भारत जैसे लोकतन्त्रीय राष्ट्र में शिक्षा के उद्देश्य किस प्रकार के होने चाहिए?
भारत एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाला राष्ट्र है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर आज तक हमारे राष्ट्र ने अपनी पूर्ण क्षमता के दोहन के फलस्वरूप किये गये प्रयासों से लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगति के पूर्ण प्रयास किये हैं, इन्हीं प्रयासों के कारण आज हमारी गिनती विकासशील श्रेणी के अग्रणी राष्ट्रों में होती है तथा आज भी हम एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। सही रूप से देखा जाए तो शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करके हम मंजिल को पा सकते हैं। इसी क्रम में हमें यह सुनिश्चित करना है कि लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के क्या उद्देश्य रहेंगे।
(1) लोकतान्त्रिक नागरिकता की भावना का विकास- जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि भारत एक लोकतन्त्रीय परम्परा वाला राष्ट्र है तथा लोकतन्त्र की सफलता उच्च नैतिक मूल्यों से सुसज्जित नागरिकों से ही होती है। जिस राष्ट्र में नैतिकता तथा मूल्यों के प्रति समर्पण नहीं होगा वह अपनी सरकार चुनने में कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं तथा विकासोन्मुख नीतियों का क्रियान्वयन भी उनके द्वारा नहीं हो सकता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार का होना चाहिए कि वह अपने छात्रों में तथा नागरिकों में लोकतन्त्र को भावना को मजबूत करें क्योंकि लोकतन्त्रीय भावना के विकास से ही शिक्षा के उद्देश्यों का प्रारम्भिक चरण प्रारम्भ होता है। लोकतन्त्रीय पद्धति में नागरिकता अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है, इस दायित्व बोध में ही बौद्धिक, सामाजिक व नैतिक गुण छुपे हुए हैं, जिनके दृष्टिगोचर होने की अपेक्षा स्वयं नहीं की जा सकती है, ये गुण शिक्षा के माध्यम से ही प्रकट होते हैं।
(2) नेतृत्व के गुणों का विकास- शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य नागरिकों में लोकतन्त्रीय भावना के साथ-साथ नेतृत्व के गुणों का विकास करना भी है। जीवन के अनेक क्षेत्रों में आज के छात्र ही भविष्य में नेतृत्व की कमान संभालेंगे इसलिए शिक्षा का यह मूलभूत उद्देश्य बन जाता है कि वे सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक क्षेत्रों में नेतृत्व की बागडोर छात्रों के हाथों में दें तथा उन्हें प्रशिक्षित करके एक अच्छा नागरिक बनाने के साथ-साथ नेतृत्व का गुण भी उन्हें प्रदान करें। माध्यमिक शिक्षा परिषद् ने इस सम्बन्ध में कहा है कि जनतन्त्रीय भारत में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।
(3) समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना – प्रत्येक व्यक्ति की अनेक प्रकार की आवश्यकतायें होती हैं। इनमें से कुछ तो वह अकेले ही पूर्ण कर लेता है तथा कुछ को पूर्ण करने में उसे समाज के अन्य व्यक्तियों की सहायता लेनी होती है। इस प्रकार सहायता लेने के फलस्वरूप उसके अन्दर तक सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भी जन्म लेती है कि जिस प्रकार उसकी सहायता की गई है उसी प्रकार वह भी दूसरे व्यक्तियों की सहायता करें। इस प्रकार एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना भी शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्यों में शामिल है।
(4) निःस्वार्थ कार्य की भावना- वर्तमान समय भौतिकता का है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने ‘स्वार्थ में इस प्रकार खोया हुआ रहता है कि उसका सम्बन्ध दया, मानवता, सेवा, परोपकार, त्याग, बलिदान जैसी भावनाओं से लगभग समाप्त हो गया है। अपना कार्य जिस व्यक्ति से होता है। हम उससे अपने सम्बन्धों की दुहाई देकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं परन्तु जिन व्यक्तियों से हमें कार्य नहीं है उनकी तरफ *से हम उदासीन रहते हैं। इस प्रकार की मनोवृत्ति हमारे समाज, राष्ट्र के लिए घातक है। जब तक व्यक्ति में अपने स्वार्थ को छोड़कर निःस्वार्थ भाव से दूसरे की सहायता करने की भावना जाग्रत नहीं होगी तब तक समाज में दूरियाँ बनी रहेगी। हमारी शिक्षा के उद्देश्यों में इस भावना का भी स्थान होना चाहिए कि हम निःस्वार्थ भाव से मानव हित के लिए कार्य कर सकें।
(5) आन्तरिक शक्तियों का विकास- आधुनिक शिक्षा पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। कि वह मनुष्य के अन्दर की शक्तियों व उसकी सुपुष्ट भावनाओं को जाग्रत कर सकें तथा उनका विकास कर सकें। मनुष्य की कल्पना, तर्क आलोचना, स्मरण तथा विपरीत परिस्थितियों में निर्णय लेना अच्छे-बुरे तथा ऊँच-नीच की समझ इन गुणों का विकास करना भी शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्य में शामिल होना चाहिए तथा अच्छाइयों को ग्रहण करने की भावना पर जोर दिया जाना चाहिए।
