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संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक | Samvegatmak Vikas Ko Prabhavit Karne Waale Kaarak

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

हरलॉक के शब्दों में,– “प्रत्येक बालक में संवेगशीलता की दशा उसके स्वास्थ्य, दिन के समय और वातावरण सम्बन्धी प्रभावों जैसे कारकों पर निर्भर रहने के कारण समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है।”

उपरिलिखित कारकों पर नियन्त्रण स्थापित करके ही बालक की संवेगशीलता को वश में रखा जा सकता है और इस प्रकार उसके संवेगात्मक विकास को निर्देशित किया जाता है। ये कारक कौन-से हैं, इनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित पंक्तियों में पढ़िए-

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

1. थकान

अत्यधिक थकान बालक के संवेगात्मक विकास व्यवहार को प्रभावित करती है। क्रो एवं क्रो का मत है कि—“जब बालक थका हुआ होता है, तब उसमें क्रोध या चिड़चिड़ेपन के समान अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार की प्रवृत्ति होती है। “

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2. स्वास्थ्य

क्रो एवं क्रो के शब्दों में- “बालक के स्वास्थ्य की दशा का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।” अच्छे स्वास्थ्य वाले बालकों की अपेक्षा बहुत बीमार रहने वाले बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में अधिक अस्थिरता होती है।

3. मानसिक योग्यता

अधिक मानसिक योग्यता वाले बालकों का संवेगात्मक क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है। वे भविष्य के सुखों और दुःखों, भयों और आपत्तियों को अनुभव कर सकते हैं। हरलॉक का कथन है— “साधारणतया निम्नतर मानसिक स्तरों के बालकों में उसी आयु के प्रतिभाशाली बालकों की अपेक्षा संवेगात्मक नियंत्रण कम होता है।”

4. अभिलाषा

माता-पिता को अपने बालक से बड़ी-बड़ी आशायें होती हैं। स्वयं बालक में कोई न कोई अभिलाषा होती है। यदि उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है, तो वह निराशा के सागर में डुबकियाँ लगाने लगता है। साथ ही, उसे अपने भग्नाशा माता-पिता की कटु आलोचना सुननी पड़ती है। ऐसी स्थिति में उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है। कारमाइकेल का कथन है— “कोई भी बात जो बालक के आत्म-विश्वास को कम करती है, या उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाती है या उसके कार्य में बाधा उपस्थित करती है या उसके द्वारा महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसकी चिन्तित और भयभीत रहने की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती हैं। “

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5. परिवार

हरलॉक के विचार से बालक का परिवार उसके संवेगात्मक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है। पहला, यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेगात्मक होते हैं, तो बालक भी उसी प्रकार का हो जाता है। दूसरा, यदि परिवार में शान्ति और सुरक्षा आनन्द के कारण उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती है, तो बालक के संवेगात्मक विकास का रूप सन्तुलित होता है। तीसरा, यदि परिवार में लड़ाई-झगड़े होना, मिलने-जुलने वालों का बहुत आना और मनोरंजन का कार्यक्रम बनते रहना। साधारण घटनायें हैं तो बालक के संवेगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है।

6. माता-पिता का दृष्टिकोण

बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो ने लिखा है— “बच्चों की उपेक्षा करना, बहुत समय तक घर से बाहर रहना, बच्चों के बारे में आवश्यकता से अधिक चिन्तित रहना बच्चों को अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करने की आज्ञा न देना, बच्चों को प्रौढ़ों के समान नए अनुभव न करने देना और बच्चों को सब घर के प्रेम का पात्र बनाना माता-पिता की ये सब बातें बच्चों के अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार के विकास में योग देती हैं।”

7. सामाजिक स्थिति

बालकों की सामाजिक स्थिति उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैं। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो के ये विचार उल्लेखनीय हैं- सामाजिक स्थिति और संवेगात्मक अस्थिरता में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। निम्न सामाजिक परिस्थितियों के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा अधिक असन्तुलन और अधिक संवेगात्मक अस्थिरता होती है।”

8. सामाजिक स्वीकृति

बालक के कार्यों की सामाजिक स्वीकृति का उसके संवेगात्मक विकास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है- “यदि बालक को अपने कार्यों की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है, तो उसके संवेगात्मक व्यवहार में उग्रता या शिथिलता आ जाती है।”

9. निर्धनता

निर्धनता, बालक के अनेक अशोभनीय संवेगों को स्थायी और शक्तिशाली रूप प्रदान कर देती है। यह विद्यालय में धनी बालकों की वेश-भूषा देखता है, उनके आनन्दपूर्ण जीवन की कहानियाँ सुनता है, उनके सुख और ऐश्वर्य की वस्तुओं का अवलोकन करता है। फलस्वरूप, उसमें द्वेष और ईर्ष्या के संवेग सशक्त रूप धारण करके, उस पर अपना सतत् अधिकार स्थापित कर लेते हैं।

10. विद्यालय

विद्यालय का बालक के संवेगात्मक विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। बालक की विभिन्न क्रियायें उनके विभिन्न संवेगों की अभिव्यक्ति करती है। यदि विद्यालय के कार्यक्रम उसके संवेगों के अनुकूल होते हैं, तो उसे उनमें आनन्द का अनुभव होता है। फलस्वरूप, उसके संवेगों का स्वस्थ विकास होता है। इसके विपरीत, यदि उसे विद्यालय के कार्यक्रमों में असफल होने या अपने दोषों के प्रकटीकरण का भय होता है, तो उसमें घृणा, क्रोध और चिड़चिड़ेपन का स्थायी निवास हो जाता है। जरशील्ड ने ठीक ही लिखा है— “परिवार के बाद विद्यालय ही सम्भवतः वह दूसरा स्थान है, जो व्यक्ति की उन भावनाओं पर आधारभूत प्रभाव डालता है, जिनका निर्माण वह अपने और दूसरों के प्रति करता है।”

11. शिक्षक

शिक्षक का बालक के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। वह बालक के समक्ष अच्छे और बुरे उदाहरण प्रस्तुत करके, उसको साहसी या कायर, क्रोधी या सहनशील, झगड़ालू या शान्तिप्रिय बना सकता है। वह उसमें अच्छी आदतों का निर्माण करके और अच्छे आदर्शों का अनुसरण करने की इच्छा उत्पन्न करके, अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास कर सकता है।

12. अन्य कारक

बालक के संवेगात्मक विकास पर अवांछनीय प्रभाव डालने वाले कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारक हैं— अत्यधिक कार्य, कार्य में अनावश्यक बाधा और अपमानजनक व्यवहार।

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