सामाजिक विकास का अर्थ
सामाजिक विकास का अर्थ- सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करने की योग्यता को ग्रहण कर लेना ही सामाजिक विकास कहलाता है।
सामाजिक विकास का परिभाषा
कुंडू एवं टूटू के अनुसार सामाजिक विकास से अभिप्राय है – “सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करने की योग्यता को ग्रहण करना। “
हरलॉक के अनुसार सामाजिक विकास का अर्थ है- “सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता ग्रहण करना । “
एलकिन्ड और बेनर के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चे उन सामाजिक निर्णयों और आत्म-नियंत्रण को प्राप्त करते हैं जो उनके समाज के जिम्मेदार प्रौढ़ सदस्यों के लिये आवश्यक होते हैं।”
सोरेन्सन ने सामाजिक विकास के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है- “सामाजिक वृद्धि और विकास से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली प्रकार चलने की बढ़ती हुई योग्यता से है। “
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि केवल समाज ही मनुष्य को सभ्य बनाता है। सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करने की योग्यता, सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता ग्रहण करना, दूसरों साथ सहयोग करने की योग्यता ग्रहण करना, समाज की परम्पराओं और रीति-रिवाजों के अनुकूल स्वयं को ढालने की योग्यता व आत्म-नियंत्रण प्राप्त करने की योग्यता आदि सामाजिक विकास के विभिन्न पक्ष हैं।
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सामाजिक विकास के पक्ष
सामाजिक विकास की प्रक्रिया बहुत विस्तृत प्रक्रिया हैं इनमें विभिन्न पक्षों को शामिल किया जाता है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में भाग लेने वाले पदों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है, जो कि निम्नलिखित हैं-
1. समाजीकरण
2. सामाजिक परिधि का विस्तार
1. समाजीकरण-
समाजीकरण प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक निम्नलिखित बातें सीखता है—(a) समाज की रीति-रिवाज, (b) समाज के नियम (c) समाज की परम्पराओं के अनुसार व्यवहार करना, (d) समाज के अनुसार स्वयं को ढालना बच्चों के सामाजिक सम्बन्धों की संख्या की अपेक्षा सामाजिक सम्बन्धों के प्रकार अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।
2. सामाजिक परिधि का प्रसार-
सामाजिक विकास की प्रक्रिया के दौरान सामाजिक परिधि का भी विस्तार होता है अर्थात् इस प्रक्रिया के दौरान बालक सामाजिक रीति-रिवाजों को सीखने के साथ-साथ अपनी सामाजिक परिधि का भी विस्तार करता रहता है। बालक पर स्थानीय समुदाय का सदस्य बनकर कई प्रकार के समूहों का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। बालक के सामाजिक विकास के इस पक्ष के अन्तर्गत बालक समूह व्यवहार करना सीखता है। बालक के समूह के सदस्यों के साथ सहानुभूति, सहयोग तथा मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने की योग्यता ग्रहण करता है। गैरट के अनुसार– “बच्चे का जैविक व्यक्ति से मनुष्य के रूप में परिवर्तित होना ही समाजीकरण या सामाजिक विकास की प्रक्रिया है।” एक अध्ययन के अनुसार प्रतिभावान् बच्चे तीव्रता से सामाजिक परिपक्वता ग्रहण करते हैं तथा मंद बालक धीमी गति से।
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बालक के सामाजिक विकास या समाजीकरण में अध्यापक की भूमिका
अध्यापक का बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। शिक्षक के स्नेह, पक्षपात, अच्छे-बुरे व्यवहार आदि का सभी बच्चों पर प्रभाव पड़ता है। वह कक्षा और खेल के मैदान में, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्रियाओं में बालकों के सामने सामाजिक व्यवहार के आदर्श प्रस्तुत करता है। बालक अपनी अनुकरण की मूल प्रवृत्ति के कारण शिक्षक के ढंगों, कार्यों, आदतों और रीतियों का अनुकरण करता है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि शिक्षक सदैव सतर्क रहे। उसके कथनों तथा कार्यों की छाप छात्र पर लग जाती है।
अध्यापक भी बच्चे के व्यक्तिगत व सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं स्कूल शिक्षा का एक औपचारिक साधन है तथा क्रमबद्ध रूप से बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान करता है। वास्तव में स्कूल बच्चे को वहाँ से उठाता है जहाँ से उसका परिवार उसे छोड़ता है। अध्यापक शिक्षा के द्वारा बच्चे में वह सांस्कृतिक मूल्य पैदा करता है, जो इस समाज व संस्कृति में मान्य होते हैं। स्कूल में खेल में खेल प्रक्रिया द्वारा बच्चे सहयोग, अनुशासन, सामूहिक कार्य आदि सीखते हैं। इस प्रकार स्कूल बच्चे में आधारभूत सामाजिक व्यवहार तथा व्यवहार के सिद्धान्तों की नींव डालता है।
इसके साथ शिक्षक स्नेह, पक्षपात, अच्छे और बुरे व्यवहार आदि का बच्चों पर प्रभाव पड़ता है। वह कक्षा और खेल के मैदान में, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्रियाओं में बालकों के सामने सामाजिक व्यवहार के आदर्श प्रस्तुत करता है। बालक अपने अनुकरण की मूल प्रवृत्ति के कारण शिक्षकों के कार्यों, आदतों “और रीतियों का
अनुकरण करता है। अतः यह अध्यापक का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह बच्चों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें क्योंकि अध्यापक के कथनों तथा कार्यों की छाप छात्र पर लग जाती है। बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान करने के लिए शिक्षक को निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए—
(i) अभिभावकों से समय-समय पर सम्पर्क स्थापित करना और छात्र के विकास के सम्बन्ध में सोचना तथा कार्य करना।
(ii) अपने समाज की संस्कृति का छात्र को ज्ञान देना।
(iii) छात्रों के सामने सामाजिक आदर्श उपस्थित करना ।
(iv) छात्रों को स्कूल की परम्पराओं से परिचित करना।
(v) विभिन्न सामाजिक योजनाओं तथा सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करना।
(vi) स्कूल में विभिन्न परिवारों से आए हुए बालकों के अन्दर सांस्कृतिक भावना का विकास करना।
(vii) उसे समय-समय पर अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए तथा मिल-जुल कर बच्चे के विकास के सम्बन्ध में सोचना चाहिए तथा कार्य करना चाहिए।
(viii) बच्चे को सामाजिक संस्कृति व समाज में प्रचलित मान्यताओं का ज्ञान देना चाहिये।
(ix) छात्रों के सामने सामाजिक आदर्श स्थापित करना चाहिए।
(x) छात्रों को स्कूल की परम्पराओं से परिचित करवाना चाहिए।
(xi) अध्यापक को छात्रों के साथ स्नेह तथा सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
(xii) अध्यापक के द्वारा बालकों को विभिन्न सामाजिक योजनाओं तथा सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
(xiii) अध्यापक को छात्रों तथा प्रधानाचार्य आदि के साथ मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने चाहिये। अतः सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि अध्यापक उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर बालकों में उचित व्यक्तिगत और सामूहिक सम्बन्धों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
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