सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं?
सामाजिक विकास- जन्म के समय बच्चा न सामाजिक होता है, न असामाजिक समाज के संपर्क में आने के बाद ही उसमें सामाजिकता या असामाजिकता आती है। दूसरे शब्दों में जब बच्चा संसार में आता है, तो वह समाज की परंपराओं, रीति-रिवाजों तथा जातीय क्रियाकलापों आदि सामाजिक प्रतिमानों से अनभिज्ञ होता है, परंतु जन्म के साथ ही उस पर सामाजिक प्रतिमानों का प्रभाव पड़ना प्रारंभ हो जाता है। आयु बढ़ने के साथ साथ बच्चा सामाजिक परंपराओं का अनुकरण करने लगता है और कुछ समय बाद वह एक सामाजिक प्राणी बन जाता है। अतः सामाजिक विकास का अभिप्राय सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता प्राप्त करना है।
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नवजात शिशु जब इस संसार में आता वह समाज की परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा जातीय ‘क्रियाकलापों आदि सामाजिक प्रतिमानों से अनभिज्ञ होता है। परन्तु जन्म काल से ही शिशु के अनुभवों और व्यवहार पर इन सामाजिक प्रतिमानों का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो जाता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ बच्चा इन सामाजिक प्रतिमानों एवं मानदण्डों का अनुसरण करना आरम्भ कर देता है और कुछ ही वर्षों में सामाजिक प्राणी के रूप में उभरकर सामने आता है। बच्चे के सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक प्रतिमानों का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है। प्रत्येक समाज के अपने सामाजिक नियम होते हैं। सामाजिक विकास प्रक्रिया में व्यक्ति अपने सांस्कृतिक सामाजिक मानदण्ड समूह की प्रत्याशाओं अनुसार व्यवहार करना सीखता है। सामाजिक व्यवहार सीखने की प्रक्रिया समाजीकरण कहलाती है।
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सामाजिक विकास एक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में होने वाली निरन्तर समाजीकरण की प्रक्रिया है। सामाजिक विकास व्यक्ति में विशिष्ट सामाजिक कौशलों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है, जिससे प्रभावपूर्ण सामाजिक सम्बन्धों व विकास में सहायता मिलती है। सामाजिक विकास स्वतः या संयोग से नहीं होता है, बल्कि यह एक काल व्यय प्रक्रिया है, जिसमें चेतन प्रयासों, पर्याप्त अभिप्रेरणा तथा उपयुक्त अवसरों की आवश्यकता होती है। चाइल्ड के अनुसार- “सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानदण्डों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।” हरलॉक के अनुसार — “सामाजिक विकास का अर्थ सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार करने की योग्यता को अर्जित करना है।” सामाजिक प्रत्याशाओं से अभिप्राय उन आशाओं से है, जो प्रत्येक समूह द्वारा अपने विशिष्ट सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण में अपने बच्चों से उनकी आयु विशेष को ध्यान में रखते है, जैसे बच्चे अपने माता-पिता से स्नेह करें, उनकी आज्ञा का पालन करें, निश्चित आयु में स्कूल जाना प्रारम्भ कर दें आदि। जैसे-जैसे बच्चा विकसित होता है वह अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों, माता हुए करता पिता, परिवार के सदस्यों, सहपाठियों आदि के विचारों तथा भावों को ग्रहण करता है। इस प्रकार बच्चे के अनुभवों पर, उसकी प्रत्यक्ष क्रियाओं तथा उसके समाजीकरण पर उसकी संस्कृति विशेष का प्रभाव पड़ता है।
