कवि हैं। वीर रस के कवि के रूप में उन्होंने जो ख्याति अर्जित की थी, उसके आधार पर ही मिश्रबंधुओं ने उन्हें हिन्दी के नवरत्नों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

भूषण की रचनाएँ-

सर जार्ज ग्रियर्सन और ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने भूषण के चार ग्रन्थ माने हैं –

1. शिवराज भूषण,
2. भूषण हजारा,
3. भूषण उल्लास,
4. दूषण उल्लास।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन चार ग्रंथों के अतिरिक्त दो और ग्रन्थ के नाम गिनाए हैं -‘शिवबावनी’ और ‘छत्रसाल दशक’। इस प्रकार से भूषण कृत कुल छः ग्रन्थ माने जा सकते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. भागीरथ मिश्र, प. रामेश्वर शुक्ल अंचल, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त तथा डॉ. टीकम सिंह तोमर ने ‘शिवराज भूषण’, ‘शिवाबावनी’, ‘छत्रसाल दशक’ और ‘भूषण हजारा’ को ही भूषण की उपलब्ध रचनाएँ मानी है। उनके अनुसार शेष ग्रन्थ अनुपलब्ध है।

शिवराज भूषण

यह भूषण । एकमात्र उपलब्ध श्रेष्ठ रचना है। शैली की दृष्टि से यह अलंकार लक्षण ग्रन्थ है जिसमें विभिन्न अलंकारों का लक्षण दोहे में बताते हुए उदाहरण छप्पय, कवित्त, सवैया आदि छंदों में प्रस्तुत किया गया है। शिवराज भूषण का रचनाकाल भूषण ने स्वयं अपने ग्रन्थ में दिया है –

“समत सत्रह से तीस पर सूचि बड़ी तेरसि भानु।
भूषण सिवभूखन कियो, पढ़ी सकल सुज्ञान।।

इस प्रकार प्रायः सभी विद्वानों ने ‘शिवराज भूषण’ का रचनाकाल इस दोहे के आधार पर संवत 1730 माना है।

शिवराज भूषण एक लक्षण ग्रन्थ है जिसमें 100 शब्दालंकार और 5 अर्थालंकारों के लक्षणों के साथ-साथ कवित्त सवैया, छप्पय आदि छंदों में शिवाजी का चरित्र चित्रण, तत्कालीन इतिहास एवं शिवाजी संबद्ध प्रसंगों का प्रमाणिक वर्णन हुआ है।

‘शिवराज भूषण’ एक अलंकार निरूपक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के आधार पर ही डॉ. नगेन्द्र द्वारा संपादित ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास‘ में भूषण की गणना ‘अलंकार-निरूपक रीति कवि’ में की गई है। किन्तु हम देखते हैं कि इस ग्रन्थ में अलंकारों पर मौलिक ढंग से विचार नहीं हुआ है। वास्तव में भूषण ने रीति परंपरा का केवल निर्वाह ही किया है। भूषण का वास्तविक कार्य अलंकार का विवेचन करना नहीं, अपितु शिवाजी के चरित्र का गान करते हुए जनता में आत्मगौरव का भाव जगाना था। अलंकार निरूपण के संदर्भ में पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने ‘भूषण ग्रंथावली’ में कहा है कि – “शिवराज भूषण में क्रम से उदाहरण नहीं बनाए गए। कुछ
तो पहले से ही बने बनाए थे। शेष बना लिए गए। ग्रन्थ का ढाँचा खड़ा हो गया। सहारा या अध्ययानुशीलन सीधे किसी अलंकार ग्रन्थ का नहीं। इसी से भूषण के लक्षण और उदाहरण दोनों कई स्थलों पर अस्पष्ट और दोषपूर्ण हैं।” ‘शिवराज भूषण’ में भले ही अलंकार निरूपण सदोष रह गया है, किन्तु काव्य की दृष्टि से यह एक सफल रचना है। इस ग्रन्थ में छत्रपति शिवाजी के शौर्य, आतंक, युद्ध, दानशीलता, चतुराई आदि व्यक्तित्व गुणों का सजीव वर्णन हुआ है। यह एक वीर रस प्रधान ग्रन्थ है जिसमें विषय के अनुरूप ओजपूर्ण वाणी का निर्वाह सर्वत्र हुआ है।

शिवाबावनी

यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। मिश्रबंधुओं ने स्पष्ट रूप से कहा है कि – “यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं, भूषण के 52 छंदों का संग्रह मात्र है। इसका नामकरण एवं संकलन बंबई के श्री गोवर्धनदास लक्ष्मीदास ठक्कर ने किया है। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि – “संवत 1946 से पूर्व शिवाबावनी का अस्तित्व ही नहीं था। शिवाबावनी के 52 छंदों में भूषण ने शिवाजी के शौर्य, साहस, वैभव, युद्ध, दान, दया आदि का वर्णन किया है। इसके कतिपय छंदों में औरंगजेब को एक अत्याचारी शासक बताते हुए शिवाजी को उसकी तुलना में श्रेष्ठ बताया गया है। शत्रुओं के अत्याचार से हिंदुओं की रक्षा करने में शिवाजी की भूमिका आदि का वर्णन ओजस्वी शैली में हुआ है। शिवाबावनी की यह पंक्ति प्रसिद्ध है – “शिवाजी न होते तो सुनति होती सबकी।”

