परहित सरिस धर्म नहीं भाई अथवा परोपकार की महिमा
प्रस्तावना- प्रत्येक मनुष्य का जीवन तभी सार्थक माना जा सकता है, जब वह किसी दूसरे का परोपकार करता है। मानव जाति की सेवा को सर्वोपरि मानने का भाव, मनुष्य को ‘मानव’ कहलाने का अधिकारी बनाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी की यह चौपाई “परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम अधमाई” अर्थात् दूसरों की भलाई करने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई नीच काम नहीं है, एकदम सत्य है। महर्षिव्यास जी ने भी अपने अठारह पुराणों का सार इन दो बातों को ही बताया है-
“अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्धयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥”
अर्थात् पुण्य प्राप्ति के लिए परोपकार एवं दूसरों के कष्ट से पाप, ये ही दो कर्म हैं जिसमें पहला कर्म सुकर्म है, और दूसरा दुष्कर्म।
परहित का वास्तविक अर्थ- परहित का अर्थ है- ‘दूसरों की भलाई’। ‘परहित’ में दूसरे के हित की भावना निहित होती है तो ‘परोपकार’ में भला करने की भावना का महत्त्व होता है। अपने हित, अपने स्वार्थ तथा लाभ की चिन्ता किए बगैर दूसरों का हित करना ही सच्चे अर्थों में ‘परहित’ या ‘परोपकार’ है। परहित से उच्च कोई धर्म नहीं है। अपने हित के विषय में तो सभी सोचते हैं, किन्तु जो दूसरे के हित की सोचे, वही सच्चा मानव है, इसके विपरीत सोचना पशुता है।
परोपकार में निहित गुण- परोपकार दो प्रकार से किया जा सकता है-धन द्वारा व शरीर द्वारा। इस रूप में त्यागी का महत्त्व दानी से अधिक होता है क्योंकि धनी व्यक्ति दान करता है क्योंकि उसके पास धन की कोई कमी नहीं होती। इस दान भावना में उसका स्वार्थ भी छिपा होता है किन्तु त्यागी व्यक्ति अपने शरीर को कष्ट देकर दूसरों का हित करता है। ऐसे में उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता वरन् वह तो अपनी आत्मा से प्रेरणा पाकर दूसरों की सहायता करता है। इस प्रकार परोपकार की सच्ची सार्थकता इसी में है कि वह स्वार्थ के वशीभूत न होकर दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करे। दूसरों का कल्याण करने से उसका अपना कल्याण भी हो जाता है। जिस व्यक्ति का हृदय दूसरों के दुखों से दुखी नहीं होता, जिसके कानों में बीमार, अबलाओं, निर्धनों, बेसहारों की याचना भरी आवाज सुनाई नहीं पड़ती, जो दूसरों के कटे-फटे वस्त्र, नंगे शरीर नहीं देख पाता, जिसके हाथ-पैर दूसरों की सहायता के लिए नहीं बढ़ते, वह इन्सान नहीं, जानवर होता है, वह ‘नर नहीं पशु, मूढ़ और मृतक समान है। यदि धन है तो निर्धनों में बाँटों, यदि बल है तो अबलाओं, गरीबों की सहायता करो, यदि मन है तो अज्ञानता दूर करो यदि हृदय है तो खुले हृदय से सबकी सहायता करो। जो ‘तन, मन, धन’ से दूसरों की सहायता करता है, वही महान है। भर्तहरि ने भी लिखा है- “परोपकाराय सतां विभूतयः।”
परोपकार की उपयोगिता- निःसन्देह परोपकार की उपयोगिता अवर्णनीय है। परोपकार द्वारा ही मानवता उज्ज्वल होती है। परोपकारी मनुष्य अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य से बढ़कर परहित के कार्य करता है। वह अपने सत्कर्मों से दीन-दुखियों, घायलों, निर्धनों, अपंगों, अनाथों की सेवाओं के लिए विभिन्न विद्यालयों, औषधालयों, धर्मशालाओं, आश्रमों की स्थापना करवाता है, कुएँ, तालाब, प्याऊ आदि लगवाकर जन-सेवा करता है। ये सब कार्य करने से उसका अपना यश भी बढ़ता है, वह समाज में सम्मान पाता है, जिससे मनुष्य में आत्मविश्वास पैदा होता है। परोपकार के बिना मनुष्य के गुणों का विकास असम्भव है। परोपकारी का हृदय निर्मल होता है, सच्चा व साफ होता है, उसके हृदय किसी के लिए भी बैर-भाव नहीं होता। वह तो बस दया, क्षमा, सहनशीलता आदि गुणों की खान होता है। अतः परोपकार ही सच्ची मानवता एवं सच्चा धर्म है।
