किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ- किशोरावस्था को दबाव, तनाव एवं तूफान की अवस्था माना गया है। इस अवस्था की विशेषताओं को एक शब्द ‘परिवर्तन’ में व्यक्त किया जा सकता है।
विग व हण्ट के शब्दों में—“किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है – ‘परिवर्तन’ । परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है। ” जिन परिवर्तनों की ओर ऊपर संकेत किया गया है, उनसे सम्बन्धित विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
1. शारीरिक विकास – किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस काल में किशोर के शरीर में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, जैसे- भार और लम्बाई में तीव्र वृद्धि, माँसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढ़ता, किशोर में दाढ़ी और मूँछ की रोमावलियों एवं किशोरियों में प्रथम मासिक स्त्राव के दर्शन। कोलेसनिक का कथन है— “किशोरों और किशोरियों दोनों को अपने शरीर और स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता रहती है। किशोरों के लिए सबल, स्वस्थ और उत्साही बनना एवं किशोरियों के लिए अपनी आकृति को नारी जातीय आकर्षण प्रदान करना महत्त्वपूर्ण होता है।”
2. मानसिक विकास-किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है। उसमें विशेष रूप से अग्रलिखित मानसिक गुण पाये जाते हैं—कल्पना और दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि, विरोधी मानसिक दशायें। कोलेसनिक के शब्दों में “किशोर की मानसिक जिज्ञासा का विकास होता है। अतः वह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में रुचि लेने लगता है। वह इन समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचारों का निर्माण भी करता है।”
3. घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता- किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं और जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है। वेलेनटीन का कथन है— “घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।’
4. व्यवहार में विभिन्नता- किशोर में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। यही कारण है कि वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है, उदाहरणार्थ, किसी समय वह अत्यधिक क्रियाशील होता है और किसी समय अत्यधिक काहिल, किसी परिस्थिति में साधारण रूप से उत्साहपूर्ण और किसी में असाधारण रूप से उत्साहहीन बी.एन. झा ने लिखा है- “हमारे सबके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है, पर किशोरावस्था में यह व्यवहार विशेष रूप से स्पष्ट होता है। “
5. स्थिरता व समायोजन का अभाव-रॉस ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है, क्योंकि किशोर बहुत कुछ शिशु के समान होता है। उसकी बाल्यावस्था की स्थिरता समाप्त हो जाती है और वह एक बार फिर शिशु के समान अस्थिर हो जाता है। उसके व्यवहार में इतनी उद्विग्नता आ जाती है और वह शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और अपने वातावरण से समायोजन नहीं कर पाता है। अतः रॉस का मत है— “शिशु के समान किशोर को अपने वातावरण से समायोजन करने का कार्य फिर आरम्भ करना पड़ता है।”
6. स्वतन्त्रता व विद्रोह की भावना- किशोर में शारीरिक और मानसिक स्वतन्त्रता की प्रबल भावना होती है। वह बड़ों के आदेशों, विभिन्न परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अन्धविश्वासों के बन्धनों में न बँधकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ती है। कोलेसनिक का कथन है— “किशोर, प्रौढ़ों को अपने मार्ग में बाधा समझता है, जो उसे अपनी स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त करने से रोकते हैं। “
7. काम शक्ति की परिपक्वता- कामेन्द्रियों की परिपक्वता और काम शक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं में समान लिंगों के प्रति आकर्षण होता है। इस अवस्था के उत्तरकाल में यह आकर्षण विषम लिंगों के प्रति प्रबल रुचि का रूप धारण कर लेता है। फलस्वरूप, कुछ किशोर और किशोरियाँ लिंगीय सम्भोग का आनन्द लेते हैं। गेट्स एवं अन्य का मत है— “लगभग 40% बालकों को एक या इससे अधिक बार का विषम लिंगीय अनुभव होता है।”
