रूसो की शैक्षिक विचारधारा का वर्णन कीजिए।
रूसो की शैक्षिक विचारधारा (Educational Thoughts of Rousseau)
जहाँ तक रूसो के शिक्षा दर्शन और शिक्षा के क्षेत्र में इनकी देन का सम्बन्ध है, पाश्चात्य जगत में प्लेटो और कमेनियस के बाद इनका ही नाम आता है। एक बार तो इनके शैक्षिक विचारों ने शिक्षा जगत में क्रान्ति ही मचा दी थी परन्तु वास्तविकता यह है कि इनके शैक्षिक विचार जितनी तेजी से शिक्षा जगत में स्वीकार किए गए थे, कुछ दिनों बाद उतनी ही तेजी से अस्वीकार भी कर दिए गए।
शिक्षा की अवधारणा (Concept of Education) रूसो शिक्षा को प्राकृतिक क्रिया मानते थे। इनका स्पष्टीकरण था कि सीखना मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है अतः उसे अपनी प्रकृति के अनुसार ही सीखने देना चाहिए। इसमें दो मत नहीं कि सीखने की इच्छा और सीखने की शक्ति को जन्म से प्राप्त होती है परन्तु सीखता वह तभी है जब उसके और सिखाने वाले के बीच अन्त क्रिया होती है। इसीलिए आज शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जाता है।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education) – रूसो ने शिक्षाकाल को चार स्तरों में बाँटा और चारों काल की शिक्षा के लिए अलग-अलग उद्देश्य निश्चित किए। इनके द्वारा निश्चित शिक्षा के उद्देश्यों को हम इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं शारीरिक विकास, इन्द्रिय प्रशिक्षण, बौद्धिक विकास, भावात्मक विकास, जीने की कला अधिकारों की रक्षा और स्वतन्त्र व्यक्तित्व का निर्माण।
रूसो के उद्देश्य सम्बन्धी विचारों को यदि ध्यानपूर्वक देखा समझा जाए तो उसमें आज की दृष्टि से कुछ दोष हैं। ये शिक्षा के एक स्तर पर किसी एक उद्देश्य की प्राप्त पर बल देते थे। इन्होंने शासनतन्त्र और नागरिकता की शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं समझी जबकि आज की यह एक बड़ी माँग है और इन्होंने मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास को कोई स्थान नहीं दिया। है और आज स्थिति यह है कि लोग भौतिकता से ऊब चुके हैं और वास्तविक सुख और शान्ति की खोज में आध्यात्मिकता की ओर लौट रहे हैं। आज शिक्षा द्वारा मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता है।
शिक्षा की पाठ्यचर्या (Curriculum) – विकास की दृष्टि से मनुष्य को भिन्न आयु स्तरों में बाँटने का रूसो ने जो प्रयास किया है, शिक्षा जगत में उसका महत्त्व अवश्य है पर भिन्न आयु स्तर पर निश्चित शिक्षा के उद्देश्य और पाठ्यचर्या से आज के विद्वान पूर्णरूपेण सहमत नहीं हैं। बच्चों को . समाज से दूर रखकर उनकी शिक्षा की बात, जन्म से 5 वर्ष तक केवल शारीरिक विकास पर ध्यान देने की बात 12 वर्ष तक इन्द्रियों के प्रशिक्षण की बात और फिर भाषा गणित, इतिहास, भूगोल एवं उद्योग की शिक्षा की बात, आज के विद्वानों को स्वीकार नहीं है।
शिक्षण विधियाँ (Methods of Teaching) शिक्षा के क्षेत्र से कृत्रिमता दूर करने का रूसो का प्रयास प्रशंसनीय है। इन्होंने कहा कि बच्चों के समाज के कृत्रिम एवं दोषपूर्ण पर्यावरण से दूर प्रकृति की गोद में रखकर उसकी शिक्षा का विधान करना चाहिए। प्रकृति की ओर लौटो (Back to Nature) इनका पहला नारा था। इन्होंने बच्चों को छोटा प्रौढ़ मान कर उन्हें प्रौढों के कर्त्तव्यों का ज्ञान कराने की अनुदेशन एवं कथन पद्धति का विरोध किया। इन्होंने कहा कि बच्चा, बच्चा होता है, छोटा प्रौढ़ नहीं, उसकी शक्ति, रुचि एवं रुझान प्रौढ़ों से भिन्न होती हैं। अतः उस पर आदर्शों का बोझ नहीं डालना चाहिए, उसे स्वतन्त्र रूप से, करके सीखने देना चाहिए। करके सीखना एक स्वानुभव द्वारा सीखना इनका दूसरा नारा था। इनकी यह बात आज सभी मानते हैं।
अनुशासन (Discipline) – अनुशासन के क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता का नारा रूसो की ही कही जायेगी। बच्चों को किसी भी समय अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने की छूट नहीं दी जा सकती, इससे तो अव्यवस्था ही हाथ लगेगी। इनका यह विचार कि प्रकृति बच्चों के बुरे कार्यों के लिए उन्हें स्वयं दण्ड देगी और वे उन कार्यों को करना छोड़ देंगे जिनसे उनको दुःख मिलेगा, युक्ति संगत नहीं है। मनुष्यों के सहस्त्रों वर्षों के अनुभव का परिणाम है- उसकी सामाजिक व्यवस्था एवं नैतिकता। मनुष्य के उचित विकास के लिए उसे सामाजिक बन्धनों में रखना हो होगा।
