शिक्षा की प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रमुख तत्वों की विवेचना कीजिए। शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, विचारों को प्रस्तुत कीजिए।
प्रयोजनवाद का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Pragmatism)
‘प्रयोजनवाद’ शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर ‘Pragmatism’ है। कुछ विद्वान ‘Pragmatism’ शब्द की उत्पत्ति यूनानी शब्द ‘ Pragma ‘ से मानते हैं, जिसका अर्थ है- ‘A thing done, Business, Effective action’ किया गया कार्य, व्यवसाय, प्रभावपूर्ण कार्य।’ लेकिन अन्य कुछ विद्वान इस शब्द की उत्पत्ति एक-दूसरे यूनानी शब्द ‘Promitikos’ से मानते हैं जिसका अर्थ है- ‘Practicable’ व्यावहारिक । इस प्रकार ‘ Pragmatism’ का अर्थ हुआ-‘Practicability’ अर्थात् ‘व्यावहारिकता’ । इस प्रकार विस्तृत रूप में प्रयोजनवाद से आशय इस सिद्धान्त से है कि सभी विचारों, मूल्यों एवं निर्णयों का सत्य उसके व्यावहारिक परिणामों में पाया जाता है। यदि उनके परिणाम सन्तोषजनक हैं- तो वे सत्य हैं, अन्यथा नहीं।
प्रयोजनवादी वस्तुत: वास्तव में मानव जीवन के वास्तविक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। इस ब्रह्माण्ड को वे बस अनेक वस्तुओं और अनेक क्रियाओं का परिणाम मानते हैं, लेकिन ये वस्तुओं और क्रियाओं की व्याख्या नहीं करते वे इस इन्द्रियग्राह संसार के अस्तित्त्व को ही स्वीकार करते हैं, अन्य किसी के अस्तित्त्व को नहीं। वे न आत्मा को मानते हैं, न परमात्मा को। इनके अनुसार मन (Mind) का ही दूसरा नाम परमात्मा है तथा मन एक पदार्थ-जन्य क्रियाशील तत्त्व मात्र है। इसके अतिरिक्त ये ज्ञान को साध्य न मानकर मानव-जीवन को सुखमय बनाने का साधन मानते हैं। इनके अनुसार, सामाजिक क्रियाओं के माध्यम से ही यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
रॉस– “प्रयोजनवाद निश्चित रूप से एक मानवतावादी दर्शन है जो यह मानता है कि मनुष्य, क्रिया में भाग लेकर अपने मूल्यों का निर्माण करता है और यह मानता है कि वास्तविकता सदैव निर्माण की .. अवस्था में रहती है। “
प्रैट- ” प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्य का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त, और वास्तविकता का सिद्धान्त देता है। “
रोजन– “प्रयोजनवाद, सत्य तथा अर्थ के सिद्धान्त को प्रधानता देने के कारण मूलत: ज्ञानवादी विचारधारा है। इस विचारधारा के अनुसार, सत्य को केवल उसके व्यावहारिक परिणामों से जाना जा सकता है। अत: सत्य, निरपेक्ष की अपेक्षा वैयक्तिक या सामाजिक वस्तु है। “
प्रयोजनवाद के रूप (Forms of Pragmatism)
1157 प्रयोजनवाद के अग्रलिखित चार रूप या प्रकार हैं-
(1) मानवतावादी प्रयोजनवाद (Humanistic Pragmatism) – इस प्रयोजनवाद के अनुसार, मानव प्रकृति को पूर्णरूप से सन्तुष्ट करने वाला सत्य है। इन प्रयोजनवादियों का विश्वास है कि ‘‘जो बात मेरे उद्देश्य को पूरा करती है, मेरी इच्छाओं को सन्तुष्ट करती है तथा मेरे जीवन का विकास करती है, वही सत्य है। “
(2) प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद (Experimental Pragmatism) – इस वाद के अनुसार सत्य का आधार विज्ञान की प्रयोगशालायें हैं। प्रयोगात्मक प्रयोजनवादियों का कथन है कि ‘‘ जिस बात को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है अथवा जो बात ठीक कार्य करती है, वही सत्य है । “
(3) जीवशास्त्रीय प्रयोजनवाद (Biological Pragmatism) – इस वाद से आशय मनुष्य की उस शक्ति से है जिसकी सहायता से वह अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाता है तथा आवश्यकता पड़ने पर वातावरण को भी अपने अनुकूल बना लेता है। डीवी के शब्दों में, “इस प्रयोजनवाद की जाँच मानव को अपने वातावरण से अनुकूलन करने की विचार प्रक्रिया से की जाती है।” यह वाद क्योंकि विचार को अनुकूल का साधन मानता है। अतः इसको प्राय: ‘साधनवाद’ (Instrumentalism) के नाम से भी जाना है।
