जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूलि समान
प्रस्तावना- मानव एक सम्वेदनशील प्राणी है जिसकी अनगिनत इच्छाएँ सदा जागृत रहती है। वह सदैव अपनी इच्छापूर्ति में व्यस्त रहता है मगर इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होती क्योंकि इच्छाएँ अन्तहीन हैं। ये अनवरत तथा अनगिनत इच्छाएँ ही मनुष्य के सभी दुखों का कारण है। महात्मा बुद्ध ने भी सत्य ही कहा था, “इच्छाएँ सभी दुखों का कारण है तथा सच्चा सुख पाने के लिए इच्छाओं का दमन आवश्यक है।” इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने जीवन को सुखमय, शान्तिमय एवं खुशहाल बनाने के लिए ‘सन्तोष धन’ का विशेष महत्त्व बताया है।
सन्तोष’ का वास्तविक अर्थ- महोपनिषद् में ‘सन्तोष’ को इस रूप में परिभाषित किया गया है-‘अप्राप्य वस्तु के लिए चिन्ता न करना, प्राप्त वस्तु के लिए सम रहना सन्तोष है।” सन्तोष मनुष्य की वह अवस्था है जिसमें वह अपनी वर्तमान अवस्था से तृप्त रहता है, भूतकाल में न प्राप्त की गई वस्तु के बारे में सोचकर पछताता नहीं है, तथा भविष्य के लिए अधिक इच्छाएँ नहीं रखता है, जितना है, सब ईश्वर प्रदत्त है। ईश्वर सभी को उसकी सामर्थ्य के अनुसार देते हैं इसलिए जितना मिले, उसे पाकर ही खुश हो जाना ‘सन्तोष’ कहलाता है। इससे यह अर्थ कदापि नहीं निकालना चाहिए कि हम बेकार हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे। हर मनुष्य को प्रयत्न अवश्य करना चाहिए, किन्तु परिणाम अनुकूल न होने पर भी उद्विग्न होते हुए प्रयत्नशील बने रहना चाहिए। एक प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक ने ठीक ही कहा है- “जो घटित होता है, मैं उससे सन्तुष्ट हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि परमात्मा का चयन मेरे चयन से उत्तम ।”
सन्तोष की महत्ता- ‘सन्तोष’ को ‘सन्तोष धन’ कहने के पीछे इसकी महत्ताएँ हैं। सन्तोष धन को सबसे बड़ा धन इसीलिए कहा गया है कि यह धन हर किसी के पास हो सकता है चाहे गरीब हो या अमीर हो, इसके लिए उसमें दृढ़ इच्छाशक्ति होना आवश्यक है। ‘सन्तोष’ जीवन में सुख-शान्ति का मूलमन्त्र है। सन्तोष से मानव मन में कुंठा, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-भाव, घृणा आदि नकारात्मक विचारों के लिए कोई स्थान नहीं रहता। सन्तोष तो वह संजीवनी बूटी है जिसके स्पर्श मात्र से मानव मन स्वस्थ व प्रफुल्लित हो जाता है। प्रसिद्ध विद्वान ‘कार्लायन’ के अनुसार, “अपने पारिश्रामिक के दावों को शून्य कर दो, तब संसार तुम्हारे चरणों में होगा।” इस तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए महात्मा कबीर ने लिखा है-
“चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा वेपरवाह।
जिसको कुछ न चाहिए, सोई सहंसाह।”
सन्तोषी व्यक्ति तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर सहयोग, भ्रातृत्व एवं राष्ट्र-प्रेम जैसे सद्गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। इसी भावना के वशीभूत होकर गुरु नानक जी ने कहा था-
“फिरत करो अते दण्ड के छक्को।”
इसका तात्पर्य यह है कि कर्म करो तथा बाँटकर खाओ। अक्सर यह देखा गया है कि बड़े-बड़े धनवान तथा सुख-सुविधाओं से सम्पन्न व्यक्ति से कहीं अधिक प्रसन्न वह व्यक्ति रहता है, जिसके पास सन्तोष धन होता है। इसलिए यह कहना असंगत नहीं होगा कि हम जीवन में सुखप्राप्ति के सारे भौतिक साधनों को जुटा कर भी सच्चा सुख व आनन्द तब तक प्राप्त नहीं कर पाते हैं, जब तक हमारे मन में पूर्णरूप से सन्तोष की भावना न हो।
असन्तोष की हानियाँ- यदि सन्तोष सुखों की खान है, तो असन्तोष हर प्रकार के दुख, वैमनस्य एवं क्लेश का कारण है। असन्तोषी व्यक्ति, इच्छाओं का दास बनकर एक ऐसी दलदल में फँस जाता है, जहाँ से निकलना सवयं उसके वश में नहीं होता क्योंकि इच्छाएँ अन्तहीन है। असन्तोषी मनुष्य को अतृप्त भावनाएँ लकड़ी में लगी दीमक की भाँति भीतर ही भीतर खोखला करती रहती है। असन्तोष बुराईयों का जनक है तो शारीरिक व मानसिक कष्टों की खान है। कवि भर्तृहरि ने कहा था-
“अंगं गलितं पलित मुण्डम्
दशन विहीनं जातम् तुण्डम् ।
कायां प्रगटति करभ विलासम्,
तदापि न मुंचति आशा पिण्डम्।”
अर्थात् अंग गल जाने पर, सिर के बाल सफेद हो जाने पर, मुख दाँत विहीन हो जाने पर, शरीर हाथी की सूंड़ की तरह झुक जाने पर भी मनुष्य आशाओं से पिंड नहीं छुड़ा पाता है। ऐसा असन्तोषी मनुष्य सदैव अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।
वर्तमान युग में सन्तोष की आवश्यकता- आज का मानव हर तरफ से समस्याओं से घिरा हुआ है, कारण उसकी अन्तहीन इच्छाएँ हैं। आज तो छोटे-छोटे बच्चे भी आवश्यकता से अधिक महत्त्वाकांक्षी हो चुके हैं। सर्वत्र अराजकता, अतृप्ति तथा एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी है। ऐसे दुष्कर वातावरण में सन्तोष रूपी वास्तविक धन ही मानव जीवन में शान्ति ला सकता है। सन्तोषी व्यक्ति ही ये पंक्तियाँ समझ सकता है-
“रुखी सूखी खाय के, ठण्डा पानी पीव।
देख परायी चूपड़ी, मत ललचाए जीव।”
आज मानव इतना लालची हो गया है कि वह पैसे के पीछे अंधाधुंध दौड़ रहा है। एक साधारण व्यक्ति भी सारी भौतिक सुख-सुविधाएँ चाहता है, रातो रात धनवान बनना चाहता है। ऐसे में यदि सन्तोष धन पास आ जाए तो सारी समस्याएँ ही समाप्त हो जाए। कबीरदास जी ने ठीक ही कहा है-
“साँई इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना हूँ, साधु न भूखा जाय।”
उपसंहार- निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है, कि सन्तोष धन सभी प्रकार के धन से श्रेष्ठ है। इस धन में समक्ष गौ रूपीधन, घोड़ी रूपी धन, सभी हीरे जवाहरात आदि बेमानी हैं। सन्तोष धन की महत्ता कवि रहीम ने भी इस प्रकार बयान की है-
“गोधन, गजधन, बाजिधन,
और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन,
सब धन धूरि समान।”
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