शिक्षा दर्शन के रूप में आदर्शवाद का मूल्याँकन कीजिए ।
शिक्षा दर्शन के रूप में आदर्शवाद का मूल्यांकन (Evaluation of Idealism as a Philosophy of Education)
किसी वस्तु, क्रिया, व्यवस्था, विचार, योग्यता और क्षमता आदि का मूल्यांकन किन्हीं पूर्व निश्चित मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। ये मानदण्ड व्यक्तिगत भी हो सकते हैं और सामाजिक भी मनोवैज्ञानिक भी हो सकते हैं और वैज्ञानिक भी, अल्पमान्य भी हो सकते हैं और बहुमान्य भी। वैज्ञानिक मानदण्ड तो प्रायः सर्वमान्य होते हैं और जो मानदण्ड जितने अधिक व्यक्तियों को मान्य होता है वह उतना ही अधिक अच्छा मानदण्ड माना जाता है। शिक्षा मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया है, उसके ज्ञान एवं कला-कौशल में वृद्धि करने की प्रक्रिया है, उसके आचार, विचार और व्यवहार को उचित दिशा प्रदान करने की प्रक्रिया है। अब यह परिवर्तन एवं विकास किस प्रकार का हो, यह समाज विशेष कों तत्कालीन परिस्थितियों और भविष्य की सम्भावनाओं और आकांक्षाओं पर निर्भर करता है। तब किसी शैक्षिक चिन्तन अथवा व्यवस्था का मूल्यांकन संसार की वर्तमान परिस्थितियों और उसकी भविष्य की सम्भावनाओं और आकांक्षाओं के आधार पर ही किया जा सकता है। हमने यहाँ ऐसा ही प्रयास किया है और आदर्शवादी शिक्षा का मूल्यांकन संसार की वर्तमान परिस्थितियों एवं भविष्य की सम्भावनाओं और आकांक्षाओं, विशेष रूप से भारतीय समाज की वर्तमान परिस्थितियों और भविष्य की सम्भावनाओं और आकांक्षाओं के आधार पर किया है।
एक दर्शन के रूप में आदर्शवाद जीव, जड़ और जगत की एक विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है: और हमे भौतिक पदार्थों की नश्वरता और आत्मा-परमात्मा की अमरता से परिचित कराता है। यह हमें अज्ञान के अंधेरे से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर उन्मुख करता है और हमें प्रेम, सहानुभूति एवं सहयोग से भौतिक जीवन जीने तथा सच्चे ज्ञान एवं नैतिक आचरण से आध्यात्मिकता की प्राप्ति करने की ओर प्रवृत्त करता है। परन्तु आत्मिक जगत को सत्य और वस्तु जगत को असत्य मानने की बात सामान्य मनुष्य को मान्य नहीं हो सकती। आज हमें ऐसे जीवन दर्शन की आवश्यकता है जो हमारे प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षों को समान महत्व दें और तीनों के संतुलित विकास का मार्ग प्रशस्त करे।
एक शिक्षा दर्शन के रूप में यह शिक्षाशास्त्रियों को शाश्वत मूल्यों से परिचित कराता है और इन मूल्यों के आधार पर शिक्षा के सार्वभौमिक एवं सर्वकालीन उद्देश्य निश्चित करता है। इसके अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। अतः शिक्षा को मनुष्य के इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करनी चाहिए। इसके लिए वह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक और आध्यात्मिक, सभी प्रकार के विकास पर बल देता है। जो शिक्षा इतना कार्य करती है वह मनुष्य को इस लोक और परलोक दोनों के लिए तैयार करती है। आदर्शवादियों ने आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए मनुष्य के लिए जो आचार संहिता बनाई है उसमें मनुष्य को स्वयं और उसके सम्पर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों को भौतिक सुख प्राप्त होता है और समाज का रूप बड़ा शिष्ट, सरल एवं सुखदायक बनता है। कुछ विद्वान आदर्शवादियों पर यह दोष लगाते हैं कि वे परलोक के आगे इस लोक की चिन्ता नहीं करते और मनुष्य की रोटी, कपड़े और मकान की समस्या सुलझाने के लिए व्यावसायिक शिक्षा का विधान नहीकरते। परन्तु यह उनका मिथ्या दोषारोपण है। आदर्शवाद के प्रतिपादक प्लेटो ने राष्ट्र के लिए विभिन्न प्रकार के नागरिकों के निर्माण की बात कही है, उन्हें उनकी योग्यतानुसार कर्मक्षेत्र की शिक्षा (व्यवसाय की शिक्षा देने की बात कही है।
आदर्शवादी शिक्षा की पाठ्यचर्या में भाषा, साहित्य, धर्म एवं नीतिशास्त्र पर अधिक और ज्ञान की अन्य शाखाओं, व्यावसायिक विषय एवं भौतिक विज्ञान आदि पर अपेक्षाकृत कम बल देते हैं। उनकी दृष्टि से बिना भाषा, साहित्य, धर्म एवं नीति के ज्ञान के मनुष्य एक अच्छा मनुष्य नहीं बनाया जा सकता। हमारा पहला उद्देश्य मनुष्य को एक अच्छा मनुष्य बनाना ही होना चाहिए। परन्तु यह बात भी सही है कि जो शिक्षा व्यवस्था सामाजिक परिवर्तनों के साथ कदम मिलाकर नहीं चलती वह अपने में अधूरी होती है। प्रसन्नता की बात है कि आज के आदर्शवादी विचारकों का दृष्टिकोण व्यापक है और वे युग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पाठ्चर्या को विस्तृत बनाने पर बल देते हैं।
