किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Form of Education in Adolescence)
किशोरावस्था में शिक्षा के सम्बन्ध में हैडो रिपोर्ट में लिखा गया है— “ग्यारह या बारह वर्ष की में बालक की नसों में ज्वार उठना शुरू हो जाता है। इसको किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाय, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।” आयु उपरिलिखित शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि किशोरावस्था आरम्भ होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है। इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए, इस पर हम प्रकाश डाल रहे हैं, यथा
1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा – किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल और सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। अतः उसे निम्नलिखित का आयोजन करना चाहिए-1. शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा, 2. विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम, 3. सभी प्रकर के खेलकूद आदि ।
2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा—किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में अग्रलिखित को स्थान दिया जाना चाहिए – 1. कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय-विषय, 2. किशोर की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण, 3. उसकी रुचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार करने के लिए पर्यटन, वाद-विवाद, कविता, लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियायें।
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3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा-किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता हैं। इन संवेगों में से कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरीकरण और उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्यि, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुन्दर व्यवस्था की जानी चाहिए।
4. सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा – किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्त्व देता है और उसमें आचार-व्यवहार की अनेक बातें सीखता हैं। अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और सम्बन्धों के पाठ सीख सके। इस दिशा में सामूहिक क्रियाएँ, सामूहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा – किशोर में व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत माँगों को पूर्ण किया जा सके। इस बात पर बल देते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है- “हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।”
6. पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा – किशोर अपने भावी जीवन में किसी-न-किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। पर वह यह नहीं जानता है कि कौन-सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।
7. जीवन दर्शन की शिक्षा- किशोर अपने जीवन दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य को उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। ‘ इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है— “किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तदायित्व विद्यालय पर है। “
8. धार्मिक व नैतिक शिक्षा- किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। फलस्वरूप, वह उचित व्यवहार के सम्बन्ध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता है। अतः उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके। इसीलिए कोठारी कमीशन ने हमारे माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की सिफारिश की है।
9. यौन शिक्षा – किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बन्ध उनकी काम-प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। इस शिक्षा की आवश्यकता और विधि पर अपना मत प्रकट करते हुए रॉस ने लिखा है कि — “यौन शिक्षा की परम आवश्यकता को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस बात की आवश्यकता है कि किशोर को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाय, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।”
10. बालकों व बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता- बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होना अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी.एन. झा ने लिखा है “लिंग-भेद के कारण और इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी चाहिए।”
11. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग-किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किसी प्रकार की शिक्षण विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस सम्बन्ध में रॉस का मत है—“विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए और उसका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए।”
12. किशोर के प्रति वयस्क का-सा व्यवहार- किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का-सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क का-सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसका कारण बताते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है— “जिन किशोरों के प्रति वयस्क का-सा जितना ही अधिक व्यवहार किया जाता है, उतना ही अधिक वे वयस्कों का सा व्यवहार करते हैं। “
13. किशोर के महत्त्व को मान्यता- किशोर में उचित महत्त्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक क्रियाओं, छात्र-स्वशासन और युवक-गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।
14. अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश – किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का मुख्य कारण हैं – निराशा। इस कारण को दूर करके उसकी अपराध-प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। विद्यालय, उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव करके उसकी निराशा को कम कर सकता है और इस प्रकार उसकी अपराध प्रवृत्ति को कम कर सकता है।
15. किशोर-निर्देशन- स्किनर के शब्दों में – “किशोर को निर्णय करने का कोई अनुभव नहीं होता है।” अतः वह स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं कर पाता है और चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन और परामर्श दे। यह उत्तरदायित्व उसके अध्यापकों और अभिभावकों को लेना चाहिए ।
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