किशोरावस्था को ‘समस्या काल’ क्यों कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
किशोरावस्था ‘समस्या काल’ के रूप में मनोवैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री किशोरावस्था को ‘विकट अवस्था’ या ‘समस्या की अवस्था’ कहते हैं। यह पूरी तरह अनिश्चित है और अस्थिरता का काल है। अस्थिरता के इस काल में व्यक्ति बचपन की आदतों को छोड़कर परिपक्व व्यवहार की ओर अग्रसर होता है। इसी प्रकार वह बाल्यावस्था की अभिवृत्तियों में परिवर्तन करने लगता है। तीव्र शारीरिक वृद्धि के कारण इस काल में किशोर-किशोरियों के मानसिक जीवन में भयंकर उथल-पुथल होती है। किशोर बालक-बालिकाओं की अधिकांश समस्याएँ उनकी निजी समस्याएँ होती हैं, जिनका सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में उनके प्रेम और कामेच्छा से होता है। किशोर अपने माता-पिता तथा विपरीत यौन के सदस्यों के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करता है। जहाँ तक बड़ों से उसका सम्बन्ध होता है, बेचारा किशोर यह नहीं समझ पाता कि उनके सामने वह किस प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करे।
किशोरावस्था में तीव्र सांवेगिकता पैदा होती है। उसके प्रत्येक संवेग तीव्रतर रूप से प्रकट होते है। क्रोध की स्थिति में अधिक क्रोध प्रकट करना, विषमलिंगियों के प्रति अधिक आकृष्ट होना या सामाजिक स्वीकृति का भय आदि सब कुछ तीव्र रूप से में दिखाई पड़ता है। कुहलन के अनुसार—“वह स्वयं के प्रति अनिश्चित और अपनी स्थितियों के प्रति असुरक्षा का अनुभव करता है।” स्टेनले हॉल के शब्दों में— किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान या विरोध की अवस्था है। “
किशोर की व्यवहार प्रवृत्तियाँ
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन का कथन है— “कैलिर्फोनिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जोन्स और उनके साथियों ने किशोरों की विशिष्ट समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया है”
इसी अध्ययन के आधार पर स्किनर ने अधिकांश किशरों की प्रमुख व्यवहार समस्याओं अथवा प्रवृत्तियों का वर्णन किया है, जो संक्षेप में निम्नलिखित हैं-
1. किशोर का बहुत आदर्शवादी होना
2. किशोर में समायोजन की समस्या का प्रायः कठिन होना।
3. किशोर में आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने की इच्छा होना।
4. किशोर में लिंग सम्बन्धी सन्तोषप्रद कार्य करने की आकाक्षा होना।
5. किशोर के लिए व्यक्तिगत व्यवसाय सम्बन्धी निर्णय लेना आवश्यक होना ।
6. किशोर का अपनी शारीरिक शक्ति और व्यक्तिगत पर्याप्तता का मूल्यांकन करना।
7. किशोर में अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थापित करने की अभिलाषा होना।
8. किशोर का वयस्क व्यवहार की अनेक विधियों को सीखने का प्रयत्न करना ।
9. किशोर का कभी-कभी व्यक्तिगत भय, चिन्ता या अरक्षा की भावना से परेशान रहना ।
10. किशोर का कभी-कभी दूरवर्ती उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उतावला होना ।
11. किशोर का तर्कशीलता, अमूर्त विचारों और निर्णय की विधि को प्राप्त करने में संलग्न रहना।
12. किशोर के व्यवहार से परिवार और विद्यालय में प्राप्त होने वाली स्वतन्त्रता के अनुपात में आत्मानुशासन का प्रमाण मिलना।
13. किशोर का कभी-कभी भद्दा दिखाई देना और अपने समकक्ष समूह से किसी प्रकार की भिन्नता के प्रति विशेष रूप से सचेत रहना ।
14. स्किनर के शब्दों में – “किशोर के व्यवहार का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण स्वरूप, व्यक्तित्व प्रौढ़ता की दिशा में बढ़ने में लक्षित होना है। “
हम कह सकते हैं कि किशोरों में व्यवहार सम्बन्धी अनेक समस्यायें तथा व्यवहार प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि उनका ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। शिक्षक एवं अभिभावक किशोरों की समस्याओं का सतर्कता से अध्ययन करके, उसके व्यवहार को उचित दिशा प्रदान कर, उसे आत्म-सन्तोष प्रदान कर सकते हैं। हम अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि में ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन के अग्रलिखित वाक्यों को उद्धृत कर रहे हैं – “किशोर की कुछ विशिष्ट समस्याएँ होती हैं। यदि शिक्षक एवं अभिभावक, किशोरों को वयस्कावस्था में सरलतापूर्वक प्रवेश करने में सहायता देना चाहते हैं, तो उनको समान रूप से किशोरों की अनोखी समस्याओं के स्वरूप से अवगत होना चाहिए। इस कार्य के लिए आधारभूत व्यवहार सिद्धान्त, किशोरावस्था एवं प्रत्येक किशोर से सम्बन्धित विशिष्ट ज्ञान का होना पहली शर्तें हैं। “
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