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी होने के कारण अकेले सम्पूर्ण जीवन का निर्वाह नहीं कर सकता है। वह केवल भौतिक सम्बन्धों के लिए ही एक-दूसरे पर निर्भर नहीं होता है, बल्कि अपनी मानसिक तथा संवेगात्मक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी दूसरों से अन्तः क्रिया करता है। समाज में होने वाली परस्पर प्रतिक्रियाओं में कुछ दुःखद तथा मन-मुटाव (वैमनस्य) उत्पन्न करने वाली अन्तःक्रियाएँ भी हो सकती हैं, परन्तु व्यक्ति समाजिक स्वीकृति तथा आत्म-पहचान के लिए अपने अप्रिय अनुभवों की चोट को कम करके सामाजिक अन्तःक्रियाओं के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति विकसित कर लेता है। एक व्यक्ति जिसमें पर्याप्त सामाजिक कौशलों का विकास नहीं हुआ है अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में दुखी एवं अवांछित अनुभव करता है। इस प्रकार सामाजिक विकास का व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन पर प्रभाव पड़ता है। अतः एक व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है कि वह दूसरे व्यक्तियों के साथ मिल-जुल कर रहना सीखे। बच्चा सामाजिक व्यवहार प्रतिमानों को जीवन के प्रारम्भिक काल में ही ग्रहण कर लेता है। बच्चे के विकास के प्रारम्भिक काल में यदि उसका वातावरण सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुकूल रहा है तो बहुत सीमा तक यह सम्भावना है कि बड़ा होकर बच्चा एक अपेक्षित सामाजिक व्यक्ति बनेगा दोषपूर्ण सामाजिक विकास के कारण बच्चे का व्यवहार अन्तःमुखी प्रकार का हो सकता है। वह सामाजिक प्रत्याशाओं के प्रतिकूल व्यवहार सीख सकता है। कागन एवं मॉस के अनुसार बच्चे के प्रारम्भिक सामाजिक अनुभव बाल्यावस्था एवं अन्य विकास अवस्थाओं में उसकी सामाजिक सहभागिता को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। व्यक्ति की सामाजिक स्वीकृति का उनकी सामाजिक क्रियाओं तथा सहभागिता तथा मूल्यों के अनुरूप व्यवहार करना सामाजिक परिपक्वता समाज के मूल्यों प्रत्याशाओं तथा सामाजिक भूमिकाओं आदि में किसी प्रकार की कठिनाइयों के कारण द्वन्द्वों की स्थिति उत्पन्न होने पर द्वन्द्वों पर काबू पा लेने की योग्यता तथा सामाजिक समायोजन अच्छे सामाजिक विकास के मापदण्ड हैं। बच्चे का सामाजिक विकास जितना अच्छा होगा उसका विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ समायोजन भी उतना ही अच्छा होगा। सामाजिक समायोजन अच्छा होने पर उसकी सामाजिक स्वीकृति भी अधिक होती है, जिससे व्यक्ति में सामाजिक अनुरूपता एवं परिपक्वता अधिक पाई जाती है।
सामाजिक विकास के प्रतिमान
विकास के अन्य पहलू की भाँति सामाजिक विकास का भी एक प्रतिमान होता है। यह विकास क्रमबद्ध अनुक्रम में उत्पन्न होने वाले सामाजिक व्यवहार में स्वतः व्यक्त होता है अर्थात् विभिन्न अवस्थाओं में सुव्यवस्थित सामाजिक व्यवहार के प्रकट होने में ही सामाजिक विकास के प्रतिमान व्यक्त होते हैं। प्रतिमानों का क्रम सभी बच्चों में समान रूप से होता है। शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास से प्रभावित होता हुआ सामाजिक विकास का क्रम विशेष संस्कृति समूह की आवश्यकताओं के प्रत्युत्तर में विकसित हो जाता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक आयु स्तर पर सभी संस्कृतियों के बच्चों में सामाजिक विकास लगभग एक निश्चित मात्रा में तथा समान रूप से होता है। सामाजिक समूह का दबाव अर्थात् माता-पिता तथा अन्य सामाजिक अभिकर्ताओं का दबाव बच्चों के व्यवहार में विद्यमान सामाजिक मानदण्डों के अनुसार विकास की ओर अग्रसर करता है। माता-पिता समाजीकरण की कुछ प्रतिविधियों को अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व देते हैं जो किसी विशेष संस्कृति में सामाजिक विकास के प्रतिमानों का निर्धारण करती है।