छत्रसाल दशक

यह बूंदी नरेश छत्रसाल की प्रशंसा में रचित 10 छंदों का संग्रह है। इसकी रचना कवित्त छंद में हुई है जिसमें प्रथम दो कवित्त में छत्रसाल का परिचय है तथा बाकी के आठ कवित्त में उसके पराक्रम, शौर्य एवं वीरता का सजीव वर्णन किया गया है। अत: इन छन्दों में वीर एवं रौद्र रसों की व्यंजना हुई है।

स्फुट छंद

कवि भूषण के सबसे अधिक छंद पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा संपादित पुस्तक ‘भूषण ग्रंथावली’ में संगृहीत है। इसमें कुल 586 छंद हैं जिनमें 407 छंद ‘शिवराज भूषण’ के हैं। बाकी के 179 छंदों को उन्होंने प्रकीर्णक के अंतर्गत रखा है। इन 179 छंदों में से ‘शिवाबावनी’ और ‘छत्रसाल दशक’ के छंदों को भी छाट दिया जाए तो शेष छंदों की संख्या भी काफी ठहरती है। इन्हें हम स्फूट छंद मान सकते हैं। इन स्फूट छंदों में छत्रपति शिवाजी से संबंधित छंदों की संख्या ही सबसे अधिक है। उसके बाद छत्रसाल बुन्देला विषयक छंद मिलते हैं। छत्रसाल बुन्देला की बीरता का वर्णन करते हुए भूषण कहते हैं –

“बड़ी औड़ी उमड़ी नदी सी फौज छेकी,
जहाँ मेड़ बेड़ी छत्रसाल मेरु से खरे रहे।
चमति के चक्कवै मचायौ घमासान बैरी,
मलियै मसानि आनि सोहैं जे अरे रहे।
भूषन भनत भकरुंड रहेरुंडमुंड,
भबके भुसुंड तुड लोहू सों भरे रहें।
कीन्हों जसपाठ हर पठनेटे ठाट पर काठ लौं,
निहारे कोस साठ लौ डरे रहे॥”

इसके अतिरिक्त भूषण ने सत्रपति साहुजी, बाजीराव पेशवा, रीवाँ नरेश अवधूत सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह एवं उनके पुत्र रामसिंह की प्रशंसा में भी छंद कहे हैं। भूषण ने स्फूट छंदों में औरंगजेब की निदा देखने को मिलती है। वे औरंगजेब के कट्टर विरोधी थे, किंतु उनके बड़े भाई युवराज दारा के बड़े प्रशंसक थे।

रीतिकाल में श्रृंगार रस की प्रधानता रही है। परिस्थिति एवं परिवेश के अनुसार भूषण ने श्रृंगार परक छंद की रचना भी की है जिसकी संख्या 39 है। इन छंदों में बसंत वर्णन, मुग्धा नायिका के लक्षण, परकीया प्रेम आदि का वर्णन मिलता है। बसंत का वर्णन करते हुए भूषण लिखते हैं –

‘विषम बिडारिबे को बहत समीर मंद,
कोकिला की कूक कान कानन सुहाई है।
इतनो संदेसो है जू पथिक तिहारे हाथ,
कहो जाय कन्त सो बसंत रितु आई है।।

इस प्रकार से भूषण कृत स्फूट छंदों के आधार पर कहा जा सकता है कि वे मूलत: वीर रस के कवि हैं। इन छंदों में भी उन्होंने शासकों के जीवन का वर्णन किया है। रीतिकालीन अन्य कवि जहाँ अपने राजाओं या आश्रयदाताओं की विलासिता का वर्णन करते हुए उसके आमोद-प्रमोद की वस्तु के रूप में काव्य रचना करते थे, वहीं भूषण की रचना में राजाओं का संघर्ष दिखाई पड़ता है। यह संघर्ष केवल अपने लिए नहीं है, बल्कि पूरी हिन्दू जाति के लिए है। युद्ध एवं वीरता का वर्णन करते हुए भूषण अपने समय में पीछे छूट रहे वीर रस की कविता द्वारा साहित्य को समृद्ध करते हैं। इनके काव्य में ज्यादातर प्रसंग इतिहास सम्मत हैं। इन प्रसंगों में वीरता का भाव तो है ही, साथ में जनभावना की भी अभियक्ति हुई है। अत: कह सकते हैं कि भूषण ने अपने काव्य के माध्यम से शिवाजी और छत्रसाल जैसे वीर नायकों का चरितगान करते हुए हिन्दू समाज को अपनी गौरवशाली परंपरा से परिचित कराने महत्वपूर्ण कार्य किया है।

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