शिक्षा के विभिन्न प्रकारों को समझाइए। शिक्षा तथा साक्षरता व अनुदेशन में क्या मूलभूत अन्तर है ?
शिक्षा के विभिन्न प्रकार (Various Types of Education)
शिक्षा के अनेक प्रकार के रूप हैं जो प्रमुख रूप से इस प्रकार हैं-
(1) औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा (Formal and Informal Education) – औपचारिक शिक्षा से अर्थ है कि इस प्रकार की शिक्षा विद्यार्थियों को विद्यालय है शिक्षकों के द्वारा एक निश्चित योजना व पाठ्यक्रम के अन्तर्गत दी जाती है। इस प्रकार के शिक्षण क योजना पहले से ही बना दी जाती है तथा इसका उद्देश्य भी निश्चित कर दिया जाता है। इस प्रकार की शिक्ष को विद्यार्थी भी जानते बूझते प्राप्त करता है। इस प्रकार की शिक्षा में विद्यार्थी को निश्चित समय पर नियमित रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता है, इस प्रकार की शिक्षा का प्रमुख साधन व केन्द्र विद्यालय होते हैं। परन्तु विद्यालय के साथ-साथ, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, अजायबघर, पुस्तकें आदि अन्य साधन होते हैं। जिनसे विद्यार्थी ज्ञानार्जन करते हैं।
अनौपचारिक शिक्षा को अनियमित शिक्षा भी कहते हैं। इस प्रकार की शिक्षा जन्म भर चलती रहती है। इस प्रकार की शिक्षा में विद्यालय या शिक्षक की औपचारिकता नगण्य होती है। इस प्रकार की शिक्षा में बालक को हंसते, खाते-पीते, काम करते, उठते-बैठते, आकस्मिक व अनायास ज्ञान प्राप्त होता है। अपने माँ, बाप, मित्र, भाई-बहन, पड़ोसी समाज के अन्य व्यक्ति जिनसे भी बालक का परिचय होता है वह सबसे कोई-न-कोई ज्ञान की बात ग्रहण करता रहता है। अनौपचारिक शिक्षा में कोई निश्चित योजना, निश्चित सीमा, निश्चित समय नहीं होता है। बच्चे का परिवार, मित्र-समूह, पड़ोसी, समाचार पत्र-पत्रिकायें, टी वी., रेडियो व जनसंचार के अन्य साधन, दल गुट, खेल आदि उसकी अनौपचारिक शिक्षा के साधन हैं।
(2) प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष शिक्षा (Direct and Indirect Education ) – इस प्रकार को शिक्षा विद्यार्थियों व शिक्षकों के प्रत्यक्ष सम्पर्क के फलस्वरूप होती है। शिक्षक अपने ज्ञान, व्यवहार चरित्र आदेशों व उद्देश्यों से छात्र के मन को उसके व्यक्तित्त्व को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार की शिक्षा में औपचारिक साधनों का प्रयोग किया जाता है।
अप्रत्यक्ष शिक्षा को अवैक्तिक शिक्षा भी कहा जाता है। यह अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा स्वतन्त्र वातावरण में अप्रत्यक्ष साधनों के द्वारा प्राप्त की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा में छात्र पर शिक्षक का कोई व्यक्तित्त्व का प्रभाव नहीं पड़ता है।
(3) वैयक्तिक व सामूहिक शिक्षा (Individual and Group Education ) – वैयक्तिक शिक्षा से आशय है कि कोई शिक्षक अपने विद्यार्थी की रुचि, उसकी मनोवृत्ति, उसकी योग्यता व उसकी विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए शिक्षित करता है। इस प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया में वैयक्तिक शिक्षण प्रक्रिया तथा शिक्षण विधियों का ही प्रयोग किया जाता है।
सामूहिक शिक्षा से तात्पर्य है कि बालकों के एक समूह को एक साथ शिक्षा प्रदान करना। इस प्रकार की शिक्षा कक्षा में विद्यौर्थियों के एक समूह को दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षण पद्धति में छात्रों की वैयक्तिक योग्यताओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। आजकल प्रत्येक देश में प्रत्येक विद्यालय में शिक्षण का यही प्रकार चल रहा है।
(4) सामान्य व विशिष्ट शिक्षा (Normal and Special Education) सामान्य शिक्षा को आमतौर पर उदार शिक्षा भी कहा जाता है यह शिक्षा बालकों को सामान्य जीवन जीने के लिए तैयार करती है तथा उनकी सामान्य बुद्धि व सामान्य ज्ञान का विकास करती है, इससे बालकों की सामान्य बुद्धि प्रशिक्षित होती है।
