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शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्त्व एंव सीमाएँ | Importance and Limitations of Educational Sociology in Hindi

शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्त्व एंव सीमाएँ | Importance and Limitations of Educational Sociology in Hindi
शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्त्व एंव सीमाएँ | Importance and Limitations of Educational Sociology in Hindi
शैक्षिक समाजशास्त्र का क्या महत्त्व है? इसकी सीमाएँ क्या हैं ? 

शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्त्व

समाज में शिक्षा की भूमिका अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्त्व इसके निम्न तथ्यों से प्रकट होता है-

1. प्राचीन काल में शिक्षा का क्षेत्र संकुचित था तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए ये सुलभ नहीं थी। जातियों में बँटा हमारा समाज निचली श्रेणी की जातियों को इस योग्य नहीं समझता था कि ये शिक्षा प्राप्त करें, वेदों के अध्ययन का अधिकार केवल ब्राह्मणों को था। आज यह परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। आज के समाज में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह शिक्षा प्राप्त करे। शैक्षिक समाजशास्त्र प्रत्येक व्यक्ति को समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझता है अतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी पसंद व क्षमता के आधार पर शिक्षा प्राप्त कर सकता है। शिक्षा प्राप्त करने में व्यक्ति को किसी भी प्रकार के भेद-भाव का सामना नहीं करना पड़ता है।

2. शैक्षिक समाजशास्त्र व्यक्ति को इस योग्य बना देता है कि वह संस्कृति को विकसित व संरक्षित कर सके। संस्कृति के विकास से आधुनिक समय में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को महत्त्व मिलता है तथा मानवीयता का प्रसार होता है।

3. शैक्षिक समाजशास्त्र द्वारा अनेक परम्पराओं तथा समाज के नियमों का निर्माण व संरक्षण किया, जाता है जो समाज के हित में होते हैं। समाज द्वारा समय पर सुधार किये हुए नियमों व परम्पराओं को ही अग्रसर किया जाता है जिससे ये अपनी सही रूप में आगे आकर समाज का विकास कर सकें।

4. शैक्षिक समाजशास्त्र से व्यक्ति अनेक प्रकार की सामाजिक संस्थाओं का निर्माण करता है तथा इन संस्थाओं से समाज का व देश का विकास होता है। इन संस्थाओं में किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता है। व्यक्ति जिस व्यवसाय में लग जाता है उसी में निपुण होकर उसी के अनुसार ढल जाता है, इस प्रकार की प्रवृत्ति से समाज का विकास होता है।

5. शैक्षिक समाजशास्त्र से व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करके समाज में अपना स्थान सुनिश्चित करता है तथा व्यावहारिक जीवन में एक सफल व्यक्ति बन सकता है। इसके प्रभाव में व्यक्ति शिक्षित होकर इस प्रकार समाज से अपने को जोड़ लेता है कि उसे किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है तथा ये प्रवृत्ति स्वयं व्यक्ति के लिए व समाज के लिए सकारात्मक होती है।

6. शैक्षिक समाजशास्त्र शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति को इस प्रकार का बना देता है कि वह अपना जीवन शान्ति से व सुख से व्यतीत कर सके। वास्तविक जीवन व व्यावहारिक जीवन को शिक्षित व्यक्ति समझ जाते हैं तथा समाज की उन्नति को ध्यान में रखते हुए वे कार्य करते हैं। इस प्रकार व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाने का कार्य भी शैक्षिक समाजशास्त्र के द्वारा होता है।

शैक्षिक समाजशास्त्र की सीमाएँ

इस तथ्य में कोई सन्देह नहीं है कि शिक्षा का सामाजिक पक्ष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है परन्तु यह भी सत्य है कि केवल सामाजिक पक्ष ही शिक्षा के विकास के लिए अपर्याप्त है। शिक्षा के विकास व उसकी प्रगति के लिए केवल सामाजिक पक्ष पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता है।

शिक्षा के समाजशास्त्रीय पक्ष से भी अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसका दार्शनिक पक्ष है। शिक्षा का समाजशास्त्रीय पक्ष केवल संस्थाओं, समूहों तथा सामाजिक प्रक्रियाओं का ही अध्ययन करता है परन्तु वास्तव में समाज कैसा होना चाहिये ? समाज के क्या उद्देश्य हों, जीवन के क्या उद्देश्य हों ? वास्तविक जीवन या वास्तविक शिक्षा क्या है ? इस बारे में समाजशास्त्री नहीं बता सकता है इस बारे में जानने के लिए शिक्षा के दर्शन को समझना आवश्यक है।

व्यक्ति तथा समाज दोनों की मनोवैज्ञानिक स्थिति में शिक्षा का क्या प्रभाव ज्ञात होता है अर्थात् जब तक हमें व्यक्ति तथा समाज की मनोवैज्ञानिक स्थिति का ज्ञान नहीं होगा तब तक शिक्षा प्रभावशाली नहीं होगी। इस प्रकार हमें मनोविज्ञान की भी आवश्यकता होती है।

इस प्रकार से स्पष्ट है कि शिक्षा के विकास में समाजशास्त्र ही नहीं अपितु अन्य कई विषयों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा इसी कारण शैक्षिक समाजशास्त्र की अपनी सीमायें होती हैं।

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