नाटो (NATO) से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए।
नाटो (NATO) अमेरिकी नेतृत्व का एक सैन्य गठबंधन है। जिसका पूरा नाम North Atlantic Treaty Organization अर्थात् उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन है। इसकी स्थापना 4अप्रैल 1949 ई. को हुई थी। इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में अवस्थित हैं। वर्तमान में इसके सदस्य देशों की संख्या 29 है।
स्थापना के कारण
नाटो संगठन के स्थापना के निम्नवत् कारण हैं-
(1) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएँ हटाने से इंकार कर दिया एवं वहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना का प्रयास किया। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर साम्यवाद विरोधी नारा दिया। यूरोपीय देशों को साम्यवादी खतरे से सावधान किया गया। फलतः यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा कर सके।
(2) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम यूरोपीय देशों ने अत्यधिक नुकसान उठाया था। उनके आर्थिक पुनर्निर्माण हेतु अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा थी ऐसे में अमेरिका द्वारा नाटो की स्थापना का उन्होंने समर्थन किया।
उद्देश्य
नाटो के निम्नवत् उद्देश्य दृष्टिगोचर होते हैं-
- यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका निभाना।
- सोवियत संघ के पश्चिम यूरोप में तथाकथित विस्तार को रोकना तथा युद्ध की स्थिति में लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना।
- सैन्य तथा आर्थिक विकास हेतु अपने कार्यक्रमों द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा प्रदान करना।
- पश्चिम यूरोप के देशों को एक सूत्र में संगठित करना।
- इस प्रकार NATO का उद्देश्य स्वतंत्र विश्व’ की रक्षा के लिए साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए एवं यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया।
नाटो की संरचना
नाटो (NATO) की संरचना चार अंगों से मिलकर बनी है-
(1) परिषद – यह नाटो का सर्वोच्च अंग है। इसका निर्माण राज्य के मंत्रियों से होता है। इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है। परिषद का मुख्य उत्तरदायित्व समझौते की धाराओं को लागू करना है।
(2) उप परिषद्- यह परिषद नाटो के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद् है। ये नाटो के संगठन से सम्बद्ध सामान्य हितों वाले विषयों पर विचार करते हैं।
(3) प्रतिरक्षा समिति- इसमें नाटो के सदस्य देशों के प्रतिरक्षा मंत्री शामिल होते हैं। इसका मुख्य कार्य प्रतिरक्षा रणनीति तथा नाटो एवं गैर नाटो देशों में सैन्य सम्बन्धी विषयों पर विचार विमर्श करना है।
(4) सैनिक समिति- इसका मुख्य कार्य नाटो परिषद् एवं उसकी प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें देशों के सेनाध्यक्ष सम्मिलित होते हैं।
नाटो की सामान्य भूमिका एवं स्वरूप- नाटो के स्वरूप एवं उसकी भूमिका को उसके संधि प्रावधानों के आलोक में समझा जा सकता है। संधि के आरंभ में ही कहा गया, हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र की सदस्य देशों की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक विरासत, वहाँ के लोगों की सभ्यता, लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा कानून के शासन की रक्षा की जिम्मेदारी लेंगे। एक दूसरे के साथ सहयोग करना इन राष्ट्रों का कर्तव्य होगा इस तरीके से यह संधि एक सहयोगात्मक संधि का स्वरूप लिए हुए थी।
संधि प्रावधानों के अनुच्छेद 5 में कहा गया कि संधि के किसी एक देश या एक से ज्यादा देशों पर आक्रमण की स्थिति में इसे सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों पर आक्रमण माना जाएगा और संधिकर्ता सभी राष्ट्र एकजुट होकर सैनिक कार्यवाही के माध्यम से एकजुट होकर इस स्थिति का मुकाबला करेंगे। इस दृष्टि से उस संधि का स्वरूप सदस्य देशों को सुरक्षा छतरी प्रदान करने वाला है।
सोवियत संघ ने NATO को साम्राज्यवादी एवं आक्रामक देशों के सैनिक संगठन की संज्ञा दी एवं उसे साम्यवाद विरोधी स्वरूप वाला घोषित किया।
प्रभाव
नाटो के प्रभाव निम्न वर्णित हैं-
(1) पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा के तहत बनाए गए नाटो संगठन ने पश्चिमी यूरोप के एकीकरण को बल प्रदान किया। इसने अपने सदस्यों के मध्य अत्यधिक सहयोग की स्थापना की।
(2) इतिहास में पहली बार पश्चिमी यूरोप की शक्तियों ने अपनी कुछ सेनाओं को स्थायी रूप से एक अन्तर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन की अधीनता में रखना स्वीकार किया।
(3) द्वितीय महायुद्ध से जीर्ण-शीर्ण यूरोपीय देशों को सैन्य सुरक्षा का आश्वासन देकर अमेरिका ने इसे दोनों देशों को ऐसा सुरक्षा क्षेत्र प्रदान किया जिसके नीचे वे निर्भय होकर अपने आर्थिक एवं सैन्य विकास कार्यक्रम पूरा कर सकें।
(4) नाटो के गठन से अमेरिकी पृथक्करण की नीति की समाप्ति हुई एवं अब वह यूरोपीय मुद्दों से तटस्थ नहीं रह सकता था।
(5) नाटो के गठन से शीतयुद्ध को बढ़ावा दिया। सोवियत संघ ने इसे साम्यवाद के विरोध में देखा और प्रत्युत्तर में वारसा पैक्ट नामक सैन्य संगठन कर पूर्वी यूरोपीय देशों में अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की।
