बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारक
बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारक निम्नलिखित हैं
1. शारीरिक बनावट और स्वास्थ्य- जिन बालकों का शरीर सुसंगठित और सुन्दर होता है, उन्हें अपने समूह और समाज में अच्छा स्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार के बच्चों का समाज की भिन्न परिस्थितियों में समायोजन अच्छा होता है। फलस्वरूप इनका सामाजिक विकास अन्य बालकों की अपेक्षा शीघ्र और सामान्य होता है। स्वस्थ सुन्दर बच्चे खेलकूद में होशियार और आगे होते हैं। अतः इनको सामाजिक परिस्थितियों में सीखने के अवसर अधिक प्राप्त होते हैं। रंग-रूप में भेद या बेडौल बच्चे, गूँगे, बहरे, अन्धे आदि बच्चों के साथ सब बच्चे खेलना भी पसन्द नहीं करते और न मित्रता स्थापित करना अधिक पसन्द करते हैं। अतः इन्हें सामाजिक अवसर कम प्राप्त होते हैं और इनका सामाजिक विकास अन्य बच्चों की अपेक्षा पिछड़ जाता है। शरीर और स्वास्थ्य की दृष्टि से कमजोर बच्चे अपनी कमजोरियों के कारण धीरे-धीरे अन्तर्मुखी हो जाते हैं। इन बच्चों में सामाजिकता के गुण, मित्रता और सहयोग आदि गुणों का अधिक विकास नहीं हो पाता है।
2. परिवार — परिवार का वातावरण तथा परिवार का सामाजिक-आर्थिक स्तर बालकों के सामाजिक विकास को बड़े महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। इन कारकों के अतिरिक्त परिवार का आकार भी सामाजिक विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता हैं। डिंकमेयर का विचार है कि छोटे परिवारों में बच्चों को अधिक लाड़-प्यार तो मिलता ही है, साथ ही उनकी देखभाल भी अच्छी होती हैं। इस अवस्था में उनमें सद्गुणों के विकसित होने की तथा सामान्य सामाजिक विकास होने की सम्भावना अधिक होती है। बड़े परिवार में बच्चों का लाड़-प्यार और देखभाल उतना नहीं हो पाता है, परन्तु उन्हें अन्य बच्चों के व्यवहार के अनुकरण के अवसर अधिक प्राप्त हो जाते हैं। फलस्वरूप उनका सामाजिक विकास शीघ्र तो होता है, परन्तु उन बच्चों के अनुरूप होता है जिनके व्यवहार का अनुकरण किया है। सहयोग, उत्तरदायित्व, पक्षपात, तिरस्कार प्रारम्भ में बालक परिवार से ही सीखते हैं। परिवार के सदस्यों का जैसा सामाजिक व्यवहार होता है, बालक भी बहुत कुछ उसी प्रकार का व्यवहार सीख लेता है। परिवार का सामाजिक-आर्थिक स्तर भी बालक के सामाजिक समायोजन को प्रभावित करता है। निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले परिवारों के बच्चों में हीनता की भावना हो सकती हैं जिससे वे उत्तरदायित्व सम्भालने में कठिनाई का अनुभव करते हैं तथा आत्मविश्वास की कमी के कारण सामाजिक परिस्थितियों में उतना सफल नहीं हो पाते हैं जितना कि उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले परिवारों के बच्चे।
3. पड़ोस और विद्यालय- बालक का सामाजिक विकास किस प्रकार का होगा, यह उसके पड़ोस और स्कूल से भी निर्धारित होता है। बालक के पड़ोस में रहने वाले बच्चों और वयस्कों के सामाजिक व्यवहार का भी प्रभाव बालक पर पड़ता है। पड़ोस में किस प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम होते हैं, कैसा सामाजिक वातावरण हैं, आदि कारक भी बालक के सामाजिक विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। विद्यालय में शिक्षक और बालक के मित्र भी बालक के सामाजिक विकास में योगदान देते हैं। विद्यालय में बालक को अपनी आयु के अनेक बालकों के साथ बैठने और सीखने का अवसर ही नहीं मिलता है बल्कि उसे बड़े बच्चों के सामाजिक अनुभव सुनने और सामाजिक व्यवहार को देखने का अवसर भी मिलता है। इन अवसरों से उसकी सामाजिक सूझ, सामाजिक प्रत्यक्षीकरण बढ़ता है। फलस्वरूप वह समाज के विभिन्न मूल्यों से सम्बन्धित व्यवहार का अधिगम करता है। विद्यालय के अनेक कार्यक्रमों में भाग लेकर भी वह अनेक सामाजिक व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है। विद्यालय से से वह सहयोग, मित्रता, उत्तरदायित्व और आत्मनिर्भरता आदि सीखता है।
