किशोरों का निर्देशन एवं परामर्श
किशोरों का निर्देशन एवं परामर्श- किशोरावस्था को ‘समस्या काल’ कहा जाता है। इस अवस्था में बहुत तेजी से होने वाली शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक परिवर्तनों के कारण किशोर और किशोरी के जीवन में अस्थिरता, अस्त-व्यस्तता, उतार-चढ़ाव और हलचल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके भीतर नयी-नयी आकांक्षाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और कई प्रकार की आवश्यकता और समस्याओं से वह घिर जाता है। इस विषम स्थिति में जब उसकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति होती है, तब उसे संतुष्टि प्राप्त होती है, परन्तु सभी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं की पूर्ति गरीबी, अभावग्रस्तता, सामाजिक बंध आदि के कारण नहीं हो पाती। ऐसी दशा में किशोर का व्यवहार कभी-कभी असामान्य होने लगता है, वह कुण्ठा का शिकार हो जाता है और उसमें हीन ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
परिवार, समाज और विद्यालय के भीतर रहने वाले किशोर की समस्याओं का हल करने के लिए आवश्यक है कि उसकी आवश्यकताओं, समस्याओं और आकांक्षाओं का सतर्कतापूर्वक अध्ययन करके उसके व्यवहार को समुचित दिशा देने के लिए निर्देशन और परामर्श की व्यवस्था की जाये। इस कार्य में माता-पिता और विद्यालय की भूमिका सबसे प्रमुख है। समुचित निर्देशन और परामर्श के कारण समस्याग्रस्त किशोर को सन्तुष्टि प्राप्त होती और वह अस्थिरता के काल में अपने को सुव्यवस्थित करने में सक्षम सिद्ध होगा। किशोर और किशोरियों को निर्देशन और परामर्श देने की दृष्टि से निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं
1. शिक्षक की भूमिका- किशोरों को निर्देशन और परामर्श देने में शिक्षक की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। शिक्षक ही एक प्रकार से किशोर को सही मार्गदर्शक हैं और परामर्शदाता है। किशोर का विश्वास भी अपने अध्यापक पर सबसे अधिक होता है, इसलिए अध्यापक को निर्देशन सम्बन्धी अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह कुशलतापूर्वक करना चाहिए। विद्यालय परिस्थिति में बालक के सामाजिक व्यवहारों और निषेधात्मक संवेगों के उपरान्त होने के कारण है, इसका उसे ज्ञान होना चाहिए। अवांछित व्यवहारों और संवेगों के उत्पन्न होने पर उन्हें किस प्रकार मार्गान्तरित या शोधित किया जा सकता है, इसका ज्ञान शिक्षक को अवश्यमेव होना चाहिए। वह सदैव इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि कहीं भी बालकों की भावनाओं का अवदमन न हो। उसे बालकों को मर्यादा के भीतर मुक्त अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करना चाहिए तथा अवदमन को प्रभावित करने वाले दण्ड, डॉट-डपट का निषेध करना चाहिए। शिक्षक अपने स्नेह, प्यार और आत्मीयता से किशोर को सही राय एवं परामर्श दे सकता है।
2. शारीरिक क्षमता का प्रयोग – किशोरावस्था में शारीरिक ऊर्जा में वृद्धि बहुत तेजी से होती है। इस शक्ति का योजनापूर्वक उपयोग घर और विद्यालय से होना चाहिए। जो किशोर गाँवों से सम्बन्धित हैं। उन्हें खेती के कार्यों में परिश्रम करने की दृष्टि से लगाना चाहिए। विद्यालय में किशोर और किशोरियों को व्यायाम तथा परिश्रम वाले खेलों में लगाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर कबड्डी, खो-खो, योग आसन, बास्केटबाल, फुटबाल, हॉकी, दौड़, कूद, भाला फेंकना आदि खेलों का आयोजन किया जाना चाहिए। प्रशिक्षित व्यायाम शिक्षक का विद्यालय में होना आवश्यक है। विद्यालय की समय तालिका में स्वास्थ्य खेलकूद का घण्टा निश्चित होना चाहिए।
13. शिक्षा की व्यवस्था – शरीर और मस्तिष्क का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था बालक के स्वस्थ शारीरिक, मानसिक दशा पर निर्भर करती है, इसलिए विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा की समुचित व्यवस्था होना आवश्यक है। स्वास्थ्य शिक्षा के अन्तर्गत विद्यालय के स्वास्थ्यपूर्ण भौतिक वातावरण, स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशन को सम्मिलित किया जाता है। विद्यालय में नियमित स्वास्थ्य परीक्षण के द्वारा किशोर और किशोरियों को आवश्यक परामर्श उनके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में दिया जाना चाहिए, क्योंकि किशोरावस्था में बालक-बालिका का ध्यान अपने शरीर को मजबूत बनाने और उसे सजाने सँवारने पर अधिक रहता है। बालक-बालिकाओं को अच्छे स्वास्थ्य के गुणों के सम्बन्ध में बताया जाना चाहिए। विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा का कार्यक्रम ‘निर्देशन और परामर्श केन्द्र के अन्तर्गत संचालित होना चाहिए।
