“दर्शन की सहायता के बिना शिक्षा की प्रक्रिया सही दिशा में अग्रसर नहीं हो सकती।” इस कथन की विवेचना कीजिए । अथवा शिक्षा तथा दर्शन के सम्बन्धों पर एक निबन्ध लिखिए।
दर्शन का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Philosophy)
दर्शन शब्द के अंग्रेजी रूपान्तरण ‘Philosophy’ शब्द दो यूनानी शब्दों ‘Philos’ और ‘Sophia’ से मिलकर बना है। ‘Philos’ का अर्थ है ‘Love’ और ‘Sophial’ का अर्थ है- ‘Of Wisdom’। इस प्रकार ‘Philosophy’ (दर्शन) का शाब्दिक अर्थ हुआ- ‘Love of wisdom’ (ज्ञान से प्रेम) । दर्शन की प्रमुख परिभाषायें इस प्रकार हैं-
ब्राइटमैन – ” दर्शन शास्त्र को एक ऐसे प्रयास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा मानव अनुभूतियों के सम्बन्ध में समग्र रूप में सत्यता से विचार किया जाता है अथवा जो सम्पूर्ण अनुभूतियों को बोधगम्य बनाता है। “
“आर. डब्ल्यू. सेलर्स- “दर्शन एक व्यवस्थित विचार द्वारा विश्व और मनुष्य की प्रकृति के विषय में ज्ञान प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास है। ”
बर्टेण्ड रसेल– “ अन्य क्रियाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन के अन्तर्गत प्रकृति, व्यक्तियों व वस्तुओं तथा उनके लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के विषय में निरन्तर विचार किया जाता है। यह ईश्वर, ब्रह्माण्ड एवं आत्मा के रहस्यों तथा इनके पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना करता है।
शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
वास्तविक अर्थ में शिक्षा जीवन के मूल्यों और आदर्शों से जुड़ी हुई है। शिक्षा व्यक्ति को उसके जीवन-मूल्यों और आदर्शों से ने केवल सैद्धान्तिक रूप में परिचित करती है अपितु वह व्यक्ति को उन पर निरन्तर चलने की प्रेरणा भी प्रदान करती है। यह जीवन-मूल्य क्या है, हमारे वैयक्तिक और सामाजिक आदर्श कौन-कौन से हैं ? शिष्य के स्वभाव में सुधार किस दिशा में होना चाहिये ? सच्ची शिक्षा किस प्रकार की हो? आदि प्रश्नों का हल खोजने के लिए शिक्षाशास्त्रियों को दर्शन शास्त्र की मदद लेनी पड़ती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा दर्शन पर आधारित है तथा वह दार्शनिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप प्रदान करती है।
शिक्षा और दर्शन का सम्बन्ध (Relation Between Education and Philosophy)
दर्शन जीवन और समाज के मूल्यों और आदर्शों के विषय में निर्देशित करता है, समाज विशेष की संस्कृति के सन्दर्भ में इन मूल्यों तथा आदशों की गहराई में जाकर व्याख्या करता है तथा उच्च जीवन-मानदण्ड निश्चित करता है। शिक्षा अपनी व्यावहारिक योजनाओं के माध्यम से दार्शनिक सिद्धान्तों को ही क्रियात्मक रूप प्रदान करती है। बिना दर्शन के शिक्षा का अपना कोई आधार नहीं है।
इन दोनों के सम्बन्ध को निम्नलिखित रूप में दर्शाया जा सकता है-
(1) दर्शन व शिक्षा के उद्देश्य- रस्क के अनुसार, शैक्षिक उद्देश्यों का जीवन के साध्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और दर्शन यह निर्णय करता है कि जीवन का क्या उद्देश्य है, उस स्थिति में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण भी उसी के द्वारा किया जाना स्वाभाविक है। वास्तव में, हमारा जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होगा, शैक्षिक उद्देश्य भी हमारे द्वारा उसी प्रकार से निश्चित किये जायेंगे।
(2) दर्शन व पाठ्यक्रम- रस्क के शब्दों में, शिक्षा, दर्शन पर पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में जितनी निर्भर है, उतनी अन्य किसी शैक्षिक समस्या के सम्बन्ध में नहीं।” वस्तुतः पाठ्यक्रम पर दर्शन का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
उदाहरणार्थ, आदर्शवादी दर्शन के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति है, प्रकृतिवादी दर्शन के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य बालक की वैयक्तिकता का विकास करना है तथा प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में बालक की वर्तमान एवं भावी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपयोगी क्रियाओं को स्थान देने पर बल दिया जाता हैं।
