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तत्त्व मीमांसा (Metaphysics) | ज्ञान-मीमांसा (Epistemology) | मूल्य-मीमांसा (Axiology)

तत्त्व मीमांसा (Metaphysics) | ज्ञान-मीमांसा (Epistemology) | मूल्य-मीमांसा (Axiology)
तत्त्व मीमांसा (Metaphysics) | ज्ञान-मीमांसा (Epistemology) | मूल्य-मीमांसा (Axiology)

तत्त्व मीमांसा | ज्ञान-मीमांसा | मूल्य-मीमांसा- को परिभाषित कीजिए तथा शिक्षा के लिए इनके निहितार्थ स्पष्ट कीजिए

शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में दर्शन के निम्न तीन बड़े भाग किये जाते हैं-

(i) तत्त्व मीमांसा (Metaphysics)

इसके अन्तर्गत निम्न पाँच विभाग आते हैं-

(1) ईश्वर सम्बन्धी तत्त्वज्ञान- इसमें ईश्वर के अस्तित्त्व, उसके स्वरूप, उसकी एकरूपता अथवा अनेकरूपता, इन सबके प्रमाण आदि से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है।

(2) आत्म सम्बन्धी तत्त्वज्ञान- इस विभाग के अन्तर्गत जीव के अस्तित्त्व आत्मा के अस्तित्त्व की स्वतन्त्रता पर परतन्त्रता, शरीर से उनके पारस्परिक सम्बन्ध आदि से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है।

(3) ब्रह्माण्ड विज्ञान- इसमें ब्रह्माण्ड के स्वरूप, उसके अक्षर और नश्वर तत्त्वों, उसके सादि और सांत तत्त्वों, इन विभिन्न तत्त्वों के आपसी सम्बन्धों से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है।

(4) सृष्टि-विज्ञान – इसमें ब्रह्माण्ड के विकास से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाता है, जैसे ब्रह्माण्ड एक है अथवा अनेक ? इसकी रचना भौतिक तत्त्वों के संयोग से हुई है अथवा आध्यात्मिक के संयोग से, आदि।

(5) सृष्टि-शास्त्र– इस विभाग में सृष्टि की उत्पत्ति अथवा रचना से सम्बन्धित समस्याओं, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति हुई है तो किस प्रकार हुई है ? यदि उत्पत्ति न होकर रचना हुई है तो वह किस प्रकार हुई है ? आदि पर विचार किया जाता है।

शिक्षा के लिये तत्व-मीमांसा का निहितार्थ

 वस्तुतः तत्त्व-मीमांसा की जीव-जगत् सम्बन्धी अवधारणा छात्र की संकल्पना, छात्र शिक्षक सम्बन्ध, पाठ्यक्रम तथा शैक्षिक मूल्यों को प्रभावित करती है।

उदाहरणार्थ, भौतिकवादी दर्शन में आस्था रखने वाला शिक्षक बालक को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही देखेगा तथा उसकी शिक्षण विधि भी उद्दीपन-अनुक्रिया के सिद्धान्त पर आधारित होगी। ऐसी स्थिति में जीवन के मूल्य भी भोगवादी तथा ठोस जगत में सुखपूर्वक रह सकने से सम्बद्ध होंगे। लेकिन, इसके विपरीत, यदि जगत् तत्त्वों से बना हुआ स्वीकार किया जायेगा तो छात्र तथा शिक्षा सम्बन्धी अवधारणायें उसी के अनुरूप बदल जायेंगी।

(ii) ज्ञान-मीमांसा (Epistemology)

ज्ञान मीमांसा को ही पुराने समय में दर्शन विभाग कहा जाता था और तत्कालीन दर्शनशास्त्रियों ने इसे ही दर्शनशास्त्र की प्रमुख विषय-वस्तु के रूप में स्वीकार किया था। इस विभाग में मानव-वृद्धि एवं उसकी ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है जैसे दृष्टि के ज्ञान प्राप्त करने की सीमा, उसके साधन, प्रमाण-ज्ञान के स्वरूप, सत्य और असत्य के स्वरूप, यथार्थ और भ्रम के स्वरूप तथा मानव बुद्धि के यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकने की सम्भावनाएँ आदि।

