किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं?
किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं? – बाल्यावस्था के समापन अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरम्भ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेगों की अवस्था कहा गया है। हैडो कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है-11-12 वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना आरम्भ होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ नई यात्रा आरम्भ की जाये तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।
जरशील्ड के शब्दों में, ‘किशोरावस्था वह समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।’
स्टेनले हॉल के अनुसार– “किशोरावस्था बड़े संघर्ष तनाव-तूफान तथा विरोध की अवस्था है।”
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के विचारानुसार, “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त में आरम्भ होता है और प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त होता है।” मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस अवस्था की अवधि साधारणतः 7 या 8 वर्ष से 12 से 18 वर्ष तक की आयु तक होती है। इस अवस्था के आरम्भ होने की आयु, लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति, व्यक्ति के स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है। सामान्यतः बालकों की किशोरावस्था लगभग 13 वर्ष की आयु में और बालिकाओं की लगभग 12 वर्ष की आयु में आरम्भ होती है। भारत में यह आयु पश्चिम के ठण्डे देशों की अपेक्षा एक वर्ष पहले आरम्भ हो जाती है।
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किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त
किशोरावस्था में बालकों और बालिकाओं में क्रान्तिकारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त प्रचलित हैं, यथा—
1. आकस्मिक विकास का सिद्धान्त –
इस सिद्धान्त का समर्थक स्टेनले हॉल हैं। उसने 1904 में अपनी ‘एडोलेसेन्स’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उसने लिखा है कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। स्टेनले हॉल का मत है— “किशोर में जो शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वे अकस्मात होते हैं।”
2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त के समर्थकों में किंग, थार्नडाइक और हालिंगवर्थ प्रमुख हैं। इन विद्वानों का मत हैं कि किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर और क्रमशः होते हैं। इस सम्बन्ध में किंग ने लिखा है- “जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अन्त में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक-दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।”
किशोरावस्था : जीवन का सबसे कठिन काल
किशोरावस्था वह समय है जिसमें किशोर को वयस्क समझता है और वयस्क उसे बालक समझते हैं। वयसंधि की इस अवस्था में किशोर अनेक बुराइयों में पड़ जाता है।
ई.ए. किर्कपैट्रिक का कथन है- “इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है। इस कथन की पुष्टि में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-
1. इस अवस्था में अपराधी प्रवृत्ति अपने पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और नशीली वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ हो जाता है।
2. इस अवस्था में समायोजन न कर सकने के कारण मृत्यु दर और मानसिक रोगों की संख्या अन्य अवस्थाओं की तुलना में बहुत अधिक होती है।
3. इस अवस्था में किशोर के आवेगों और संवेगों में इतनी परिवर्तनशीलता होती है कि वह प्रायः विरोधी व्यवहार करता है जिससे उसे समझना कठिन हो जाता है।
4. इस अवस्था में किशोर अपने मूल्यों, आदर्शों और संवेगों में संघर्ष का अनुभव करता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी दुविधापूर्ण स्थिति में पाता है।
5. इस अवस्था में किशोर, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था— दोनों अवस्थाओं में रहता है। अतः उसे न – तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ़ ।
6. इस अवस्था में किशोर का शारीरिक विकास इतनी तीव्र गति से होता है कि उसमें क्रोध, घृणा, चिड़चिड़ापन, उदासीनता आदि दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं।
7. इस अवस्था में किशोर का पारिवारिक जीवन कष्टमय होता है, क्योंकि स्वतन्त्रता का इच्छुक होने पर भी उसे स्वतन्त्रता नहीं मिलती है और उससे बड़ों की आज्ञा मानने की आशा की जाती है।
8. इस अवस्था में किशोर के संवेगों, रुचियों, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में इतनी अधिक परिवर्तनशीलता और अस्थिरता होती है, जितनी उसमें पहले कभी नहीं थी।
9. इस अवस्था में किशोर में अनेक अप्रिय बातें होती हैं, जैसे-उद्दण्डता, कठोरता, भुक्खड़पन, पशुओं के प्रति निष्ठुरता, आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति, गन्दगी और अव्यवस्था की आदतें एवं कल्पना और दिवास्वप्नों में विचरण ।
10. इस अवस्था में किशोर को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे-अपनी आयु के बालकों और बालिकाओं से नये सम्बन्ध स्थापित करना, माता-पिता नियन्त्रण से के मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने की इच्छा करना, योग्य नागरिक बनने के लिए उचित कुशलताओं को प्राप्त करना, जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण का निर्माण करना एवं विवाह, पारिवारिक जीवन और भावी व्यवसाय करने के लिए तैयारी करना ।
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