शिक्षक (Teacher) – समाज एवं सामाजिक संस्थाओं के विरोध में रूसो द्वारा शिक्षक को भी दोषपूर्ण मान लेना उचित नहीं कहा जा सकता। इनका यह विचार भी दोषपूर्ण है कि अध्यापक का कार्य बच्चों के केवल प्राकृतिक विकास में सहायता करना है। अध्यापक को बच्चों को मानव उपलब्धियों से परिचित कराकर उन्हें शीघ्र से शीघ्र उससे आगे बढ़ने के लिए तैयार करना ही होगा। हाँ, रूसो की। यह बात आज सभी स्वीकार करते हैं कि शिक्षक को अनुदेशक के रूप में नहीं, पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए।
शिक्षार्थी (Student)- रूसो इस युग के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता की आवाज उठाई। शिक्षा के क्षेत्र में भी ये बच्चों के व्यक्तित्व का आदर करते थे और उनकी शिक्षा की व्यवस्था उनकी रुचि, रुझान और योग्यतानुसार करने पर बल देते थे। रूसो से पहले शिक्षा या तो शिक्षक केन्द्रित थी या पाठ्यक्रम केन्द्रित रूसो ने इसे बाल केन्द्रित बनाने पर बल दिया। आज संसार के किसी भी देश की शिक्षा में बच्चों के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है।
विद्यालय ( School)- रूसो की यह बात मान्य है कि विद्यालयों का निर्माण दूषित समाज से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में करना चाहिए। समाज के दोषों को दूर करने का उपाय शिक्षा ही है। अतः विद्यालयों का पर्यावरण आदर्श होना चाहिए, समाज के दोषों से मुक्त होना चाहिए। पर उनमें बच्चों को केवल अपनी प्रकृति के अनुकूल विकास करने की स्वतन्त्र सुविधाएँ प्रदान करने की उनकी बात बड़ी अटपटी है। यदि विद्यालयों में किसी प्रकार की समय-सारणी न होगी, उनकी कार्य प्रणाली निश्चित नहीं होगी और अध्यापक को यह पता नहीं होगा कि उसे क्या क्यों और कैसे करना है तो विद्यालयों में किसी प्रकार की व्यवस्था सम्भव नहीं होगी और हम बच्चों को एक पशु से अधिक और कुछ नहीं बना सकेंगे। मनुष्य के कार्य की विशेषता उसकी सुनियोजितता ही होती है, अनियोजित कार्यों से मनुष्य विकास के पथ पर बढ़ ही नहीं सकता था।
शिक्षा के अन्य पक्ष (Other Aspects of Education)- रूसो शिक्षा को चर्च (धर्म) और राज्य के बन्धन से मुक्त करना चाहते थे। जहाँ तक शिक्षा को चर्च के बन्धन से मुक्त करने की बात है आज पूरा संसार उनके मत से सहमत है, लेकिन राज्य के बन्धन से मुक्त करने का कोई विकल्प दिखाई नहीं देता। आज तो शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है। पर इस सुधार के साथ कि राज्य व्यक्ति और राज्य, दोनों के हितों को सामने रखकर इसकी व्यवस्था करेगा।
रूसो ने जन शिक्षा की आवश्यकता पर तो बहुत बल दिया परन्तु इस शिक्षा की व्यवस्था कौन करेगा, इस विषय में अपना कोई मत नहीं दिया। ऊपर से शिक्षा को चर्च और राज्य के नियन्त्रण से मुक्त करने का नारा और बुलन्द किया। आज जन शिक्षा के सम्बन्ध में रूसो के विचार मान्य नहीं हैं। आज जन शिक्षा से अर्थ स्त्री-पुरुष सभी के लिए सामान्य अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा के लिए जाता है और इसकी व्यवस्था करना राज्य का कर्तव्य माना जाता है।
रूसो के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी विचार भी आज मान्य नहीं हैं। ये स्त्रियों को केवल गृहकार्य की शिक्षा देने के पक्ष में थे जबकि आज स्त्री-पुरुष सभी को सामान्य शिक्षा अनिवार्य रूप से और विशिष्ट एवं उच्च शिक्षा अपनी-अपनी रुचि, रुझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के समान अवसर देने पर बल दिया जाता है।
को जीने की कला सिखाना चाहते थे और इसके अन्तर्गत उसके व्यावहारिक विकास पर बल देते थे परन्तु इन्होंने इसकी शिक्षा की अलग से कोई व्यवस्था करने की बात उस समय नहीं सोच पाई। आज सामान्य शिक्षा के बाद व्यावसायिक शिक्षा शुरू करने पर बल दिया जाता है और इसके लिए अलग से शिक्षण संस्थाओं की स्थापना पर बल दिया जाता है।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में रूसों के विचारों में समरूपता नहीं है। एक ओर इन्होंने पुस्तक सोशल कान्ट्रेक्ट में धर्म और नैतिकता के नाम पर सामान्य जनता के शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई है और दूसरी ओर अपनी पुस्तक ‘एमिल’ में एमिल (नायक) और सोफिया (नायिका) दोनों के लिए धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का विधान किया है। सच बात यह है कि ये धर्म विरोधी नहीं थे धर्म के नाम पर पादरियों द्वारा भोली जनता के शोषण के विरोधी थे।
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