संगति ही गुण ऊपज, संगति ही गुणजाइ अथवा (सत्संगति)
प्रस्तावना- सत् + संगति के मेल से सत्संगति शब्द बना है, जिसका अर्थ है ‘अच्छे एवं सच्चे मनुष्यों की संगति’ । व्यक्ति जैसी संगति में बैठता है, जैसे लोगों से मित्रता करता है, वह भी वैसा ही बन जाता है। अच्छे व्यक्ति की संगति पारस मणि की भाँति होती है, जिसको छूने मात्र से व्यक्ति का भला हो जाता है। वही गलत व्यक्ति की संगति में रहकर व्यक्ति गलत बाते ही सीखता है, गलत व्यवहार करना ही सीखता है। सत्संगति यदि कल्याणकारी होती है तो कुसंगति विनाश के द्वार खोलती है।
सत्संगति का महत्त्व- सत्संगति का महत्त्व मनुष्य के जीवन में अवर्णनीय है। सत्संगति से मानव मात्र का ही नहीं, अपितु जाति, समाज तथा राष्ट्र का भी भला होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने सत्संगति की महिमा बहुत सुन्दर शब्दों में चित्रित की है-
“सुजन समाज सकल मुन खानी। करऊँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस विसद् गुणमय फल जासू॥
मुद मंगलमय संत समाज। जो जग जंगम तीरथ राजू।
सुनि आचरज करै जनि कोई। सत्संगति महिमा नहिं गोई॥”
वास्तव में सत्संगति साधुओं की संगति होती है, जो सब प्रकार से प्रार्थनीय है। संगति में वह ताकत होती है जो अवगुणों को भी सदगुणों में बदल देती है। जिस प्रकार तेल बेचने वाले से तेल न लेने पर भी कुछ सुगन्ध आ ही जाती है, गंगा जल के पानी में मिलकर गन्दे नाले का पानी भी पवित्र हो जाता है, काँच को भी यदि सोने के गहनों के साथ गूंथ दे तो वह भी चमक उठता है उसी प्रकार सत्संगति के प्रभाव से बुरा व्यक्ति भी महान बन सकता है।
इस सन्दर्भ में वाल्मीकि एवं डाकू खड्गसिंह का उदाहरण विचारणीय है। साधु की छोटी सी शिक्षा ने खड्गसिंह का मन बदल दिया था और घोड़ा लौटा दिया था। वाल्मीकि भी ‘मरा, मरा’ जपते-जपते महान सन्त बन गए थे।
सत्संगति के प्रभाव से शठ भी वैसे ही सुधर जाते हैं, जैसे पारस पत्थर से लोहा सोना बन जाता है-
“शठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परसि कुधातु सुहाई।”
सत्संगति मूर्खता तथा अज्ञानता का हरण करके ज्ञान का प्रकाश भर देती है। अच्छा मित्र सदैव ही अपने मित्र को अच्छा कार्य करने, परिश्रम करने तथा सत्य बोलने की शिक्षा देता है। वह सुमार्ग पर लेकर जाता है तथा पतन के रास्ते पर चल रहे मित्र को भी अपने जैसा बनाने की ताकत रखता है।
सत्संगति प्राप्त करने के उपाय- मनुष्य दो प्रकार से सत्संगति प्राप्त कर सकता है-प्रथम साधु प्रवृत्ति के लोगों की संगति में रहकर तथा दूसरी अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़कर। दोनों ही प्रकार की सत्संगति विवेक एवं सद्ज्ञान प्रदान कर सांसारिकता के अज्ञान से दूर रखती है। इसीलिए सत्संगति के विषय में यह सत्य ही कहा गया है कि यह अज्ञान से अज्ञान एवं जड़ से जड़ पदार्थों को भी ज्ञानवान तथा चैतन्य बनाती हुई अपना प्रभाव दर्शाती है। हर मनुष्य को सत्संगति के महत्त्व को अच्छी तरह समझना चाहिए। सदा अच्छे पढ़े-लिखे व्यक्तियों की संगति में रहने की कोशिश करनी चाहिए, साथ ही अच्छा साहित्य, महापुरुषों की जीवनियाँ आदि पढ़ने चाहिए। व्यक्ति जैसा देखता है, वैसा ही बनता है। सस्ते अश्लील साहित्य को पढ़कर केवल समय या धन ही नष्ट नहीं होते हैं, साथ ही इच्छाशक्ति का भी ह्रास होता है इसलिए हर व्यक्ति को अच्छी संगति में उठना बैठना चाहिए।
कुसंगति के दुष्प्रभाव- सत्संगति जितनी सुखदायी है, कुसंगति उतनी ही दुखदायी है। सत्संगति के प्रभाव से जैसे शीघ्र लाभ पहुँचता है तथा निरन्तर विकास का मार्ग दिखता है, वही दुर्जन व्यक्ति का साथ ठीक इसके विपरीत कुछ समय के लिए तो अपने आकर्षण में फँसा सकता है, किन्तु अन्त में वह विनाश की ओर ही ले जाता है। दुर्जन व्यक्ति किसी को भी लाभ नहीं पहुँचाना चाहता वरन् पढ़ता है उसका लक्ष्य सदैव दूसरों को बरवाद करना ही होता है। कुसंगति की एक और हानि यह भी है कि व्यक्ति जैसी संगति में बैठता है, लोग उसे वैसा ही समझते हैं। यदि व्यक्ति किसी अच्छे की संगति करता है, तो लोग उसे अच्छा ही मानते हैं वही किसी शराबी, जुआरी या गलत व्यक्ति की संगति में रहने वाला व्यक्ति भी वैसी ही पहचान वाला हो जाता है, चाहे वह गलत कार्य न भी करें तो भी लोग उसे गलत ही समझते हैं। कबीर दास ने ठीक ही कहा है-
“कबिरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि ।
संगति बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि।”
उपसंहार- वास्तव में सत्संगति का प्रभाव महानतम है। इससे सभी को प्रेरणा मिलती है। सत्संगति से सदा लाभ ही होते हैं, हानि कदाचित भी नहीं है। सत्संगति अद्भुत वस्तु है तथा सन्तोष धन प्राप्त करने का एकमात्र रास्ता सत्संग ही हैं। सत्य, अहिंसा तथा प्रेम सत्संगति से ही प्राप्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने सत्संगति की महिमा इन शब्दों में बताई है-
“तात् स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक संग।
तुला न ताहिं सकल मिलि, जो सुख तव सत्संग।”
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