प्रयोजनवाद के मुख्य दार्शनिक सिद्धान्त (Main Philosophical Principles of Pragmatism)
प्रयोजनवाद मौलिक रूप से एक मानवतावादी दर्शन है। प्रयोजनवाद के मुख्य दार्शनिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है- प्रयोजनवादी में मनुष्य को संसार को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना है। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के कारण हैं मनुष्य को मनोशारीरिक प्राणी डोना, मनुष्य का विचारशील होना ही इसकी मुख्य विशेषता है। मनुष्य में अनुकूलन की अद्वितीय क्षमता है। वह पर्यावरण को अपने अनुकूल नियन्त्रित करने की भी क्षमता रखता है।
2. संसार का निर्माण अनेक तत्वों से हुआ है- प्रयोजनवाद अपने आप में बहुत्ववादी है। इस विचारधारा की मान्यता है कि हमारे इस विश्व की रचना विभिन्न तत्वों के मध्य होने वाली विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के परिणामस्वरूप हुई है हमारे विश्व निर्माण की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।
3. सत्य शाश्वत नहीं अपितु परिवर्तनशील है- प्रयोजनवाद ने सैद्धान्तिक रूप से सत्य को शाश्वत नहीं माना। सत्य का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है। एक युग से स्वीकार किये जाने वाले तथ्य किसी अन्य युग में सत्य नहीं होते।
4. केवल भौतिक संसार ही सत्य है- प्रयोजनवाद अनुसार केवल भौतिक संसार ही सत्य है। के इसके अतिरिक्त किसी आध्यात्मिक संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रयोजनवाद के अनुसार केवल वही सत्य है जिसका कोई व्यावहारिक महत्व एवं उपयोगिता होती है। इस दृष्टिकोण से आध्यात्मिक जगत की कोई उपयोगिता नहीं है। अतः उनका अस्तित्व नहीं है।
5. सामाजिक विकास का महत्व- प्रयोजनवाद के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य का विकास समाज से रहकर ही होता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया भी समाज में होती है। समाज में रहकर व्यक्ति में विभिन्न सद्गुणों जैसेकि सहयोग, सहानुभूति, दया, क्षमा, सहनशक्ति आदि का समुचित विकास होता है। इन्हीं सद्गुणों का विकास ही सामाजिक विकास है। व्यक्तियों के सामाजिक विकास द्वारा ही इन्हें सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए सामाजिक विकास अनिवार्य है।
6. सुखपूर्वक जीवन ही मुख्य उद्देश्य है- प्रयोजनवादी मनुष्य के किसी अन्तिम उद्देश्य को निर्धारित नहीं मानते हैं. परन्तु फिर भी इनका विश्वास है कि मनुष्य को अपना पर्यावरण ऐसा तैयार करना चाहिये जिससे मानव मात्र को सुख प्राप्त हो ।
7. राज्य एक सामाजिक संस्था है- प्रयोजनवाद ने राज्य को एक सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया है। राज्य को व्यक्ति एवं समाज दोनों के हित में कार्य करना चाहिए। राज्य का निर्माण मनुष्य द्वारा प्रयास हुआ है, यह एक वास्तविक संस्था है न कि कोई कृत्रिम संस्था प्रयोजन ने मुख्य रूप से लोकतन्त्रीय शास्त्र प्रणाली को ही प्रोत्साहन दिया है।
8. सामाजिक कुशलता का महत्व- प्रयोजनवाद केवल सिद्धान्तों में ही नहीं बल्कि व्यावहारिकता में विश्वास रखता है। सामाजिक विकास के लिए सामाजिक कुशलता आवश्यक है। सामाजिक विकास के लिए समाज के सदस्यों में क्रियात्मक शक्ति भी होनी चाहिए। व्यक्ति की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए क्रियात्मक शक्ति अनिवार्य है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मुख्य भौतिक आवश्यकताओं के लिए उसकी पूर्ति के लिए किसी न किसी उद्योग, उत्पादन कार्य एवं व्यवसाय को अपनाना चाहिए यही सामाजिक कुशलता है तथा सामाजिक विकास के लिए इसका विशेष महत्व है।
प्रयोजनवाद व शिक्षा (Pragmatism and Education)