(3) दर्शन व शिक्षण विधियाँ – शिक्षा की उपर्युक्त विधि को हम तब तक निर्धारित नहीं कर सकते हैं, जब तक हमें उद्देश्य का ज्ञान न हो, इस प्रकार शिक्षण विधियाँ दर्शन से प्रभावित होती हैं। सुकरात ने अपने दार्शनिक विचारों के अनुसार, प्रश्नोत्तर विधि को जन्म दिया। इसी प्रकार प्लेटो ने संवाद विधि’ को, अरस्तू ने ‘आगमन एवं निगमन विधि’ को, बेकन ने ‘प्रयोग एवं निरीक्षण विधि’ को, रूसो ने स्वानुभव एवं सक्रियता को तथा मॉण्टेसरी ने ‘इन्द्रिय प्रशिक्षण विधि’ को सर्वोत्तम माना है।
(4) दर्शन व अनुशासन- अनुशासन की धारणा भी दार्शनिक विचारधाराओं द्वारा प्रभावित होती है, जैसे प्रकृतिवादी दण्ड-विधान के अन्तर्गत ‘प्राकृतिक परिणामों तथा स्वतन्त्रता’ पर बल देता है आदर्शवादी शिक्षक प्रभाव के द्वारा अनुशासन की स्थापना करना चाहते हैं तो प्रयोजनवादी अनुशासन की स्थापना के लिये सामाजिक एवं सहयोगी क्रियाओं को महत्त्व देते हैं। F
(5) दर्शन व पाठ्य-पुस्तकें- पाठ्य पुस्तकों के चयन एवं निर्माण में भी दर्शन मुख्य कार्य करता है। पाठ्य पुस्तकों का चयन करते समय जीवन की मान्यताओं, आदर्शों तथा सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है क्योंकि इनके द्वारा जीवन में मानदण्डों का स्थापन किया जाता है।
(6) दर्शन व शैक्षिक प्रशासन- शैक्षिक प्रशासन पर भी दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ता है। शिक्षा ऐच्छिक संगठन के हाथों में हो या शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण हो, शिक्षक की नियुक्ति का क्या मानदण्ड हो तथा शिक्षा पद्धति में उसका स्थान क्या हो, विद्यालय भवन का स्वरूप कैसा हो, तथा विद्यालय में निरीक्षण के समय किन बातों पर ध्यान दिया जाये, आदि प्रश्नों का उत्तर हमें दर्शन में ही मिल सकता है।
उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त शिक्षा व दर्शन में निम्न सम्बन्ध भी पाये जाते हैं-
1. दर्शन जीवन के वास्तविक लक्ष्य का निर्धारण करता तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये शिक्षा का उचित मार्ग दर्शन भी करता है।
2. दर्शन शिक्षा को प्रभावित करता है तो शिक्षा भी दार्शनिक दृष्टिकोण पर नियन्त्रण रखती है। पैट्रिज के शब्दों में- “गम्भीर अर्थ में यह कहना बिल्कुल उचित है कि जिस प्रकार शिक्षा ‘दर्शन’ पर आधारित है, उसी प्रकार दर्शन ‘शिक्षा’ पर आधारित है।”
3. प्रत्येक समय के महान दार्शनिक महान शिक्षा शास्त्री भी हुए हैं। प्लेटो, सुकरात, लॉक, कमेनियस, रूसो, गाँधी, टैगोर आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन सभी दार्शनिकों को अपने-अपने दर्शन को क्रियात्मक अथवा व्यावहारिक रूप देने के लिये अन्त में शिक्षा का ही सहारा लेना पड़ा।
4. शिक्षा सैद्धान्तिकता (दर्शन) को व्यावहारिकता में परिवर्तित करती है। शिक्षा का कार्य क्योंकि व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन लाना है, इसलिये एडम्स का यह कथन सही है कि “शिक्षा दर्शन का गत्यात्मक पहलू है। “
5. शिक्षाशास्त्रियों के सम्मुख समय-समय पर अध्यापन के समय अनेक समस्यायें जन्म लेती रहती हैं। वे इन्हें सुलझाने के लिये दार्शनिकों का सहारा ढूँढते हैं और तब दार्शनिक नये शिक्षा दर्शन को जन्म देते हैं।
इस प्रकार शिक्षा और दर्शन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। वास्तव में दर्शन के मार्ग दर्शन के बिना अर्थहीन हो जायेगी।
दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं- जे. एस. रॉस के अनुसार दर्शन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दर्शन और शिक्षा का गहरा सम्बन्ध व्यक्ति तथा ब्रह्माण्ड से है जिसमें कि वह रहता है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के सम्बन्धों और अनुभवों का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है जिससे कि उसका (व्यक्ति का) विकास ठीक प्रकार से हो सके। इन अनुभवों के निर्माण तथा सम्बन्ध स्थापना में दर्शन सहायक रहता है। इस प्रकार दर्शन और शिक्षा एक ही वस्तु के दो रूप होते हैं। रॉस के शब्दों में – “दर्शन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं। दर्शन जीवन का विचारात्मक पक्ष है और शिक्षा क्रियात्मक पक्ष है।” दर्शन द्वारा शिक्षा के उद्देश्य तथा पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता है जबकि शिक्षा द्वारा उनको व्यावहारिक रूप दिया जाता है।
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