4. जीवन दर्शन की शिक्षा- किशोर बालक-बालिकाओं को माता-पिता और शिक्षक द्वारा जीवन दर्शन को शिक्षा, धार्मिक व नैतिक शिक्षा तथा ईश्वर में विश्वास की शिक्षा देकर उनका मार्गदर्शन करना चाहिए, क्योंकि किशोर स्वयं अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान के प्रति काफी सचेत होता है। वह जीवन में कुछ श्रेष्ठ और प्रशंसनीय कार्य करना चाहता है।
5. सृजनात्मक क्षमता के विकास की व्यवस्था-किशोरावस्था में बालक उच्च मानसिक क्रियाओं का प्रयोग करने के योग्य हो जाता है। वह स्वयं के विचारों और आदर्शों का निर्माण करता है। उसमें सृजनात्मकता और आदर्शों का निर्माण करता है। उसमें सृजनात्मकता की प्रवृत्ति बढ़ जाती है और वह समस्या समाधान में अधिक रुचि लेता है। किशोरों को उनकी सृजनात्मक क्षमता के विकास के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए। सृजनात्मक क्षमता विज्ञान, संगीत, कला, नृत्य, हस्तशिल्प आदि के द्वारा बढ़ायी जा सकती है। शिक्षक को शिक्षा में अपने शिक्षण व व्यवहार के माध्यम से आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। सात ही बालक-बालिकाओं को सृजनात्मकता क्षमता के विकास के लिए निर्देशन और परामर्श देकर प्रेरित करना चाहिए। सृजनात्मक कुशलता के विकास के लिए बालकों की विद्यालय से बाहर ले जाकर प्रकृति-निरीक्षण, प्रौद्योगिकी संस्थानों, विज्ञान केन्द्रों, कल-कारखानों, उत्पादन केन्द्रों, विद्युत योजनाओं आदि का निरीक्षण कराना चाहिए जिससे उनकी जिज्ञासा की पूर्ति हो और दृष्टिकोण विस्तृत हो ।
6. यौन शिक्षा की व्यवस्था – किशोरावस्था में विषमलिंगी प्रेम की स्थिति आ जाती है इसलिए बालक-बालिकाओं को यौन शिक्षा देने की आवश्यकता होती है। किशोर की सम्पूर्ण शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य उसके काम-जीवन को नियंत्रित एवं परिष्कृत करना होता है, क्योंकि उसके लिए यौन विकास एवं उसकी समस्याएँ एक रहस्य के रूप में होती हैं। ऐसी स्थिति में किशोर को काम के सम्बन्ध में समुचित ज्ञान ऐसे व्यक्ति के सुनियोजित निर्देशन के माध्यम से मिलना चाहिए, जिस पर उसका विश्वास हो । शिक्षक को चाहिए कि इस व्यवस्था में पनपने वाले कुटेवों के परिणाम से होने वाली हानियों में उसे अवगत कराये तथा उसका मार्गदर्शन करें। यौन शिक्षा का निर्देशन व परामर्श डाक्टरों के द्वारा भी दिया जा सकता है।
7. व्यक्तिगत, शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन- विद्यालय में किशोर बालक-बालिकाओं के व्यक्तिगत, शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था होनी चाहिए। व्यक्तिगत निर्देशन उनके लिए होता हैं, जिनकी अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ होती हैं। इस प्रकार का निर्देशन देते समय समस्याग्रस्त बालक की सम्पूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखना चाहिए तथा उसके प्रति व्यवहार सदैव सहानुभूतिपूर्ण हो । किशोरावस्था के बाद चूँकि अधिकांश विद्यार्थी उच्च शिक्षा, विशेष शिक्षा और रोजगार की ओर उन्मुख होते हैं इसलिए उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन अवश्यमेव दिया जाना चाहिए।
8. विद्यालय में निर्देशन एवं परामर्श केन्द्र-विद्यालय में अलग से किसी उपयुक्त कक्ष में निर्देशन एवं परामर्श केन्द्र होना चाहिए जहाँ परामर्शदाता के रूप में कोई अनुभवी और किशोरों में आत्मीयता रखने वाला शिक्षक नियुक्त हो। वह परामर्श केन्द्र ऐसा होना चाहिए जहाँ किशोर संकोच-रहित होकर अपनी समस्याओं के सम्बन्ध में बातचीत कर सके और समुचित परामर्श प्राप्त कर सके। परामर्शदाता | शिक्षक सदैव उसे एक सच्चे मित्र के रूप में दिखाई पड़ना चाहिए।
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