ज्ञान मीमांसा तथा तत्व मीमांसा में सम्बन्ध

ज्ञान, मीमांसा व तत्त्व मीमांसा में आपस में सम्बन्ध होते हैं उदाहरणार्थ, जगत् के सम्बन्ध में यदि हमारा दृष्टिकोण भौतिकवादी है तो ज्ञान प्राप्ति के साधन प्रत्यक्ष इन्द्रिय ज्ञान से सम्बद्ध होंगे। ज्ञान प्राप्ति की विधि वैज्ञानिक मानी जाएगी और प्रत्यक्ष ज्ञान ही केवल वैध माना जायेगा, जबकि जगत् को यदि आत्मिक माना जाता है तो ज्ञान प्राप्ति की विधि तर्क तथा सहज ज्ञान से सम्बद्ध होगी।

शिक्षा के लिए ज्ञान मीमांसा की आवश्यकता

 विद्यालय का पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय ज्ञान-मीमांसा हमें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। विषयों के चयन, पाठ्य-वस्तु के सकंलन तथा पाठ्य पुस्तकों के निर्माण में यह हमें स्पष्ट रूप से प्रभावित करती है। ज्ञान-मीमांसा हमारी शिक्षण विधियों को भी प्रभावित करती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में वैज्ञानिक विधि का कम प्रयोग, अनुकरण तथा असत वाक्य की महत्ता, सहज ज्ञान पर अधिक निर्भर रहना आदि हमारी दार्शनिक धारणाओं को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करते हैं।

(iii) मूल्य-मीमांसा (Axiology)

मूल्य मीमांसा का सम्बन्ध मानव जीवन के विभिन्न मूल्यों, उद्देश्यों और आदर्शों से होता है। इसके अन्तर्गत निम्न तीन विभाग होते हैं-

(1) तर्कशास्त्र – मूल्य-मीमांसा के अन्तर्गत तर्कशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि तर्क के द्वारा ही यथार्थ के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। यह शास्त्र ही अपनी आगमन एवं निगमन विधियों के द्वारा तर्क की वैज्ञानिक विधि का बोध कराता है। इस विभाग के अन्तर्गत तर्कपूर्ण चिन्तन, कल्पना अथवा अनुमान, उसके लक्षण, तर्क की पद्धति आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।

(2) नीतिशास्त्र – इस विभाग के अन्तर्गत मनुष्य के आचरण से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं पर विचार करके विश्लेषण किया जाता है कि मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए और कैसा नहीं करना चाहिए।

(3) सौन्दर्य शास्त्र – इस विभाग में सौन्दर्य सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाता है, जैसे- सौन्दर्य अथवा असौन्दर्य क्या है ? उसके लक्षण क्या हैं तथा उनके मापदण्ड क्या हो सकते हैं ?

शिक्षा के लिये मूल्य-मीमांसा की आवश्यकता (Educational Implications of Axiology)

शिक्षा की दृष्टि से दर्शनशास्त्र की इस शाखा का अत्यधिक महत्त्व है। नैतिक जीवन नीतिशास्त्र के क्षेत्र में आता है तथा सद्जीवन सौन्दर्य शास्त्र एवं नीतिशास्त्र दोनों के अन्तर्गत आता है। इसके अतिरिक्त मूल्य-मीमांसा हमारी अनुशासन सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करती है। मूल्य-मीमांसा के ही अन्तर्गत करने योग्य कर्म तथा न करने योग्य कर्म की व्याख्या की जाती है एवं मानव-व्यवहार के औचित्य-अनौचित्य का विचार किया जाता है।

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