प्रयोजनवादी शिक्षा परिवर्तन की पक्षधर है। वह किसी सिद्धान्त या नियम को स्थिर नहीं मानती। समाज में क्योंकि निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। अतः शिक्षा एवं शिक्षालयों को परिवर्तन का अग्रदूत होना चाहिए।
प्रयोजनवादी शिक्षा की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार हैं-
(1) प्रयोजनवादियों के अनुसार, जीवन क्रिया है तथा बालकों को सच्चा ज्ञान केवल क्रिया के माध्यम से ही मिल सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि बालकों को कार्य तथा अनुभव करने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जायें।
(2) समाज में निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं। इसलिये शिक्षा को भी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित हो जाना चाहिए। प्रयोजनवाद पूर्व निश्चित सिद्धान्तों तथा अन्तिम सत्यों का खण्डन करता है।
(3) प्रयोजनवादी ‘ज्ञान के लिये ज्ञान’ के सिद्धान्त का खण्डन करता है तथा कहता है कि अपने अनुभवों द्वारा ही सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ये अनुभव वातावरण एवं परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।
(4) प्रयोजनवादियों की मान्यता है कि बालकों की शिक्षा समाज के माध्यम से होनी चाहिए जिससे उसमें सामाजिक गुण विकसित हो सकें।
(5) आधुनिक जनतन्त्रीय युग में प्रयोजनवाद की मान्यता है कि राज्य को बालक को शिक्षित करने का दायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। इससे बालक के प्रभावशाली विकास में सहायता प्राप्त होगी।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education According to the Pragmatism)
प्रयोजनवाद व्यवहारवादी है, उनके अनुसार शिक्षा को पूर्व निर्धारित नहीं किया जा सकता है। समय एवं परिस्थितियों के साथ शिक्षा के उद्देश्य परिवर्तित होते रहते हैं। प्रयोजनवाद के अनुसार, शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान अर्जित करना मात्र ही नहीं है। शिक्षा के प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से उद्देश्यों के विषय में डीवी का कथन भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे-जैसे बालक बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे शिक्षा के उद्देश्य बदलते जाते हैं। निर्धारित किये गये उद्देश्य भलाई की अपेक्षा बुराई ही करते हैं। उनको केवल आने वाले परिणामों को जानने स्थितियों की देखभाल करने और बालकों की शक्तियों को मुक्त तथा निर्देशित करके साधनों को चुनने के लिए सुझावों के रूप में स्वीकार करना चाहिए। प्रस्तुत कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्य छात्रों की क्रियाओं और आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए। शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिए।
1. सामाजिक कुशलता प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का यह उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक कुशलता प्रदान करना भी है। इसका आशय यह है कि शिक्षा इस प्रकार से हो, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की शक्तियों एवं क्षमताएं विकसित हो जायें और वह सामाजिक दृष्टि से कुशल बन जायें। सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति अपनी मौलिक आवश्यकताओं के प्रति सजग होता है तथा उसकी पूर्ति में सफल होता है।
2. अपने मूल्यों और आदशों का निर्माता बालक स्वयं है अपने प्रयोजनवादी विचारधारा के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य यह है कि शिक्षा के परिणामस्वरूप बालक में ऐसी क्षमता का विकास होना चाहिए कि बालक अपने लिए मूल्यों और आदर्शों का निर्माण स्वयं कर लें। विभिन्न परिवर्तन परिस्थितियों में नये एवं भिन्न मूल्यों की आवश्यकता हुआ करती है। इस विषय में रॉस ने स्पष्ट कहा है प्रयोजनवादी शिक्षा का सबसे सामान्य उद्देश्य मूल्यों की रचना करना है। शिक्षक का प्रमुख कर्तव्य विद्यार्थियों को ऐसे वातावरण में रखना है जिनमें रखकर उनमें नवीन मूल्यों का विकास हो सके।