प्रकृति एवं परोपकार- परहित की भावना मनुष्य से अधिक ‘प्रकृति’ में देखने को मिलती है। हम हर दिन कितने ही पेड़ काट रहे हैं, फिर भी दूसरे वृक्ष हमें सुन्दर तथा स्वादिष्ट फल-फूल दे रहे हैं। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-
“तुलसी सन्त सुअम्ब तरन फूलि फलहिं पर हेत।
इत ते ये पाहन छनै उत ते वे फल देत।”
सूर्य, चाँद, तारे, नदी, वायु, हवा, जल, पृथ्वी अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए ही तो जीते हैं। ये सभी मानव के सच्चे साथी हैं। परहित में मग्न व्यक्ति भी दूसरों के लिए ही जीता है। जैसे- “वृच्छ कबहुँ न फल भई नदी न सँचे नीर। परमार्थ के कारनै साधुन धरा शरीर।”
गाय, भैंस, बकरी अपना दूध स्वयं नहीं पीती, सागर, नदी, तालाब अपनी प्यास स्वयं नहीं बुझाते, बादल भी पानी बरसा कर पूरी धरती के लोगों की प्यास बुझाते हैं, पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाते, फूल अपनी सुगन्ध स्वयं नहीं ग्रहण करते, तो फिर मानव में ही स्वार्थ की भावना क्यों होती है? हर मानव को प्रकृति से सीख लेते हुए दूसरों के हित के कार्य करने चाहिए।
महान परोपकारियों के उदाहरण- वैदिक काल से लेकर आज तक परहित के उदाहरणों से हमारा इतिहास परिपूर्ण है। महर्षि दधीचि, कर्ण, शिवि आदि परोपकारी कार्यों के कारण ही आज मरकर भी अमर है। महाराजा हरिचन्द्र ने तो अपना सम्पूर्ण राज्य ही दान कर दिया था। सम्राट अशोक ने कुएँ, तालाब, नहरे आदि खुदवाकर एवं सड़कों के दोनों ओर पेड़-पौधे लगवाकर जनसेवा के कार्य किए थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने तो विष देने वाले पाचक जगन्नाथ को मार्ग-व्यय के लिए धन देकर उसकी रक्षा की थी। भगवान राम ने ऋषि-मुनियों की तपस्या भंग करने वाले राक्षसों का वध किया था। महात्मा गाँधी ने तो अपना पूरा जीवन एक धोती में ही काट दिया था, लेकिन औरों को कष्ट नहीं सहने दिए थे तभी तो वे आज मरकर की ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में अनेक हृदयों में जीवित है। ‘मदर टेरेसा’ तो बिना माँ बने ही ‘मदर’ कहलाई क्योंकि उन्होंने तो सभी दीन-दुखियों की सच्ची माँ बनकर सेवा की थी, कोढ़ियों बीमारों, दीन-दुखियों के घाव और आँसू दोनों ही साफ किए थे। ईसा मसीह परहि के लिए ही हँसते-हँसते सूली पर चढ़ गये थे। इनके अतिरिक्त और भी न जाने कितने महान पुरुषों ने दूसरों के हित के लिए ही अपने प्राण गँवा दिए थे।
राष्ट्रकवि ‘मैथिलीशरण गुप्त जी’ ने इन परोपकारी महापुरुषों के महान कार्यों को प्रकाशित करते हुए समस्त मानव जाति को परोपकार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा इस प्रकार दी है-
“क्षुधार्थ रंतिदव दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि जाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्यों डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।”
उपसंहार- परोपकार की महिमा वास्तव में अपरम्पार है। जो दूसरों का भला करता है, ईश्वर उसका भला करते हैं। परोपकार की भावना से मानव की आत्मा का विस्तार होता है तथा धीरे-धीरे उसमें विश्व-बन्धुत्व की भावना जागृत होती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा के विकास के लिए परोपकारी कार्य करने चाहिए। सम्पन्न राष्ट्रों को निर्धन राष्ट्रों की मदद करनी चाहिए, धनवान व्यक्ति को निर्धन व्यक्ति की तन, मन, धन से सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा होगा तो कोई भी मजबूर नहीं रहेगा। वैसे भी भारतीय संस्कृति में तो आदिकाल से ही विश्व-कल्याण की भावना का विशेष महत्त्व रहा है।
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