इन विकास प्रतिमानों के ज्ञान के आधार पर बच्चों के प्रशिक्षण की योजना बनाई जा सकती है। जैसा पहले वर्णन किया गया है कि बच्चे के विकास के लिए परिपक्वता आवश्यक है। वह कब अपेक्षित प्रत्युत्तर देने लगता वह अवस्था उसके वास्तविक सामाजिक विकास का प्रारम्भ है। सामान्यतया यह अवस्था लगभग 3 वर्ष से 4 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होती है। जो बच्चे स्वस्थ एवं तीव्र बुद्धि वाले होते हैं वे सामान्यतः अपनी आयु के सामान्य बुद्धि वाले दूसरे बच्चों की अपेक्षा सामाजिक सम्बन्धों के विकास में तीव्र होते हैं। बच्चों में सामाजिक कौशलों का क्रमबद्ध विकास अपने सहोदरों, अभिजात समूह एवं वयस्कों के साथ अन्तःक्रिया करने के पर्याप्त अवसरों पर निर्भर होता है।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास दो चरणों में होता है-
1. पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
2. उत्तर या पश्चात् बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
1. पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक विकास-
बच्चे द्वारा केवल स्वयं में रुचि दर्शाना शैशवावस्था की विशेषता होती है। सभी वस्तुएँ एवं व्यक्ति बच्चे द्वारा आत्म-सन्तुष्टि के साधन के रूप में जाने जाते हैं। सभी क्रियाओं का आत्मनिष्ठता के रूप में चरित्र चित्रण किया जाता है। इस अवस्था में बच्चे की सामाजिक उत्तेजनाओं के प्रति अनुक्रियाएँ मुस्कुराकर, हंसकर, रोकर तथा मुखाकृति एवं हाथों की गतिविधियों द्वारा प्रकट होती हैं। जैसे लगभग दो वर्ष की आयु तक बच्चा अनेक सामाजिक प्रतिक्रियायें करने लगता है, जैसे माँ की आवाज पहचानना, गर्दन घुमाकर कर पीछे देखना, मुस्कराना, अपरिचित व्यक्तियों का भयभीत होना, शिशुओं तथा वयस्कों में रुचि लेना, भाषा का अनुकरण करना, हंसकर व शारीरिक क्रियाओं द्वारा भावनाओं की अभिव्यक्ति करना तथा खिलौनों की छीना-झपटी व सहयोग द्वारा ध्यान आकर्षित करना आदि। इस अवस्था में बच्चा घर से बाहर के व्यक्तियों तथा वस्तुओं में भी रुचि दर्शाने लगता है। पूर्व बचपनावस्था में बच्चे प्रायः खेल द्वारा ही दूसरों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं। वे खेल द्वारा ही सहभाग एवं सहयोग, आक्रामकता, अनुकरण, आश्रितता तथा ध्यानाकर्षित करना इत्यादि सामाजिक व्यवहार सीखते हैं।
खेलते समय बच्चा बड़े बच्चों का अनुकरण करता है। अनुकरण द्वारा मुखाकृतियों, भावनाओं एवं संवेगों, भाषा तथा अन्त में सम्पूर्ण व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है। अनुकरण की प्रक्रिया समाजीकरण का मुख्य कारक है। प्रारम्भ में बच्चा वयस्कों या एक दो बच्चों के साथ थोड़े समय के लिए खेलता है, परन्तु अधिकतर समय में वह दूसरे बच्चों को खेलते हुए देख कर या उनकी क्रियाओं का अनुकरण करके बहुत खुश होता है। परिवार या अभिजात समूह की ये अन्तःक्रियाएँ बच्चे की उचित-अनुचित का अन्तर सिखाती हैं, जो सामाजिक चेतना के विकास में सहायक होती हैं। यद्यपि सामाजिक व्यवहार के उग्र पक्ष नकारवाद, आक्रमण, ईर्ष्या, झगड़ा एवं छेड़ना इत्यादि असामाजिक व्यवहार हैं फिर भी वह समाजीकरण प्रक्रिया के लिए अपरिहार्य एवं आवश्यक हैं। 9 से 12 मास की अवधि में आक्रमण, ईर्ष्या व अवरोधी व्यवहार उत्पन्न होते हैं। बच्चा बाल्यकाल में अकेला नहीं रहना चाहता। परन्तु बच्चे का जितना अति संरक्षण होता है उसमें अधिकता का गुण उत्पन्न होता जाता हैं लगभग 13½ से 2 वर्ष की आयु में बच्चों में दूसरे बच्चों के प्रति सहभाग एवं सहयोग के लक्षण दिखाई देते हैं। 2 वर्ष की आयु से ही बच्चा अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए रोता है। कपड़े व बालों को खींचता है या वर्जित कार्य करता है। इसके अतिरिक्त इस अवस्था में बच्चा सहानुभूति एवं उदारता को भी अभिव्यक्त करता है।
2. उत्तर या पश्चात् बाल्यावस्था में सामाजिक विकास –