विशिष्ट शिक्षा का अर्थ है किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्राप्त की जाने वाली शिक्षा। इस प्रकार की शिक्षा का एक विशिष्ट लक्ष्य होता है तथा यह बालकों को किसी व्यवसाय विशेष में प्रवीणता हासिल करने के लिए प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा को ग्रहण करने के बाद बालक जीवन के एक विशेष क्षेत्र में कार्य करने में सक्षम व निपुण हो जाता है।
(5) सकारात्मक व नकारात्मक शिक्षा (Positive and Negative Education) सकारात्मक शिक्षा से तात्पर्य है कि बच्चों को विज्ञान से सम्बन्धित बातें जैसे पृथ्वी गोल है, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है आदि तथ्य तथा बह्माणीय सत्य है, जैसे सदा सत्य बोलो, गरीबों की सहायता करो, पाप से घृणा करो आदि को बताया जाता है। इस शिक्षण में बालकों को किसी प्रकार बिना अनुभव के या तर्क से अथवा पूर्व निश्चित तथ्यों एवं मूल्यों को सिखान ही सकारात्मक शिक्षा कहलाती है।
नकारात्मक शिक्षा में बालकों को स्वयं अनुभव करने के आधार पर तथ्यों की खोज करने व आदर्शों का निर्माण करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।
इस शिक्षा में प्रत्येक बालक या शिक्षार्थी की और व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया जाता है। इसमें प्रत्येक कक्षा में कम छात्र होने चाहिए। इस शिक्षा में प्रत्येक बालक की रुचि, इच्छा, प्रवृत्ति एवं बौद्धिक योग्यता का ध्यान रखा जाता है तथा उसी के अनुसार उसे शिक्षा दी जाती है। यह शिक्षा छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नता को सर्वाधिक महत्व देती है। यह शिक्षा निःसन्देह रूप से उत्तम समझी जाती है परन्तु इस प्रकार की शिक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ता है। भारतवर्ष जैसे निर्धन देश में शिक्षा की व्यवस्था कर पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। इस प्रकार की शिक्षा के लिए अधिक संख्या में विद्यालयों एवं प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है।
शिक्षा के अर्थ को पूर्ण रूप से समझने के लिए निम्न बातों को समझना आवश्यक है –
(i) शिक्षा से मानव का विकास होता है- शिक्षा से मानव का विकास होता है बिना शिक्षा के मानव किसी जानवर के समान ही होता है। आज जिस मनुष्य को हम जानते हैं जिससे हम मिलते हैं, जो हमारे चारों ओर विचरता है वह सभ्य मनुष्य शिक्षा के द्वारा ही सभ्य बना है।
(ii) शिक्षा प्रशिक्षण का कार्य है- जन्म से मानव पशु के समान होता है अतः उसे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। शिक्षा के कारण ही वह अपने भावों को, अभिलाषाओं को तथा अपने व्यवहारों को नियन्त्रित करना सीखता है।
(iii) मार्ग दर्शक का कार्य – शिक्षा मनुष्य का मार्ग दर्शक है। इसके द्वारा ही मनुष्य का तथा नयी पीढ़ी का मार्ग दर्शन किया जाता है। इसीलिए बच्चों की शिक्षा देते समय इस बात का ध्यान सर्वाधिक रखा जाता है कि बच्चों की अविकसित भावनाएँ, योग्यताएँ, क्षमताएँ तथा उनकी रूचि के क्षेत्र का अधिकतम विकास हो।
(iv) शिक्षा अभिवृद्धि – शिक्षा मनुष्य की मानसिक अभिवृद्धि में भी सहायक होती है। अभिवृद्धि के दो मुख्य कारक होते हैं- प्रशिक्षण तथा वातावरण अपने प्रशिक्षण व वातावरण के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति क्रिया व प्रतिक्रिया करता है तथा इसी प्रक्रिया में उसके व्यक्तित्त्व में परिवर्तन होते हैं। एक सही व सन्तुलित अभिवृद्धि तभी सम्भव है जब शरीर व व्यक्तित्व के सभी पक्षों- शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक पक्ष का सन्तुलित तथा समान विकास हो। इस क्रियाविधि में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
