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Meaning of School Discipline in Hindi: विद्यालय अनुशासन का अर्थ एंव इसके प्रकार

Meaning of School Discipline: विद्यालय अनुशासन का अर्थ एंव इसके प्रकार
Meaning of School Discipline: विद्यालय अनुशासन का अर्थ एंव इसके प्रकार

विद्यालय अनुशासन की अवधारणा का उल्लेख करते हुए, इसके प्रकार और आवश्यकता का विवेचना कीजिए।

Meaning of school Discipline in Hindi (विद्यालय अनुशासन का अर्थ)- अनुशासन शब्द अंग्रजी के शब्द Discipline का हिन्दी रूपान्तरण है। Discipline शब्द Diciple से बना है जिसका अर्थ शिष्य है। शिष्य से यह आशा की जाती है कि वह गुरुओं की श्रद्धापूर्वक आज्ञा का पालन करे। इसका अर्थ आचरण में नियमितता उत्पन्न करना है जिससे उसका जीवन सफल और उपयोगी बन सके। हिन्दी में ‘डिसिप्लिन’ के कई शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जैसे— नियमन, नियंत्रण,संयम, अनुशासन आदि। नियमन वहीं प्रयोग किया जाता है जहाँ पर पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार व्यक्ति को कार्य करना पड़ता है। यंत्रण शब्द का प्रयोग उस स्थान पर किया जाता है जहाँ बलपूर्वक किसी काम को कराया जाये। संयम शब्द उस स्थान पर प्रयोग होता है जहाँ पर व्यक्ति को अपने ही बस में रहना ड़ता है। डिसिप्लिन शब्द, अनुशासन शब्द का ही अधिक उपयुक्त और प्रचलित रूप है।

अनुशासन का संकुचित अथवा प्राचीन अर्थ- प्राचीन समय में अनुशासन का अर्थ ही लोग यह लगाया करते थे कि छात्रों को शक्ति से अपने नियंत्रण में रखने पर अधिक बल दिया जाता था अर्थात् शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता था। जैसा कि प्रो. हैरिस ने लिख है— “विद्यालय का प्रथम नियम या कानून आदेश या व्यवस्था ही था, शिक्षक का प्रथम कर्त्तव्य व्यवस्था को कायम रखना था और छात्र का प्रमुख एवं प्राथमिक कर्त्तव्य नियमों एवं कानूनों का पालन तथा उसके अनुसार आचरण करना था।”

अनुशासन का आधुनिक या व्यापक अर्थ-आधुनिक समय में अनुशासन की परिभाषा की प्राचीन धारणा को एकदम बदल दिया गया। अब छात्रों में भय या डण्डे की प्रथा को समाप्त कर दिया गया। अब अध्यापक तानाशाह न होकर निर्देशक हो गया। अतः अब अनुशासन में बालक को आन्तरिक योग्यताओं और शक्तियों में आस्था रखा जाता है। अब उसको ऐसी शिक्षा दी जाती है कि छात्र अपने इच्छा से शक्ति का आदर करना सीख लें। आज की शिक्षा बाल केन्द्रित शिक्षा है। यह शक्ति पर नहीं बल्कि बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैनिक विकास पर निर्भर होता है। प्रो.टी.पी नन का कहना है—“सच्चा अनुशासन वहीं है जिसमें बालक का शरीर, आत्मा और मस्तिष्क प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। अब डण्डे का प्रयोग अनुचित समझा जाता है और आज शिक्षक का स्थान एक मित्र तथा पथ प्रदर्शक के रूप में है।

अनुशासन की परिभाषा

(1) “वही व्यक्ति अनुशासित है जिसको अपने कार्यों को समझकर इच्छानुकूल कार्य रूप में परिणित करने की प्रशिक्षा दी गयी है।”

(2) अनुशासन शक्ति है और कार्य करने के लिए उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग है। हमें क्या करना है और कैसे करना है तथा किन साधनों से करना है यह जानना ही अनुशासन है।

“अनुशासन का अभिप्राय अपनी प्रवृत्तियों को रोकर उनका नियंत्रण इस प्रकार से करना है कि विफलता व अपव्ययता के स्थान पर सफलता व मितव्ययिता प्राप्त की जा सके और विकृति के स्थान पर आकृति आ सके।’

अनुशासन के प्रकार या रूप

ऐडम्स ने अपनी पुस्तक ‘Modern Development Education Practice’ में अनुशासन की निम्नलिखित तीन रूपों की व्याख्या की है-

