माध्यमिक शिक्षा आयोग या मुदालियर कमीशन
Secondary Education Commission or Mudaliar Commission
स्वतन्त्र भारत के सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों के अनुकूल माध्यमिक शिक्षा के पुनर्संगठनों की आवश्यकता अनुभव की गयी। सन् 1948 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने भारत सरकार के समक्ष माध्यमिक शिक्षा की जाँच के लिये एक आयोग की नियुक्ति का विचार प्रस्तुत किया था। इसके फलस्वरूप 23 सितम्बर, 1952 को डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग की नियुक्ति की गयी। इस आयोग को मुदालियर कमीशन के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने जाँच के लक्ष्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा है-“भारत की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के सभी पक्षों की जाँच करना एवं उनके विषय में रिपोर्ट देना और उसके पुनर्गठन एवं सुधार के सम्बन्ध में सुझाव प्रस्तुत करना है।” माध्यमिक शिक्षा आयोग ने 29 अगस्त, 1953 को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस प्रतिवेदन में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निश्चित किये-
1. जनतान्त्रिक भावना का विकास (Development of democratic feeling)- जनतन्त्र केवल एक शासन पद्धति नहीं है, वह एक जीवन-पद्धति है। यदि हम शासन-पद्धति के रूप में उसे सफल बनाना चाहते हैं तो पहले हमें जनतन्त्र को जीवन पद्धति के रूप में सफल बनाना होगा। निकट अतीत में अपने देश में जो सामाजिक व्यवस्था थी, वह बहुत कुछ सामन्ती व्यवस्था ही थी, जिसमें धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-देहाती, ऊँच-नीच, द्विज- अन्त्यज, स्पृश्य-अस्पृश्य, स्वधर्मी-विधर्मी आदि विभिन्न आयामों में समाज बँटा हुआ था। जनतन्त्रीय जीवन-पद्धति और शासन पद्धति दोनों के लिये ऐसी व्यवस्था अभिशाप है। इस व्यवस्था को बदलना शिक्षा का कार्य है। आज शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिये, जो देश के लिये योग्य, सच्चे एवं ईमानदार नागरिक तैयार करे, जो नागरिकों में मानसिक परिपक्वता, सत्य-असत्य का ज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास, अन्धविश्वासी और रूढ़िवादी परम्पराओं का त्याग करने की सामर्थ्य आदि विकसित करे, जो उनमें राष्ट्रप्रेम, भाषण एवं लेखन में स्पष्टता, सामाजिक भावना, अनुशासन एवं सहयोग की भावना आदि गुण उत्पन्न करे।
2. व्यक्तित्व का विकास (Development of personality)- माध्यमिक शिक्षा द्वारा बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना चाहिये अर्थात् उसका शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक, भावात्मक आदि सभी प्रकार का विकास होना चाहिये। अतः शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिये, जो बालक के जन्मजात गुणों का विकास करे, अपेक्षित गुणों का अर्जन करने में बालक को समर्थ बनाये और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करे।
3.व्यावहारिक और व्यावसायिक क्षमता का विकास (Development of behavioural and vocational capacity)- अनेक विद्यार्थी माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा पाने के बाद औपचारिक शिक्षा समाप्त करके किसी न किसी व्यवसाय में लग जाते हैं। अत: उनमें माध्यमिक शिक्षाकालमें व्यावहारिक-व्यावसायिक क्षमता का विकास करने के लिये औद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिये।
4. साहित्यिक, कलालक और सांस्कृतिक रुचियों का विकास (Development of literary. aesthetic and cultural interests)- इनका विकास आत्माभिव्यक्ति के लिये तथा मानव व्यक्तित्व के विकास के लिये अनिवार्य है और इनके बिना किसी जीवित राष्ट्रीय संस्कृति का विकास तो दूर, अस्तित्व ही सम्भव नहीं है।
5. नेतृत्व के लिये शिक्षा (Education for leadership)- जनतन्त्र की सफलता के लिये नेतृत्व की शिक्षा अपरिहार्य है। सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, जो सामान्य व्यक्तियों का नेतृत्व कर सकें तथा उनमें विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व कर सकने की क्षमता का विकास करे।
Important Links
- समाज शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में | Society as an Effecting Factor of Education
- विद्यालय शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में | The School as an Effecting Factor of Education
- राज्य शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में | State as an Effecting Factors of Education
- परिवार शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में | Family As an Affecting Factors of Education
- मानवीय मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता | Need of Education of Human Value
- मानवीय मूल्यों की शिक्षा के सिद्धान्त | मानवीय मूल्यों की शिक्षा के उद्देश्य
- मानवीय मूल्यों के विकास में विद्यालय की भूमिका | Role of School in Development of Human Values
- मानवीय मूल्यों की शिक्षा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | Historical Background of Education of Human Values
- मानवीय मूल्यों की शिक्षा की अवधारणा एवं अर्थ | Concept and Meaning of Education of Human Values
- मानवीय मूल्य का अर्थ | Meaning of Human Value
- मानवीय मूल्यों की आवश्यकता तथा महत्त्व| Need and Importance of Human Values
- भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण का अर्थ तथा परिभाषा | Meaning & Definition of Globlisation
- वैश्वीकरण के लाभ | Merits of Globlisation
- वैश्वीकरण की आवश्यकता क्यों हुई?
- जनसंचार माध्यमों की बढ़ती भूमिका एवं समाज पर प्रभाव | Role of Communication Means
- सामाजिक अभिरुचि को परिवर्तित करने के उपाय | Measures to Changing of Social Concern
- जनसंचार के माध्यम | Media of Mass Communication
- पारस्परिक सौहार्द्र एवं समरसता की आवश्यकता एवं महत्त्व |Communal Rapport and Equanimity
- पारस्परिक सौहार्द्र एवं समरसता में बाधाएँ | Obstacles in Communal Rapport and Equanimity
- प्रधानाचार्य के आवश्यक प्रबन्ध कौशल | Essential Management Skills of Headmaster
- विद्यालय पुस्तकालय के प्रकार एवं आवश्यकता | Types & importance of school library- in Hindi
- पुस्तकालय की अवधारणा, महत्व एवं कार्य | Concept, Importance & functions of library- in Hindi
- छात्रालयाध्यक्ष के कर्तव्य (Duties of Hostel warden)- in Hindi
- विद्यालय छात्रालयाध्यक्ष (School warden) – अर्थ एवं उसके गुण in Hindi
- विद्यालय छात्रावास का अर्थ एवं छात्रावास भवन का विकास- in Hindi
- विद्यालय के मूलभूत उपकरण, प्रकार एवं रखरखाव |basic school equipment, types & maintenance
- विद्यालय भवन का अर्थ तथा इसकी विशेषताएँ |Meaning & characteristics of School-Building
- समय-सारणी का अर्थ, लाभ, सावधानियाँ, कठिनाइयाँ, प्रकार तथा उद्देश्य -in Hindi
- समय – सारणी का महत्व एवं सिद्धांत | Importance & principles of time table in Hindi
- विद्यालय वातावरण का अर्थ:-
- विद्यालय के विकास में एक अच्छे प्रबन्धतन्त्र की भूमिका बताइए- in Hindi
- शैक्षिक संगठन के प्रमुख सिद्धान्त | शैक्षिक प्रबन्धन एवं शैक्षिक संगठन में अन्तर- in Hindi