‘शिक्षण विधियों के क्षेत्र में भी आदर्शवादियों ने अनेक उत्तम विधियों का निर्माण किया है। अनुकरण को वे सीखने की स्वाभाविक विधि मानते हैं। प्राचीन आदर्शवादी विचारक अनेक अन्य उत्तम विधियों प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद, संवाद, आगमन और निगमन का प्रयोग करते थे। आधुनिक आदर्शवादी विचारक तो मनोवैज्ञानिक तथ्यों से परिचित हैं और करके सीखने और स्वानुभव द्वारा सीखने पर बल देते हैं। इस संदर्भ में पेस्टालॉजी की अभ्यास और आवृत्ति विधि, हरबर्ट की पंचपद प्रणाली और फ्रोबेल की किण्डरगार्टन प्रणाली उल्लेखनीय है। अब आदर्शवादियों पर यह दोष लगाना उचित नहीं है कि वे व्याख्यान प्रश्नोत्तर और विचार-विमर्श आदि प्रणालियों तक ही सीमित हैं और रटने तथा पुस्तक प्रणाली पर अधिक निर्भर करते हैं। पर यह बात अवश्य है कि इन सब विधियों में छात्रों की अपेक्षा शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है।
अनुशासन के सम्बन्ध में आदर्शवादी विचारधारा को आज अधिकतर शिक्षाशास्त्री वहाँ तक तो उत्तम समझते हैं जहाँ तक वह बच्चों को उत्तम वातावरण में रखकर उच्च आचरण का प्रशिक्षण देती है। परन्तु इस सबके लिए बच्चों को कठोर नियन्त्रण में रखने और भूल करने पर दण्ड देने की वे आलोचना करते हैं। इस सन्दर्भ में हमारा यह अनुभव है कि उचित नियन्त्रण और उचित दण्ड विधान के अभाव में न तो बच्चे बाह्य दृष्टि से अनुशासित होते हैं और न आन्तरिक दृष्टि से नियन्त्रण तो होना ही चाहिए, पर यह नियन्त्रण प्रेम पर आधारित होना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर दण्ड भी दिया जाए पर बड़ी सावधानी के साथ जिस छात्र को दण्ड दिया जाय वह यह अनुभव करें कि जो दण्ड दिया जा रहा है। उसकी स्वयं की भलाई के लिए दिया जा रहा है और किसी भी स्थिति में कठोर दण्ड न दिया जाए। कठोर दण्ड तो छात्रों को और अधिक अनुशासनहीन बनाता है।
कुछ लोग आदर्शवादियों की इस बात के लिए बड़ी आलोचना करते हैं कि वे शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक को मुख्य स्थान देते हैं, परन्तु हमारी दृष्टि से यह भी उनकी गलत आलोचना है। आचरण की शिक्षा आदर्श आचरण करने वाले अध्यापकों के सम्पर्क में रहकर ही प्राप्त की जा सकती है।
शिक्षार्थी को आदर्शवादी जन्म से पूर्ण मानते हैं और इस पूर्णता की अनुभूति के लिए वे उसके लिए एक कठोर आचरण संहिता बनाते हैं, शिक्षार्थी को उसका पालन करना आवश्यक होता है। सब शिक्षार्थियों को समान मानना आज के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही नहीं है परन्तु सब शिक्षार्थियों के साथ समान व्यवहार करना आज की लोकतन्त्रीय भावना के अनुकूल है।
शिक्षा की अन्य समस्याओं के समाधान में भी आदर्शवाद बडा सहायक है। कुछ विद्वान प्लेटो पर यह दोष लगाते हैं कि उसने दासों को शिक्षा का अधिकार न देकर जन शिक्षा के महत्त्व को नकारा है। वास्तविकता यह है कि वे सेवा कार्य की शिक्षा के लिए विद्यालयी शिक्षा आवश्यक नहीं मानते थे। यदि सभी मनुष्यों के जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है तो सबको प्राकृतिक नैतिकता, सामाजिक नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता की शिक्षा तो देनी होगी। फिर आधुनिक युग के आदर्शवादी विचारक तो जन शिक्षा के पक्के समर्थक हैं। आदर्शवादियों का यह विचार कि सामान्य शिक्षा सबके लिए और उच्च शिक्षा की व्यवस्था योग्यतानुसार की जानी चाहिए. आज पुनः माना जाने लगा है। लोकतन्त्र के नाम पर सब बच्चों को उच्च शिक्षा के अवसर प्रदा कर हम राष्ट्रीय धन का अपव्यय कर रहे हैं और शिक्षा जगत में अनुशासनहीनता फैला रहे हैं। इसके साथ-साथ शिक्षित बेरोजगारी भी बढ़ रही है। इस सन्दर्भ में हमें आदर्शवादी विचारधारा से सहमत होना ही पड़ेगा। आदर्शवादियों द्वारा प्रतिपादित धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की आवश्यकता भी आज पुनः समझी जा रही है। आज के आदर्शवादी विचारक तो जीवन के कटु सत्य रोटी कपडा और मकान के प्रति भी जागरूक हैं और बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा देने पर बल देते हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आदर्शवादी इस ब्रह्माण्ड के अन्तिम सत्य ईश्वर की खोज करने में तो सफल रहे है परन्तु उनके द्वारा वस्तु जगत के अस्तित्व को नकारने की बात सामान्य मनुष्यों के गले नहीं उतरती। पर मनुष्य के लिए जिस प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक नैतिकता का विधान आदर्शवादियों ने किया है उनके पालन से मनुष्य के पारलौकिक जीवन के बारे में निश्चयपूर्वक भले ही कुछ न कहा जा सकता हो पर उससे उसका लौकिक जीवन निश्चित रूप से सुख एवं शान्तिमय होता है। बस यही कारण है कि यह दर्शन संसार में आज भी अपना आसन बरकरार बनाए हुए है।
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