  1. दमनात्मक अनुशासन
  2. प्रभावात्मक अनुशासन
  3. मुक्तात्मक अनुशासन।

(1) दमनात्मक अनुशासन- इसका अर्थ है कि शिक्षकों की आज्ञाओं का पालन करना ही पड़ेगा। इसमें अध्यापक अनुशासन स्थापित रखने के लिए मारपीट, शारीरिक दण्ड और शक्ति का अधिक प्रयोग करता है। यह विश्वास किया जाता है कि “Spare the rod and Spoil the Child” अर्थात् डाण्डा हटाया कि बालक बिगड़ा। इसके पक्षपाती कहते हैं, “मास्टर साहब, यह बालक आपके सुपुर्द है, इसकी हड्डी हमारी है, माँस तो आपका है।” इसमें बालकों को मुर्गा बनाया जाता है, डण्डे से मारना, चूंसा मारना, बेतें लगाना आदि साधन हैं।

(2) प्रभावात्मक अनुशासन- इसके कठोर दण्ड के स्थान पर अध्यापकों के व्यक्तित्व द्वारा बालकों को प्रभावित कर अनुशासन में रखने की प्रशिक्षा प्रदान किया जाता है। अध्यापक और छात्र में एक नैतिक सम्बन्ध होता है। अध्यापकों को ऐसे सम्बन्धों तथा उसके कारणों के उत्तरदायित्वों को भी जानना आवश्यक है कि जैसा कि हीली महोदया लिखते हैं- “ऐसी परिस्थिति में अनुशासन स्थापित किया जाता है। बालक का चरित्र अध्यापक के चरित्र से बनता है। बालक में अनुकरण करने की शक्ति रहती है। वह अध्यापक के चरित्र का अनुकरण करता । इस सिद्धान्त से प्रेम और सम्मान का राज्य होता है, भय का नहीं।

इससे शिष्य और अध्यापक के बीच अच्छे सम्बन्ध स्थापित होते हैं, अच्छे गुणों का निर्माण होता है, आदर्शों की स्थापना होती है और कार्य में अधिक सफलता मिलती है।

(3) मुक्तयात्मक अनुशासन- यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है। इसमें बालकों को पूर्ण रूप से स्वतंत्रता दी जाती है। छात्रों की रुचियों, मूल प्रवृत्तियों, भावनाओं तथा बुद्धि के अनुसार कार्य करने का पूर्ण अवसर मिलता है जिसमें छात्रों को आत्म-प्रकाशन का अवसर मिले। रूसो, मॉण्टेसरी तथा फ्रोबेल इसके समर्थक हैं। अब विद्यालयों में दण्ड समापत हो गया है। इसका श्रेय इसी सिद्धान्त को है। स्वतंत्रता से ही अच्छे चरित्र का निर्माण होता है और व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। इन तीनों सिद्धान्तों से यह सारांश निकलता है कि इन तीनों को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे एक मध्य मार्ग को ग्रहण करना है कि जिससे बालक के व्यक्तित्व का विकास हो। वास्तव हमें बालकों को न तो अध्यापकों के आदर्शों के प्रभाव तक सीतिम रखता है और न उन्हें स्वच्छन्दता प्रदान करना है जो स्वच्छन्दता में बदल जाये बल्कि हमें मध्यम रास्ते का अनुसरण करते हुए बालकों में आत्म अनुशासन को उत्पन्न करना है।

अनुशासन का महत्त्व

अनुशासन का जीवन में बहुत महत्त्व है। इसके अभाव में व्यक्ति अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विकास नहीं कर सकता है। अनुशासन सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है। प्लेटो ने भी यह कहा है कि- “कोई भी राष्ट्र पत्थरों व पेड़-पौधों से नहीं बनता यह देश के नागरिकों के चरित्र से बनता है।”  यदि नागरिक अनुशासित है, अच्छे चरित्र वाले हैं तो देश भी उन्नति के मार्ग पर बढ़ता चला जायेगा। इतिहास गवाह है कि अनुशासनहीनता देश को परतंत्र बनाती रही है। थल सेना, वायुसेना व नौसेना में जिस तरह अनुशासन महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह विद्यालय को भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनुशासन को महत्त्वपूर्ण स्थान देना होगा। अनुशासन के अभाव में वह उद्देश्य जिसके लिये विद्यालय का निर्माण हुआ है वह धूल-धूसरित होकर रह जायेगा।

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