“प्रकृतिवाद आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में बाजी हार चुका है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। जहाँ तक शिक्षा के स्वरूप की बात है, प्रकृतिवाद की यह बात तो सही है कि बच्चा कुछ मूल शक्तियों, प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को लेकर जन्म लेता है और शिक्षा इनके विकास मार्गान्तीकरण और उदात्तीकरण का साधन है, पर उसका यह विचार कि शिक्षा केवल इसी तक सीमित है, एक संकुचित दृष्टिकोण है। शिक्षा मनुष्य को एक अच्छा पदार्थ, यन्त्र अथवा पशु बनाने कि क्रिया ही नहीं है, अपितु उसके द्वारा मनुष्य को एक अच्छा मनुष्य भी बनाया जाता है।
शिक्षा के स्वरूप के बाद उद्देश्यों की बात आती है। इस संसार और उसमें मानव जीवन के प्रति उचित दृष्टिकोण के अभाव में प्रकृतिवाद शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करने में भी असफल रहा है। इसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की मूल शक्तियों का मार्गान्तीकरण और उदात्तीकरण करना, उन्हें अपने वातावरण में समायोजन करने योग्य बनाना और इस प्रकार उन्हें सुखपूर्वक जीने के लिए तैयार करना होता है। हमारी दृष्टि से यदि शिक्षा इतना ही कार्य कर रही होती तो मनुष्य ने यह विकास नहीं किया होता। हरबर्ट स्पेन्सर ने जिस पूर्व जीवन की तैयारी की बात कही है, वह भी अपने आप में अपूर्ण है। इसमें मनुष्य के सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास को कोई स्थान नहीं दिया गया। हमारी दृष्टि से शिक्षा के द्वारा मनुष्य का सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, व्यावसायिक तथा आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए। फिर आज संसार के प्रायः सभी देशों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का अपना उत्तरदायित्व है। इसके साथ-साथ शिक्षा को मनुष्य के भविष्य निर्माण में सहायक होना चाहिए और राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति में भी सहायक होना चाहिए।
शिक्षा के उचित उद्देश्यों के अभाव में प्रकृतिवाद शिक्षा की उचित पाठ्यचर्या भी तैयार करने में असफल रहा है। अधिकतर प्रकृतिवादी शारीरिक विकास के लिए खेलकूद और व्यायाम और भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए विज्ञान की शिक्षा पर अधिक बल देते हैं। वे प्रायः भाषा साहित्य और कला की शिक्षा की अवहेलना करते हैं। स्पेन्सर ने इन सब को स्थान तो दिया है पर इतना उसने भी किया है कि शरीर विज्ञान और भौतिक विज्ञानों को मुख्य और भाषा, साहित्य, संगीत और कला को गौण स्थान प्रदान किया है। हक्सले ने इन वैज्ञानिक एवं साहित्यिक दोनों विषयों को समान स्थान देने की बात कही है पर उनका प्रभाव उतना नहीं पड़ा है जितना कि अन्य विचारकों का पड़ा है। पाठ्यचर्या में विज्ञान को बढ़ावा देने और धर्म तथा नीति की शिक्षा का विरोध करने में प्रकृतिवाद ने पहल की, पर कुछ भी हो पाठ्यचर्या के निर्माण सम्बन्धी प्रकृतिवादी के ये विचार मान्य हैं कि पाठ्यचर्या का निर्माण बच्चों की रुचि, रुझान और योग्यता के आधार पर करना चाहिए, उसमें उपयोगी विषयों को पहले दिखाना चाहिए और उसमें बच्चों की क्रियाशीलता का ध्यान रखना चाहिए।
प्रकृतिवादियों के अनुशासन की भावना जागृत करना कोरी कल्पना है। इस सम्बन्ध में रूसो द्वारा प्रतिपादित ‘प्रकृति द्वारा दण्ड विधान’ और स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित ‘सुख-दुःख सिद्धान्त भी मानने योग्य नहीं है। हमारी दृष्टि से मनुष्य को अनुशासित मनुष्य बनाने के लिए उस पर सामाजिक नियन्त्रण होना आवश्यक है।
उग्र प्रकृतिवादी न तो शिक्षक की आवश्यकता समझते हैं और न ही सामाजिक पर्यावरण की। इसे तो हम उनकी बौखलाहट ही कहेंगे। बिना समाज के शिक्षा की प्रक्रिया चल सकती है, यह तो सोचा भी नहीं जा सकता शिक्षक इस प्रक्रिया को उचित दिशा देता है इसलिए उसका महत्व है। हम उन प्रकृतिवादियों से सहमत है जो शिक्षक को पथ-प्रदर्शक के रूप में स्वीकार करते हैं।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक दार्शनिक विचारधारा के रूप में प्रकृतिवादी अन्तिम सत्य की खोज करने में असमर्थ रहा है। धार्मिक अन्धविश्वासों का पर्दाफाश करने के कारण यह आँधी की तरह आया किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के कारण यह आँधी की तरह चला भी गया। किन्तु शिक्षा पर इसका प्रभाव आज भी दिखाई देता है। जहाँ तक शिक्षा के उद्देश्यों और पाठ्यचर्या के निर्माण की बात है, इस क्षेत्र में तो प्रकृतिवाद बाजी हार चुका है किन्तु उसके द्वारा प्रतिपादित शिक्षण सिद्धान्त और शिक्षण सूत्र आज भी अपना आसन बनाए हुए हैं। अब बच्चों को उपदेश नहीं दिये जाते, उन्हें स्वयं के अनुभव से सीखने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।
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