(6) नाटो के अमेरिकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया। उसकी वैदेशिक नीति के खिलाफ किसी भी तरह के बाद प्रतिवाद को सुनने के लिए तैयार नहीं रही और नाटो के माध्यम से अमेरिका का यूरोप में अत्यधिक हस्तक्षेप बढ़ा।
(7) यूरोप में अमेरिका के अत्यधिक हस्तक्षेप ने यूरोपीय देशों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि यूरोप की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान यूरोपीय दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण ने “यूरोपीय समुदाय” के गठन के मार्ग प्रशस्त किया।
विस्तार शीत युद्ध के पश्चात् नाटो- नाटो की स्थापना बाद विश्व में और विशेषकर यूरोप में अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ इन दो महाशक्तियों के मध्य युद्ध खतरनाक मोड़ लेने लगा एवं नाटो का प्रतिकर करने के लिए पोलैण्ड की राजधानी वारस में पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के साथ मिलकर सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट की स्थापना की।
1990-91 में सोवियत संघ के विखंडन के साथ ही शीत युद्ध की भी समाप्ति भी समाप्त हो गया। किन्तु अमेरिका में नाटो को भंग नहीं किया बल्कि अमेरिकी नेतृत्व में नाटो का है। वारसा पैक्ट और विस्तार ही हुआ। इसी बिन्दु पर यह सवाल उठता है कि शीत युद्ध कालीन दौर में निर्मित इस संगठन का शीत युद्ध के अन्त के बाद मौजूद रहने का क्या औचित्य है।
शीत युद्धोत्तर काल में अमेरिका द्वारा नाटो की भूमिका पुनर्परिभाषित की गई। इसके तहत कहा गया कि सम्पूर्ण यूरोप के क्षेत्रों में यह पारस्परिक सहयोग और संबंधों के विकास का माध्यम है। इतना ही नहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों व आदर्शों के विकास एवं प्रसार में भी नाटो की भूमिका को वैध बनाने का प्रयास किया।
अमेरिका ने नाटो की भूमिका को शीतयुद्ध कालीन गुटीय राजनीति से बाहर निकालकर वैश्विक स्वरूप प्रदान किया। नाटो को अब शांति स्थापना के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के उन्मूलन में भी इसकी भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है। निम्नवत् बिंदुओं के अन्तर्गत शीत युद्धोत्तर कालीन नाटो की भूमिका एवं विस्तार को देखा जा सकता है-
(1) 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान अल्बानिया को नाटो द्वारा नागरिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की गई।
(2) सामूहिक सुरक्षा के संदर्भ में भी नाटो की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। इसमें अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने तथा मानवता के लिए खतरा बने ‘दुष्ट राज्यों’ से सुरक्षा की बात की गई। 2002 के प्राग शिखर सम्मेलन में नाटो के अन्तर्गत त्वरित कार्यवाही बल (Rapid Response force) के गठन का प्रस्ताव लाया गया ताकि आतंकवादी हमले एवं दुष्ट राज्यों की प्रतिक्रियाओं को प्रतिसंतुलित किया जा सके।
(3) नाटो की सदस्यता में वैचारिक और पूर्व के प्रतिपक्षी गुटों में शामिल देशों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया। 1991 के मिलौरी सम्मेलन में तीन नए राष्ट्रों पोलैण्ड, हंगरी एवं चेक गणराज्य को सदस्यता प्रदान की गई। फलतः सदस्य संख्या 19 हो गई शीत युद्ध काल के एस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, स्लोवेनिया और अन्य सदस्यों के सदस्य बनने से सदस्यों की कुल संख्या बढ़कर 26 हो गई। इस तरह अब पूर्वी यूरोप के देश भी नाटो में सम्मिलित हो गए एवं यूरोप के एकीकरण को बल मिला। वर्तमान में इसके सदस्य देशों की संख्या 29 तक हो गई है।
(4) यद्यपि आरंभ में रूस में नाटो के विस्तार पर चिंता जताई थी लेकिन बदलती अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार नाटो सदस्य देशों के साथ पारस्परिक सहयोग हेतु रूस को भी इसके अन्तर्गत लाने की बात की जा रही है। नाटो के महासचिव एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने नाटो के विस्तार के सकारात्मक पक्षों पर बल दिया उनके अनुसार यह राजनीतिक आर्थिक संबंधों को बल प्रदान कर पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देना नाटो का विस्तार रूस के लिए खतरा नहीं है। नाटो को रूस की जरूरत एवं रूस को नाटो की जरूरत है।
नाटो अपने इस विस्तार से यूरोप में एक प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में उभरा। शीतयुद्ध के काल में जो पश्चिम यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता था, वही नाटो शीतयुद्ध काल में सम्पूर्ण यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता था।
नाटो के विस्तार के पक्ष में जो सकारात्मक बातें कही गयी, इसके बावजूद उसकी आलोचना भी की जाती है। वस्तुतः नाटो की भूमिका शांति स्थापना, आपसी सहयोग आदि के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका का हनन करती है। समझने की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में की गई। जिसका उद्देश्य विश्व शांति है। जबकि नाटों की स्थापना एक क्षेत्रीय संगठन के रूप में की गई। किन्तु इसके बावजूद अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में शांति स्थापना हेतु नाटो की भूमिका UNO के समानान्तर दिखती है।
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