8. समूह को महत्त्व – किशोर जिस समूह का सदस्य होता है उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्त्वपूर्ण समझता है। यदि उसके माता-पिता और समूह के दृष्टिकोणों में अन्तर होता है, तो वह समूह के ही दृष्टिकोणों को श्रेष्ठतर समझता है और उन्हीं के अनुसार अपने व्यवहार, रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन करता है। बिग एवं हण्ट के अनुसार- “जिन समूहों से किशोरों का सम्बन्ध होता है, उनसे उनके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन की विधियों को प्रभावित करते हैं।”
9. रुचियों में परिवर्तन एवं स्थिरता- के. के. स्ट्रांग के अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है कि 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है पर उसके बाद उनकी रुचियों में स्थिरता आ जाती है। वेलेनटाइन के अनुसार किशोर बालकों और बालिकाओं की रुचियों में समानता भी होती है और विभिन्नता भी उदाहरणार्थ बालकों और बालिकाओं में अग्रांकित रुचियाँ होती है— पत्र-पत्रिकायें, कहानियाँ, नाटक और उपन्यास पढ़ना, सिनेमा देखना, रेडियो सुनना, शरीर को अलंकृत करना, विषम लिंगी से प्रेम करना आदि। बालकों को खेल-कूद और व्यायाम में विशेष रुचि होती है। उनके विपरीत बालिकाओं में कड़ाई-बुनाई, नृत्य और संगीत के प्रति विशेष आकर्षण होता है।
10. समाज सेवा की भावना- किशोर में समाज सेवा की अति तीव्र भावना होती है। इस सम्बन्ध – में रॉस के ये शब्द उल्लेखनीय हैं- “किशोर समाज-सेवा के आदर्शों का निर्माण और पोषण करता है। उसका उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है और वह आदर्श समाज का निर्माण करने में सहायता देने के लिए उद्विग्न रहता है। “
11. ईश्वर व धर्म में विश्वास- किशोरावस्था के आरम्भ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है। इनके सम्बन्ध में उनमें इतनी शंकायें उत्पन्न होती है कि वे उनका समाधान नहीं कर पाती हैं। पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं।
12. जीवन दर्शन का निर्माण – किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न पूछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करने लगता हैं और फलस्वरूप अपने जीवन दर्शन का निर्माण करता है। वह ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण करना चाहता है, जिनकी सहायता से वह अपने जीवन में कुछ बातों का निर्णय कर सके। इसे इस कार्य में सहायता देने के उद्देश्य से ही आधुनिक युग में ‘युवक’ आन्दोलनों का संगठन किया जाता है।
13. अपराध-प्रवृत्ति का विकास – किशोरावस्था में बालक में अपने जीवन दर्शन, नये अनुभवों की इच्छा, निराशा, असफलता, प्रेम के अभाव आदि के कारण अपराध-प्रवृत्ति का विकास होता है। वैलेनटीन का विचार है – “किशोरावस्था, अपराध-प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में ही अपने व्यावसायिक जीवन को गम्भीरतापूर्वक आरम्भ करती है। “
14. स्थित व महत्त्व की अभिलाषा- किशोर में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनने और प्रौढ़ों के समान निश्चित स्थिति प्राप्त करने की अत्यधिक अभिलाषा होती है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के शब्दों में –
“किशोर महत्त्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहता है।”
15. व्यवसाय का चुनाव – किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है। इस सम्बन्ध में स्ट्रेंग का कथन है – “जब छात्र हाईस्कूल में होता है, तब वह किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने और उसमें उन्नति करने के लिए अधिक ही-अधिक चिन्तित होता जाता है। “
इस प्रकार हम देखते हैं कि किशोरावस्था में बालक में अनेक नवीन विशेषताओं के दर्शन होते हैं। इनके सम्बन्ध में स्टैनले हॉल ने लिखा है- “किशोरावस्था एक नया जन्म है, क्योंकि इसी में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानव-विशेषताओं के दर्शन होते हैं। “
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