6. सर्वांगीण शिक्षा (Complete Education)- इस शिक्षा में शिक्षार्थी के सभी पक्षों अर्थात् व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का ध्यान रखा जाता है। इस शिक्षा का उद्देश्य बालक का बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, अध्यात्मिक एवं नैतिक विकास करना होता है। इस शिक्षा को आदर्श शिक्षा कहा जा सकता है तथा प्रत्येक समाज में इसी शिक्षा का प्रचार होना चाहिए। यह शिक्षा व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के हित एवं प्रगति के लिए आवश्यक होती है।
7. एकांकी शिक्षा (One Sided Education)- सर्वांगीण शिक्षा के विपरीत एकांकी शिक्षा है। इस शिक्षा के अन्तर्गत जीवन के किसी पक्ष को विकसित करने का विशेष रूप से प्रयास किया जाता है। स्वाभाविक है कि अन्य पक्षों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। अधिकांश शिक्षाशास्त्री इस प्रकार की शिक्षा के विरुद्ध हैं तथा इसे दोषपूर्ण मानते हैं। इस शिक्षा के परिणामस्वरूप बालक के व्यक्तित्व का सही विकास नहीं हो पाता है तथा वास्तविक जीवन में अनुकूलन स्थापित करने में असफल ही रहता है। यह शिक्षा व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए हितकर नहीं समझी जाती।
8. निश्चयात्मक शिक्षा (Positive Education) – शिक्षा के इस रूप को उसके आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। निश्चयात्मक शिक्षा में व्यक्ति को कुछ आदर्शों को अपनाने के लिए आदेश दिया जाता है। इसे विधायक शिक्षा भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए सत्य बोलना चाहिए, पुण्य कर्म करने चाहिए आदि वाक्य निश्चयात्मक आदेश हैं। इसमें नकारात्मक आदेश नहीं दिए जाते अर्थात् किसी कार्य को करने से रोकने के लिए किसी प्रकार के आदेश नहीं दिए जाते। निश्चयात्मक शिक्षा में विकल्प नहीं होते।
9. दूरवर्ती शिक्षा (Distance Education) – शिक्षा मानव विकास का मूल साधन है। इसका सीधा सम्बन्ध मानव विकास से है। शिक्षा की प्रक्रिया एक सामाजिक अविरत एवं आजीवन चलने वाली गतिशील प्रक्रिया है। यदि बालक स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करता हैं तो उसे औपचारिक शिक्षा मानते हैं। किन्तु कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जबकि शिक्षा को अनौपचारिक रूप से भी ग्रहण करना पड़ता है। इसमें कोई विद्यालय में जाकर शिक्षा प्राप्त न करके दूरस्थ स्थान पर स्थित संस्था का छात्र बनकर शिक्षा ग्रहण किया जा सकता है।
सुदूर शिक्षा का अर्थ – सुदूर शिक्षा का सूत्रपात औपचारिक व परम्परागत शिक्षा प्रणाली की कमियों के कारण हुआ जिनकी वजह से शिक्षा का सार्वजनिक व्यापारीकरण न हो सके और कार्य में रत व्यक्ति भी अपने कार्य के साथ-साथ अपनी शिक्षा भी जारी रख सके। यह एक औपचारिक शिक्षा का ही स्वरूप है। यह एक ऐसा माध्यम है कि जिसमें विभिन्न कार्यों में संलग्न व्यक्ति ज्ञानार्जन कर अपना विकास कर सकते हैं, वे जो औपचारिक शिक्षा के भार को उठाने में सक्षम नहीं है। दूरस्थ शिक्षा के इस माध्यम में शिक्षण हेतु मुद्रित सामग्री प्रयुक्त की जाती है, इसमें छात्रों को निर्देशों के अनुसार कार्य करना पड़ता है और इसमें मूल्यांकन भी होता है।
सारांशतः सुदूर शिक्षा का पर्याय अनौपचारिक शिक्षा की उस विधि प्रणाली व स्वरूप से है, जिसमें किसी शिक्षक एवं शिक्षार्थी के आमने-सामने के सम्बन्ध के बिना दूरसंचार के माध्यमों से जन -जन को शिक्षित करने के लिए शिक्षा स्वयं पढ़ने वालों के द्वार तक पहुँचती है।
सुदूर शिक्षा की परिभाषा
सुदूर शिक्षा या दूरस्थ शिक्षा को विभिन्न विद्वानों ने अपने अनुसार प्रयोग किया है-
“दूरस्थ शिक्षा समस्त स्तरों की विविध प्रकार की शिक्षा है जिसमें शिक्षक स्कूल की कक्षा में अपने छात्रों के साथ लगातार एवं त्वरित निरीक्षण के लिए उपस्थित नहीं रहता है किन्तु नियोजन, निर्देशन तथा शिक्षण की शैक्षिक व्यवस्था द्वारा उन्हें कम लाभ नहीं पहुँचाता है।” –होमवर्ग
” मुक्त अधिगम की परिस्थितियाँ लचीली, स्वतंत्र व स्वच्छन्द होती हैं। छात्र अपनी इच्छा व आवश्यकता के अनुरूप अपने अध्ययन की व्यवस्था कर सकते हैं।” -डा. आर. ए. शम
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