4. मनोरंजन – बालक को मनोरंजन की जितनी ही अधिक सुविधाएं प्राप्त होती हैं। उतना ही अधिक वह घूमने-फिरने, खेल-तमाशों और मित्रों में व्यस्त रहता हैं। इस प्रकार की सुविधाएँ अधिक प्राप्त होने पर बालक का स्वभाव हँसमुख प्रकार का हो जाता है। अपने इस स्वभाव के कारण उसे सामाजिक परिस्थितियों में सफल समायोजन करने में सहायता मिलती है। फलस्वरूप उसका सामाजिक विकास शीघ्र होता है। मनोरंजन के साधनों और अवसरों की बहुलता में बालक में समाज विरोधी व्यवहार के उत्पन्न होने की भी सम्भावना कम होती है। मनोरंजन की सुविधाओं के फलस्वरूप उसमें सामाजिक विकास सामान्य ढंग से होता है, बल्कि उनका सामाजिक विकास सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुरूप होता है।
5. व्यक्तित्व — बालकों का व्यक्तित्व भी उनके सामाजिक विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। यह देखा गया है कि जिनमें अनुपयुक्तता तथा हीनता की सम्भावनाएँ होती हैं, उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। इस प्रकार के बालकों का विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में समायोजन उपयुक्त नहीं होता है। इस प्रकार के बालकों का सामाजिक विकास भी अनुपयुक्त होता है।
6. संवर्द्धन अभिप्रेरक- यह जिन व्यक्तियों में अधिक होता है, उनका सामाजिक विकास सामान्य ढंग से ही नहीं होता है बल्कि तीव्र गति से भी होता है। मित्र-मण्डली, परिवार और पड़ोस के बच्चों में समय व्यतीत करने वाले बालकों में संवर्द्धन अभिप्रेरणा अधिक मात्रा में पायी जाती हैं। शैचटर (1959) ने इस दिशा में अपने अध्ययनों के आधार पर यह स्थिर किया कि चिन्ता से संवर्द्धन अभिप्रेरणा की वृद्धि होती है और संवर्द्धन अभिप्रेरणा की अधिकता से बालकों के सामाजिक विकास की दर बढ़ जाती है।
7. संवेगात्मक विकास- सामाजिक विकास की दिशा में हुए अध्ययनों में यह देखा गया है कि जो ‘बालक विनोदप्रिय और हँसमुख होते हैं, उनके दोस्त और साथी समूहों की संख्या अधिक होती है। इस प्रकार के बालकों में सामाजिक विकास भी अन्य प्रकार के बालकों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाया जाता है। इस दिशा में हुए अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि जो बालक चिड़चिड़े होते हैं या क्रोधी स्वभाव के होते हैं उनके मित्रों और साथी समूहों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, उनका सामाजिक विकास भी अपेक्षाकृत कम होता है।
8. हीनता का भावना- यह देखा गया है कि जिन बालकों में हीनता की भावना अधिक मात्रा में पायी जाती है उनमें सामाजिक विकास कम गति से होता है। ये बालक दूसरे बालकों से मिलते-जुलने में कटे-कटे से रहते हैं। अपनी हीनता की भावना के कारण उनमें आत्मविश्वास भी कम हो जाता है जिससे उन्हें अपना सामाजिक दायरा बनाने में कठिनाई होती है।
9. साथी समूह – एक बालक की मित्र-मण्डली जितनी ही बड़ी होती है उसके साथी समूहों की संख्या उतनी ही अधिक होती है। उसके सामाजिक मूल्यों और सामाजिक प्रतिमानों को सीखने की सम्भावना उतनी ही अधिक होती है। फलस्वरूप इन बालकों का सामाजिक विकास अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होता है। उसके इन साथी समूहों में बालक और बालिकाएँ दोनों ही होते हैं। इन साथी समूह के सदस्यों का सामाजिक विकास जिस प्रकार का होता है, बालक भी अनुकरण के द्वारा अपने साथी समूह के सदस्यों के सामाजिक व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है।
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