3. बालक का विकास प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य बालक का विकास करना भी है। प्रयोजनवादियों के अनुसार विकास की यह प्रक्रिया सदैव तथा निरन्तर रूप से चलती रहती है।
4. गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास प्रयोजनबाद के अनुसार शिक्षा के इस उद्देश्य को रॉस ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है। “गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास जो सब परिस्थितियों में साधनपूर्ण और साहसपूर्ण हो और जिसे अज्ञात भविष्य के लिए मूल्यों का निर्माण करने की शक्ति हो।” प्रयोजनवाद के अनुसार बालक की आवश्यकताओं, इच्छाओं, अभिप्रायों और रुचियों का महत्व स्वीकार किया जाता है। शिक्षा का एक उददेश्य उचित मार्ग पर लाना भी है।
5. गतिशील निर्देशन प्रयोजनवादियों द्वारा स्वीकार किये गये शिक्षा के उद्देश्यों में एक उद्देश्य बालकों को गतिशील निर्देशन प्रदान करना भी है। परन्तु प्रयोजनवादियों ने गतिशील निर्देशन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है।
प्रयोजनवाद और पाठ्यक्रम (Pragmatism and Curriculum)
प्रयोजनवादियों ने पाठ्यक्रम निर्माण के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रस्तुत किये –
(1) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) – प्रयोजनवाद ऐसे पाठ्यक्रम के निर्माण पर बल देते हैं, जिससे बालक अपने वर्तमान एवं भावी जीवन के लिये तैयार हो सकें। उनकी दृष्टि से अध्ययनार्थ विषय, जीवन का वास्तविक समस्याओं को हल करने में बालकों की मदद करें। उनके अनुसार, पाठ्यक्रम में भाषा, स्वास्थ्य विज्ञान, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान एवं शारीरिक प्रशिक्षण को सम्मिलित किया जाना चाहिये। बालिकाओं के लिये गृह विज्ञान तथा बालकों के लिये कृषि विज्ञान होना चाहिये। इस सिद्धान्त के अनुसार, भविष्य के लिये किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक है।
(2) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest ) – बालक की रुचियाँ उसके विकास के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न होती हैं। अतः प्रयोजनवादियों के अनुसार, पाठ्यक्रम निर्माण के समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए, उदाहरणार्थ प्राथमिक स्तर पर छात्रों की रुचि, खोज, रचना, कला प्रदर्शन और बातचीत में होती है, अतः इस तरह पाठ्यक्रम के विषय होने चाहिये-पढ़ना, लिखना, गिनना, हाथ का काम, ड्राइंग तथा प्रकृति-अध्ययन।
(3) अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience) – प्रयोजनवादियों के अनुसार पाठ्यक्रम का बालक के अनुभवों, भावी-व्यवसायों व क्रियाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। उनके अनुसार, पाठ्यक्रम में स्वतन्त्र, अर्थपूर्ण एवं सामाजिक क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होना चाहिये।
(4) एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration ) – प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम को. विभिन्न विषयों में विभाजित करने के पक्ष में नहीं हैं। उनके अनुसार वास्तविक ज्ञान अखण्ड होना चाहिए।
प्रयोजनवाद व शिक्षण विधियाँ चाहिये (Pragmatism and Methods of Teaching)
प्रयोजनवादियों के अनुसार, शिक्षण विधियों का निर्धारण निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए।
(1) सीखने की उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Purposive Process of Learning) – प्रयोजनवाद चाहता है कि बालक अपनी इच्छाओं, रुचियों और रुझानों के अनुसार स्वयं ही ज्ञान प्राप्त करे, शिक्षक उसके मस्तिष्क में ज्ञान को अनावश्यक रूप से न भरें।
