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विद्यालय के विकास में एक अच्छे प्रबन्धतन्त्र की भूमिका बताइए- in Hindi

विद्यालय के विकास में एक अच्छे प्रबन्धतन्त्र की भूमिका 

विद्यालय के विकास में एक अच्छे प्रबन्धतन्त्र की भूमिका

विद्यालय के विकास में एक अच्छे प्रबन्धतन्त्र की भूमिका 

विद्यालय प्रशासन की सफलता, उसकी विभिन्न क्रियाओं का भलीभाँति संचालन, उसके शैक्षिक कार्यक्रमों का सफल क्रियान्वयन मुख्य रूप से विद्यालय के कुशल प्रबन्धतन्त्र पर निर्भर करता है। उत्तर प्रदेश में सरकारी विद्यालयों के प्रबन्ध और संचालन का तो पूर्ण उत्तरदायित्व सरकार के ऊपर होता है, परन्तु इसके अतिरिक्त ऐसे विद्यालयों की संख्या भी बहुत अधिक है जो निजी प्रबन्धकों की देखरेख में संचालित होते हैं। इन विद्यालयों को सरकार द्वारा मान्यता मिली होती है तथा ये सरकार की ओर से सहायता अनुदान (Grant in Aid) प्राप्त करते हैं। सरकारी नीतियों एवं नियमों का पालन करना इन विद्यालयों के लिए आवशक होता है। जिला विद्यालय निरीक्षक समय-समय पर इनका निरीक्षण करते हैं और उनकी रिपोर्ट के आधार पर ही इन्हें सहायता अनुदान प्राप्त होता है।

मान्यता तथा सहायता अनुदान प्राप्त विद्यालयों का संचालन निजी प्रबन्धतन्त्र (Private management) द्वारा किया जाता है। किसी भी संस्था या विद्यालय के प्रबन्ध के लिए जो संगठन बनाया जाता है उसे प्रबन्धतन्त्र या (Management) के नाम से जाना जाता है। निजी विद्यालयों की व्यवस्था और उसकी गतिविधियों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए विद्यालय प्रबन्ध समिति’ (School Management Committee) प्रबन्ध समिति का गठन किया जाता है। यह समिति सरकार द्वारा पंजीकृत (Registered) होती है। प्रबन्ध समिति में सामान्यता विद्यालय को आर्थिक सहायता देने वाले सदस्य समाज के सम्भ्रान्त एवं प्रभावशाली नागरिक, प्रधानाध यापक तथा अभिभावकों के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायित्व प्रबन्ध समिति पर होता है। विद्यालय की समस्त शैक्षिक क्रियाओं का संचालन प्रबन्ध तन्त्र ही करता है। विद्यालय की समस्त शैक्षिक क्रियाओं का संचालन प्रबन्ध तन्त्र ही करता है। विद्यालय की सफलता बहुत कुछ कुशल प्रबन्धतन्त्र पर ही निर्भर करती है।

प्रबन्धतन्त्र का सम्बन्ध विद्यालय की निम्नलिखित क्रियाओं से होता है-

(1) विद्यालय भवन तथा खेल-कूद के मैदान की व्यवस्था करना-

शिक्षा एवं उसके प्रशासन को सफल बनाने में विद्यालय भवन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भवन में यदि कक्षों की संख्या कम होगी तो अध्यापन कार्य करने के अतिरिक्त शिक्षक चाहते हुए भी अन्य शैक्षिक कार्य स्थानाभाव के कारण सम्पन्न करने में असमर्थ होंगे। अत: विद्यालय प्रबन्धक को वर्तमान और भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विद्यालय भवन का निर्माण कराना चाहिए। पीने के पानी की व्यवस्था को भी भवन निर्माण के समय भूलना नहीं चाहिए। विद्यार्थियों के स्वास्थ्य, शारीरिक विकास के लिए विद्यालय में खेल-कूद के मैदान तथा व्यायामशाला की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

(2) छात्रावास की व्यवस्था-

विद्यार्थियों में आत्मनिर्भरता, सहयोग एवं सामूहिकता विकसित करने की जितनी शिक्षा छात्रावास से प्राप्त होती है उतनी विद्यालय के किसी अन्य साधन से नहीं। छात्रावास का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि छात्रावास कक्षों में स्वच्छ वायु एवं प्रकाश आदि की समुचित व्यवस्था हो तथा वहाँ सफाई का भी उचित प्रबन्ध होना चाहिए। छात्रावास में विद्यार्थियों को उचित मूल्य पर पौष्टिक भोजन मिलने की सुविधा होनी चाहिए। प्रबन्ध-तन्त्र का इन बातों की ओर समुचित ध्यान देना चाहिए।

(3) पुस्तकालय-

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकालय विद्यालय का एक आवश्यक अंग तथा विद्यार्थियों का ज्ञान प्रदान करने का महत्वपूर्ण साधन बन गया है। अत: प्रबन्धतन्त्र को पुस्तकालय के विकास की ओर भी समुचित ध्यान देना चाहिए।

(4) विद्यालय की साज-सज्जा, फर्नीचर तथा अन्य शिक्षण सामग्री की व्यवस्था-

प्रत्येक कक्ष में विद्यार्थियों के बैठने के लिए पर्याप्त फर्नीचर होना चाहिए। प्रत्येक कक्ष में एक श्याम-पट्ट, नैप-स्टैण्ड तथा दृश्य-श्रव्य सामग्री आदि का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। शिक्षण-सामग्री व उपकरणों के रखने के लिए अल्मारी आदि की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए।

(5) प्रयोगशाला की व्यवस्था-

आज पाठ्यक्रम में अनेक वैज्ञानिक विषयों पर महत्वपूर्ण स्थान होना है। अत: उने शिक्षण को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए प्रयोगशालाओं की व्यवस्था करना भी प्रबन्धतन्त्र का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है।

(6) पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन करना-

आज शिक्षा का उद्देश्य केवल बालकों को ज्ञान प्रदान करना ही नहीं है वरन् आज शिक्षा का उद्देश्य बालको के सभी पक्षों का विकास करके उनका बहुमुखी एवं सर्वागीण विकास करना और सर्वागीण में पाठ्यसहगामी क्रियाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। अत: इनकी समुचित व्यवस्था करना भी प्रबन्धतन्त्र का उत्तरदायित्व है। पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन करते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव या पक्षपात नहीं करना चाहिए वरन् सभी विद्यार्थियों को अपनी योग्याताओं और क्षमताओं के अनुसार इन क्रियाओं में भाग लेने का समान अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।

(7) विद्यालय में निर्देशन कार्यक्रम का संगठन-

विद्यालय प्रबन्धकों को समय-समय पर विद्यालय आकर उसकी गतिविधियों एवं शैक्षिक कार्यक्रमों का निरीक्षण करते रहना चाहिए तथा विद्यालय में जो कमियाँ दिखायी दें उन्हें दूर करने के लिए शिक्षकों एवं कर्मचारियों को निर्देश तथा परामर्श देना चाहिए।

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