(6) वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास- सही अर्थों में देखा जाए तो आज की शिक्षा की प्रमुख आवश्यकता मनुष्य के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना होनी चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तात्पर्य यह है कि प्रत्येक तथ्य को तर्क की कसौटी पर कसकर उसको मानना चाहिए। समाज में प्रचलित मानदण्ड पर अन्धविश्वास न करके व्यक्ति को अन्धविश्वासों, अवैज्ञानिक तथ्यों विचारधाराओं व धारणाओं का त्याग करना चाहिए। जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थन करके सदैव सही व तार्किक बातों का ही पालन करना चाहिए। इन गुणों का विकास तभी हो सकता है जब व्यक्ति के अन्दर तर्क करने व सोच-विचार कर निर्णय करने की शक्तियों का विकास हो तथा ये शक्तियाँ उसे शिक्षा के माध्यम से हो प्राप्त होंगी तथा शिक्षा इस प्रकार के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में पूर्णरूप से सक्षम हैं।
(7) राष्ट्रहित का दृष्टिकोण- लोकतन्त्रीय राष्ट्र में शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि छात्रों में राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों का बोध हो तथा वे राष्ट्रहित को भी महत्त्वपूर्ण मानें। इन्हीं भावनाओं से राष्ट्र के चरित्र का निर्माण होता है। छात्रों को इस प्रकार की भावना का विकास करना होगा कि वे इस प्रकार का कोई कार्य न करें जो राष्ट्र के तथा समाज के हित में न हो तथा जिसके करने से स्वयं उनका तथा राष्ट्र का अपमान हो तथा समाज में बदनामी हो। इन्हीं भावनाओं का विकास करना शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल है।
(8) उत्पादन में वृद्धि – किसी भी देश की प्रगति व खुशहाली का एक मार्ग यह है कि राष्ट्र आत्म निर्भर हो। राष्ट्र को सभी क्षेत्रों में खुशहाली प्राप्त करने के लिए आत्म निर्भर होना पड़ेगा। खेती में, तकनीकि क्षेत्र में, चिकित्सा, व्यापार, वाणिज्य, औद्योगिक प्रगति के क्षेत्र में हमें अपने उत्पादन में वृद्धि करनी होगी जिससे हम प्रत्येक क्षेत्र में आत्म-निर्भर हो सकें। शिक्षा के माध्यम से छात्रों को उनके भविष्य में देश के खाद्यान्नों व उद्योगों में आत्म-निर्भर करने की प्रेरणा प्रदान की जानी चाहिए। इसी क्रम में हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा का व्यावसायीकरण करके उच्च शिक्षा के स्तर पर कृषि तथा विज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर बल दिया जाये।
(9) सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक गुणों का विकास करना- शिक्षा के अनेक लाभ हैं, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है तथा शिक्षा के समुचित प्रबन्ध से हमें अनेक क्षेत्रों में लाभ भी पहुँचता है परन्तु इस भौतिक प्रगति के अलावा अन्य ऐसे गुण भी मनुष्य में होते हैं जो शिक्षा के माध्यम से जाग्रत किये जा सकते हैं। हम शिक्षा के माध्यम से अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, प्रबन्धक तो पैदा कर सकते हैं परन्तु इन सबसे भी आवश्यक है कि पहले छात्रों को एक अच्छा इंसान बनाया जाये। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए छात्रों में सामाजिक, नैतिक व आध्यात्मिक गुणों को बाहर लाया जाता है जो उनके अवचेतन मन में दबे हुए हैं इस प्रकार शिक्षा का मूल उद्देश्य भौतिक विकास के साथ-साथ छात्रों का आध्यात्मिक विकास करना भी है। इस सम्बन्ध में शिक्षा आयोग का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि “भारत में विज्ञान तथा आत्म सम्बन्धी मूल्यों को निकट एवं संगति में लाने का प्रयास करना चाहिए जो सम्पूर्ण मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, न कि उसके व्यक्तित्त्व को किसी विशेष खण्ड को। “
उपरोक्त तथ्यों का अध्ययन करने पर हम कह सकते हैं कि शिक्षा का कोई भी उद्देश्य अपने आप में पूर्ण नहीं है, किसी-न-किसी रूप में सभी उद्देश्य परस्पर सम्बन्धित हैं।
वैसे कुछ शिक्षा शास्त्री इस बात पर बल देते आये हैं कि शिक्षा का एक सर्वव्यापक उद्देश्य होना चाहिए जिसके अन्तर्गत शिक्षा के सभी उद्देश्य समाहित हो जायें। इस दृष्टिकोण से इन्होंने स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित पूर्ण जीवन के उद्देश्य का दृढ़तापूर्वक समर्थन किया है।
वर्तमान समय में जीवन की जटिलता के सम्बन्ध में यह कहना ही उचित होगा कि शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों में समन्वय हो तथा इस समन्वित उद्देश्य के साथ ऐसी अनेक क्रियायें संलग्न हों जो मानव जीवन का सर्वांगीण विकास करने में सहायक हों।
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