शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति ने शिक्षा में कौन-सी नयी विचारधाराओं को उत्पन्न किया?
शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति ने शिक्षा की निम्न नई धाराओं को जन्म दिया।
(1) व्यावसायिक शिक्षा– शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति में व्यक्ति को एक आत्म-निर्भर व्यक्ति बनाने का प्रयास किया गया। एक योग्य नागरिक का आवश्यक गुण है कि वह आत्म-निर्भर बने तथा समाज के ऊपर एक बोझ न बने तथा अपनी पूरी क्षमताओं से समाज का विकास करने का प्रयत्न करे। इस योग्यता का विकास करने में व्यक्ति को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस व्यावसायिक शिक्षा के विकास व प्रगति में हमारे समाज की वैज्ञानिक प्रगति का बहुत योगदान है। जीविका को प्राप्त करने की दृष्टि से अनेक पाठ्यक्रम हमारी शिक्षा व्यवस्था का भाग बन चुके हैं। इस प्रकार व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था तथा विचार ने हमारी शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति में एक नये विचार को जन्म दिया।
(2) विशिष्ट उद्यम- में शिक्षा समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति के कारण शिक्षा में जहाँ बहुत सारे व्यवसाय की शिक्षा प्रदान की जाती है वहीं किसी एक विशिष्ट उद्योग की शिक्षा में पारंगत करने की शिक्षा की व्यवस्था भी की गई। सबसे पहले इस प्रवृत्ति का लाभ जर्मनी ने उठाया तथा उसने उद्यम विशेष का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की। बाद में अन्य यूरोपीय राष्ट्रों ने भी इस ओर ध्यान दिया तथा अपने यहाँ उच्च व्यावसायिक व विशिष्ट क्षेत्र की शिक्षा की व्यवस्था करायी। जर्मनी में कृषि, लकड़ी, उद्योग, लकड़ी काटने आदि का भी प्रशिक्षण प्राप्त करने की तरफ ध्यान दिया गया।
(3) नैतिक शिक्षा– का विकास लगातार हो रही वैज्ञानिक तथा व्यावसायिक, आर्थिक प्रगति ने धर्म को लगभग मनुष्य के मस्तिष्क से भुला ही दिया। लोग धार्मिक आस्थाओं के लिए समय देना पसन्द नहीं करते थे तथा उनमें तर्क क्षमता का विकास होने लगा था तथा व्यवसायों के केन्द्रीकरण होने से लोगों में आर्थिक भावना घर कर गई तथा जीवन के धार्मिक व नैतिक पक्ष को वे भुला बैठे। समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति के कारण लोगों ने सामाजिक मान्यताओं को निर्धारित किया तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की। आज नैतिक शिक्षा का स्वरूप किस प्रकार का हो ये आज गम्भीरता से सोचा जा रहा है। पिछले कई वर्षों से यूरोप के सभी देशों में नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जा रहा है। फ्रांस में किसी भी धर्म या सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं दी जाती है वहाँ नैतिक शिक्षा का आधार आचरण माना जाता है। इंग्लैण्ड तथा जर्मनी में नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में धर्म को स्थान दिया गया है। आज प्रजातान्त्रिक विचारधारा के प्रभाव से नैतिक शिक्षा का आधार आचरण को माना जाता है तथा धर्म को इससे दूर कर दिया गया है।
(4) मानसिक रोग- से प्रभावित बच्चों की शिक्षा शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति के कारण जो नये विचार उत्पन्न हुए उनमें एक प्रमुख विचार मानसिक रोगों से ग्रस्त बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में था। आज इस प्रकार के बालकों की शिक्षा के लिए भी प्रयत्न किये जा रहे हैं। 1837 में एडवर्ड सेग्विन ने इस प्रकार के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए एक तकनीक का अविष्कार किया। इसमें इन बच्चों की ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजित करके उनके मस्तिष्क को जाग्रत करने का प्रयास किया जाता है। समाजशास्त्र के अनुसार, शिक्षा का उत्तरदायित्व राज्य का तथा इसीलिए राज्य को सामान्य तथा मन्द बुद्धि के सभी है बालकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये। इस सन्दर्भ में जिनकी शिक्षा का उत्तरदायित्व राज्य ने नहीं उठाया उनका उत्तरदायित्व धार्मिक व अन्य परोपकारी संस्थाओं ने लिया। इस प्रकार के बालकों के लिए स्कूल प्राय: प्रत्येक राष्ट्र में आवश्यकता से कम हैं।
(5) अन्धे व बधिर बालकों की शिक्षा – इस प्रवृत्ति के कारण इस प्रकार के बालकों की शिक्षा का प्रबन्ध हुआ जो अन्धे तथा बहरे थे। सर्वप्रथम एक फ्रांसिसी एवडी ऐपी ने इस पद्धति को प्रारम्भ किया। यह व्यवस्था शारीरिक कार्य पर आधारित थी तथा इसका प्रसार लगभग प्रत्येक यूरोपीय देशों में हुआ । जर्मनी ने शारीरिक कार्य के अतिरिक्त मौखिक शिक्षा प्रणाली को भी जन्म दिया जिसका आज बहुत महत्त्व है।
(6) तीव्र बुद्धि वाले असाधारण बालकों की शिक्षा व्यवस्था – शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति ने असाधारण बुद्धि वाले बालकों की शिक्षा की व्यवस्था की। इस सम्बन्ध में फ्रांसिसी मनोवैज्ञानिक एल्फ्रेड बिने का योगदान प्रमुख है। बिने ने असाधारण बालकों की बुद्धि परीक्षा की प्रणाली का अविष्कार किया। इस प्रणाली में पहले बालक की बुद्धि का परीक्षण किया जाता है तथा उसके बाद उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। आज के समय में अमेरिका असाधारण बालकों की शिक्षा व्यवस्था में सबसे आगे है तथा थार्नडाइक ने इस सम्बन्ध में अमेरिका में बहुत कार्य किया है।
(7) अन्य कार्य– समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति से शिक्षा में अनेक नये विचार व नई धाराओं का जन्म हुआ है। आज शिक्षा के केन्द्रीकरण की माँग पर बल दिया जा रहा है। शिक्षा के पाठ्यक्रम में बालकों के शारीरिक तथा मानसिक विकास को ध्यान में रखा जाता है। डाक्टरों के द्वारा स्कूल में स्वास्थ्य की जाँच की जाती है तथा अभिभावकों को भी बालकों के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में सुझाव दिये जाते हैं। आज शिक्षा को एक व्यवसाय के रूप में चलाया जा रहा है तथा इसके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर ध्यान दिया जाने लगा है। इसके अतिरिक्त शिक्षक आज अपनी माँगों को मनवाने के लिए संगठन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाते हैं तथा छात्रों के संगठन भी सरकार व विद्यालयों से छात्र हित में सुविधायें प्राप्त करते हैं। इस प्रकार शिक्षा की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति से शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्ति आ गई जिसके फलस्वरूप समाज में एक शैक्षिक जाग्रति उत्पन्न हो गयी है।
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