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“पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” व्याख्या कीजिए।

"पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।" व्याख्या कीजिए।
“पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” व्याख्या कीजिए।

“पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” व्याख्या कीजिए। 

दर्शन मनुष्य के चिन्तन की उच्चतम सीमा है। इसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप, सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान और मनुष्य के करणीय-अकरणीय कर्मों का तार्किक विवेचन किया जाता है। अतः ज्ञान की वह शाखा जिसमें अन्तिम सत्य (Ultimate Reality) की खोज की जाती है दर्शनशास्त्र कहलाती है। आज संसार के प्रायः सभी सभ्य देशों में दर्शन का विकास हो रहा है। भारत दर्शन की गुरुस्थली माना जाता है। भारत के बाद इस क्षेत्र में यूनान देश का नाम आता है।

ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ज्ञान प्राप्त करने वाले के सम्बन्ध में कहते हैं- “वह व्यक्ति जो सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखता है और सीखने के लिये सदैव उत्सुक रहता है, और कभी भी सन्तोष करके रुकता नहीं है, वास्तव में दार्शनिक है। परन्तु सब कुछ जानने से उनका अर्थ सब कुछ के पीछे छिपे मूल तत्व को जानने से था। उनके ही शब्दों में-

“पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।”

प्लेटो की दर्शन विषयक उपरोक्त परिभाषा तत्वमीमांसीय है। उनके अनुसार, “दर्शनशास्त्र का उद्देश्य वस्तुओं के अनन्त तथा वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है।” प्लेटो ने बताया है कि ज्ञान केवल आकारों का हो सकता है। वह सोफिस्टो के इस मत को स्वीकार करते हैं कि ज्ञान इन्द्रियों से नहींहो सकता क्योंकि ज्ञान के लिये अनिवार्यता और सार्वभौमिकता आवश्यक है और ये दोनों आकारों से सम्बन्धित हैं। प्लेटो के समय से आज तक यह माना जाता रहा है कि ज्ञान प्रमाणों पर आधारित एक सत्य विश्वास है। प्लेटो के अनुसार विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है।

प्लेटो ने ज्ञान को तीन रूपों में विभाजित किया है इन्द्रियजन्य सम्मतिजन्य और चिन्तनजन्य इन्द्रियजन्य ज्ञान को वह असत्य मानते थे क्योंकि इन्द्रियों द्वारा हम जिन वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सब परिवर्तनशील और असत्य हैं। सम्मतिजन्य ज्ञान को वह आंशिक रूप में सत्य मानते थे क्योंकि वह भी अनुमानजन्य होता है और अनुमान सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। उनके अनुसार चिन्तनजन्य ज्ञान ही सत्य होता है क्योंकि वह हमें विचारों के रूप में प्राप्त होता है और विचार अपने में अपरिवर्तनशील और एतदर्थ सत्य होते हैं। इस सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिये प्लेटो ने नैतिक जीवन पर बल दिया है और नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिये विवेक पर। इस प्रकार उनकी दृष्टि में ज्ञान का आधार विवेक होता है।

प्रत्ययों की दुनिया का ज्ञान इन्द्रियातीत है। यह चिन्तन का ही विषय है। विशेष पदार्थों का ज्ञान निम्न कोटि का होता है। एक पदार्थ किसी को हरा तो किसी को सफेद दिखाई पड़ सकता है। पदार्थों के रूप व परिमाण के विषय में लोग अलग-अलग धारणाएँ रख सकते अतः यह भी ज्ञान कहलाने का पात्र नहीं है। इससे श्रेष्ठ ज्ञान रेखागणित में होता है। एक त्रिकोण की एक भुजा दो अन्य भुजाओं के योग से छोटी है, यह ज्ञान सम्मति का विषय नहीं है क्योंकि सभी त्रिकोणों की बाबत यही सत्य है। गणित के सत्य से भी ऊँचे स्तर पर तत्व-ज्ञान है। प्लेटो की दृष्टि में तत्व-ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है। उनके अनुसार संसार सत् और असत् दोनों का संयोग है। प्रत्ययों की नकल होने के कारण सांसारिक पदार्थ सत् हैं और एकता व अस्थिरता के अभाव के कारण ये असत् हैं।

प्लेटो ने द्वन्द्वात्मक पद्धति को अपनाकर एक निश्चित ज्ञान की ओर संकेत किया है। उन्होंने मत, कल्पना और प्रत्यक्ष में अन्तर किया है तथा इन्हें वास्तविक ज्ञान नहीं माना है। उनके लिये वास्तविक ज्ञान बुद्धिजन्य है। अतएव प्रत्यय मात्र का वास्तविक ज्ञान होता है और वही सत्य है। प्लेटो ने प्रत्यय-जगत और वस्तु-जगत के द्वन्द्व को स्वीकार किया है लेकिन वस्तु-जगत को वास्तविक नहींमाना है बल्कि उसे मात्र प्रत्यय-जगत का प्रतिविम्ब कहा है। यदि प्रत्यय-जगत के प्रतिबिम्ब के रूप मे वस्तु-जगत को माना जाये तो वस्तु जगत असत्य है। यदि वस्तु-जगत को प्रत्यय जगत का प्रतिबिम्ब माना जाये तो वस्तु-जगत सत्य है।

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