इस अवस्था में बच्चा व्यक्तिगत खेलों ‘की अपेक्षा समूह खेलों में अधिक रुचि लेता है। घर से बाहर साथी खिलाड़ियों के साथ वह खुश रहता है, क्योंकि अचेतन रूप से वह घर से बाहर अपनी सामाजिक स्वीकृति चाहता है। इस अवस्था में मुख्यतः पर्व बाल्यावस्था के गुणों एवं विशेषताओं का ही विकास होता है। शारीरिक, मानसिक, क्रियात्मक और विचारात्मक प्रक्रियाओं की भाषा द्वारा अभिव्यक्ति अच्छी प्रकार से विकसित हो जाने के कारण, इस अवस्था में बच्चे समूह खेलों एवं गतिविधियों में भाग लेने लगते हैं। अतः इस अवस्था को गिरोह आयु भी कहते हैं। बच्चे अपनी पसंद के अनुकूल समूहों की ओर अग्रसर होते हैं जो मुख्यतया सामूहिक क्रीड़ा क्रियाओं में रुचि लेते हैं। ये क्रियाएँ सामाजिक तथा असामाजिक दोनों प्रकार की हो सकती हैं। इस अवस्था में विभिन्न गिरोहों की परस्पर लड़ाई सामान्य विशेषता होती है। लड़के-लड़कियों की अपेक्षा गिरोहों में अधिक सम्मिलित होते हैं। लड़कों के गिरोह का नेता आयु से बड़ा, शारीरिक रूप से सबल और अधिक उत्साही लड़का होता है। जबकि लड़कियों की नेता प्रायः सुन्दर, कोमल या बुद्धिमान लड़की होती है। सामान्यतः गिरोह अपनी क्रीड़ा-क्रियाएँ तथा व्यवहार के प्रतिमान स्वयं निर्धारित करते हैं। बच्चा कभी एक गिरोह का सदस्य होता है तो कभी दूसरे का और कभी-कभी स्वतन्त्र रूप से भी व्यवहार करता है। 8 वर्ष की आयु तक वह सामूहिक खेलों में अधिक रुचि रखता है।
उत्तर-बाल्यावस्था में बच्चे सामाजिक व्यवहार के कुछ प्रतीकात्मक प्रतिमानों को सीखते हैं। इस अवस्था में बच्चे सामाजिक अनुमोदन चाहते हैं। सुझाव ग्रहणशीलता इस अवस्था में सर्वाधिक पाई जाती है। 7-8 वर्ष की आयु में बच्चा अपने गिरोह के नेता से सर्वाधिक प्रभावित होता है, अतः उनके सुझाव ग्रहण करता है। इस अवस्था में निषेधात्मक व्यवहार (सुझाव के विपरीत कार्य) भी देखा जाता है। गिरोह आयु के समूह में अपनी पहचान या वयस्क एवं समूह सदस्यों में द्वन्द्व के कारण प्रतिस्पर्धा भी पाई जाती है। समूह की सदस्यता से सम्बन्धित ये अन्तः क्रियाएँ अन्त में बच्चों को कुछ सामाजिक मूल्यों जैसे निष्ठा एवं सहानुभूति आदि के विकास में सहायता देती हैं। भिन्न-भिन्न समूहों के प्रति निष्ठा होने के कारण बच्चों में सामाजिक विभेदीकरण विकसित जाता है। उत्तर बाल्यावस्था में धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक स्तर तथा यौन के आधार पर तीव्र पूर्वाग्रह विकसित हो जाते हैं। 3-4 वर्ष की आयु के बच्चे ये पूर्वाग्रह घर तथा बाहर की अन्तःक्रियाओं से सीखते हैं। विशेषतः वयस्कों द्वारा यह सामाजिक विभेदीकरण बच्चों को सिखाया जाता है। इस अवस्था में प्रत्येक बच्चा अपनी आयु के अनुसार कार्य करना, नियमों का पालन करना आदि सीख जाता है। 3 से 3½ वर्ष की आयु कुछ सीमा तक अपना उत्तरदायित्व समझने लग जाता है। वह अपना कार्य स्वयं करने लग जाता है तथा प्रायः अपने से छोटे बच्चों को सम्भालने का उत्तरदायित्व भी लेने लगता है। उत्तर बाल्यावस्था में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में उत्तरदायित्व की भावना अधिक पाई जाती है इस अवस्था में बच्चों में सामाजिक सूझ भी काफी मात्रा में पाई जाती हैं जिसमें अपेक्षित सामाजिक मानदण्डों के अनुसार अपना व्यवहार परिवर्तित कर सकते हैं। सामाजिक सूझ का विकास आयु के साथ-साथ होता है। सामाजिक सूझ सामाजिक प्रत्यक्षीकरण पर आधारित होती है। सामाजिक सूझ का समायोजन पर भी प्रभाव पड़ता है। पूर्व बाल्यावस्था में लड़के-लड़कियों में परस्पर अन्तर नहीं समझते हैं तथा विपरीत यौन के बच्चों की क्रियाओं में 6-7 वर्ष की अवस्था से लड़के और लड़कियों में कुछ मात्रा में विरोधी भाव उत्पन्न हो जाते हैं। वे परस्पर एक-दूसरे की रुचियों, कौशलों और क्रीड़ा-क्रियाओं को पसन्द नहीं करते हैं। यौन विरोधी भावना की अधिकता के कारण लड़के तथा लड़कियों में उच्चता एवं हीनता की भावना, उनके व्यवहार पर कुप्रभाव डालती है।
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