(2) क्रिया या अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धान्त (Principle of Learning by Doing or Experience) – प्रयोजनवादी चाहते हैं कि बालक क्रिया या अनुभव के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करे। ‘करके सीखना’ का अर्थ मात्र ‘व्यावहारिक कार्य’ को महत्त्व देना नहीं है बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि ..बालक को उन परिस्थितियों में रखा जाये जिनका वह सामना करना चाहता है।
(3) सीखने की प्रक्रिया के एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration of Learning Process)- प्रयोजनवादियों के अनुसार, ज्ञान एक इकाई है, उसे टुकड़ों या खण्डों में बाँटकर नहीं सिखाया जाना चाहिए। बालकों को जो भी विषय पढ़ाये जायें, उनमें एकीकरण व समन्वय आवश्यक है।
प्रयोजनवाद तथा शिक्षक (Pragmatism and Teacher)
प्रयोजनवाद बच्चों को व्यवस्थित शिक्षा देने के पक्ष में नहीं है। इस विचारधारा के अनुसार शिक्षक द्वारा बच्चों को आवश्यक सूचनाएं प्रदान कर देना मात्र शिक्षा ही नहीं है परन्तु इस विचारधारा को स्वीकार करने के साथ ही शिक्षक की पूरी तरह अवहेलना नहीं की गयी। प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका एक मार्गदर्शक की भूमिका है। अध्यापक का शिक्षक को सक्रिय निरीक्षण और पथ प्रदर्शन के रूप में कार्य करना चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसा वातावरण तैयार करें जिससे छात्रों की अभीष्ट समस्या का हल निकालने में सफलता मिले। शिक्षक का एक अन्य दायित्व यह है कि बच्चों को अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाये और इन समस्या का हल निकालने में सफलता मिले। शिक्षक का एक अन्य दायित्व यह है कि बच्चों को अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाये और इन समस्याओं के समाधान प्राप्त करने के लिए सक्रिय बनाये। इससे यह लाभ होगा कि बालक अपने जीवन में किसी भी समस्या के समाधान के लिए उचित दिशा में प्रयास करने में सफल होंगे। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक का व्यावहारिक महत्व है तथा वह न केवल शैक्षिक काल में बल्कि जीवन में भी योगदान देता है।’
प्रयोजनवाद तथा अनुशासन (Pragmatism and Discipline)
प्रयोजनवाद पारस्परिक कठोर अनुशासन व्यवस्था का घोर विरोधी है। उन्होंने दमनात्मक अनुशासन, प्रभावात्मक अनुशासन तथा प्राकृतिक तथा प्राकृतिक अनुशासन को अस्वीकार किया है। तथा इन सब प्रकार की अनुशासन व्यवस्थाओं को बालक के स्वाभाविक विकास में बाधक मानता है। प्रयोजनवादियों ने सामाजिक अनुशासन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक द्वारा बच्चों का किसी प्रकार का आदेश देना उचित नहीं है। वास्तव में विद्यालय का सामाजिक वातावरण इस प्रकार का होना चाहिए कि बच्चे उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं करने के लिए प्रेरित | इस प्रकार का सामाजिक पर्यावरण में जब बच्चे सामूहिक क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेंगे तो उनकी मूल प्रवृत्तियों का स्वतः उदात्तीकरण होगा तथा बालक स्वतः ही अनुशासित जीवन की ओर उन्मुख होंगे। इस प्रकार अनुशासन स्वानुशासन होगा जिसका अधिक महत्व होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामूहिक क्रियाओं के माध्यम से अनुशासन स्थापित होना चाहिए। विद्यालय में बच्चों को शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक तथा नैतिक क्रियाओं में सामूहिक रूप से भाग लेने के अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिए। इस प्रकार स्वतः ही सामूहिक नियन्त्रण स्थापित होगा और अनुशासन की व्यवस्था हो जायेगी। श्री भाटिया ने प्रयोजनवादी अनुशासन को इन शब्दों में स्पष्ट किया है। प्रयोजनवादी स्कूल मिली जुली क्रियाओं द्वारा सामाजिक अनुशासन के पक्ष में है।
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